
श्रीनगर से 60 किलोमीटर दूर शोपियां में एक अप्रैल को हाल के बरसों की सबसे भीषण मुठभेड़ हुई. सेना, अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस की इस साझा कार्रवाई में 13 आतंकी मारे गए. मुठभेड़ स्थल के नजदीक करीब 150 लोगों की आबादी वाली बस्ती पडेरपुरा को ज्यादा आघात लगा क्योंकि मारे गए आतंकवादियों में से तीन इसी गांव के थे. लगा कि पडेरपुरा गांव के आतंक के साथ तीन दशक पुराने रिश्ते और उसकी दुश्वारियों का यहीं खात्मा हो जाएगा.
लेकिन ठीक 17 दिन बाद गांव के ही एक और युवक 20 साल के आबिद नजीर के गायब होने की खबर आई. वह पंजाब के जालंधर से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था. आबिद सेना से जुडऩे की ख्वाहिश रखता था (उसने 2016 में नेशनल डिफेंस एकेडमी यानी एनडीए की परीक्षा पास भी की थी).
उसका परिवार सीपीएम का कट्टर समर्थक है. आबिद अपने गांव के मारे गए आतंकियों की शवयात्रा में भी शामिल हुआ था. उसके गायब होने के एक दिन बाद ही फेसबुक और व्हाट्सऐप पर उसकी तस्वीरें पोस्ट हुईं, जिसमें वह हाथ में राइफल थामे जंग को तैयार दिखाई दिया. वहां उसका नया ठिकाना लिखा थाः हिज्बुल मुजाहिदीन.
आबिद के बड़े भाई और सीपीएम कार्यकर्ता इमरान नजीर कहते हैं, ''बस ऊपरवाला ही जानता है कि आखिर उसके दिमाग में क्या चल रहा था.'' वे बताते हैं कि उनके भाई ने कभी रत्तीभर भी आतंकवाद की ओर झुकाव नहीं दिखाया था.
उनका परिवार स्थानीय आतंकियों की धमकी के चलते अंधेरा होने से पहले ही घर वापस आ जाया करता था. इमरान के ही शब्दों में, ''अब्बा अक्सर घर से दूर ही रहे ताकि आतंकियों का निशाना न बनें.''
ऐसी कहानियां अब कश्मीर घाटी में आम होती जा रही हैं. युवा और यहां तक कि अब किशोरवय लड़के भी मर्जी से घर छोड़कर आतंकवाद का रुख करने लगे हैं. जुलाई 2016 में हिज्बुल के चर्चित कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से यह प्रवृत्ति ज्यादा देखी जा रही है.
आतंकी संगठनों में स्थानीय लोग ज्यादा भर्ती होने लगे हैं और यह तब हो रहा है जब सुरक्षा बलों ने पिछले साल आतंकियों के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई और रात के समय भी ऑपरेशन चलाने की शुरुआत की है.
मरने वाले आतंकियों की बढ़ती संख्या और उनकी शवयात्रा में उमड़ती भीड़ देखकर शायद युवा हथियार उठाने की प्रेरणा पा रहे हैं. एक नजर इन तथ्यों पर डालें—पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी)-भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार बनने के पहले साल में 66 युवा आतंकी संगठनों में शामिल हुए थे.
2016 में यह संख्या बढ़कर 88 और 2017 में 126 हो गई. इस साल के शुरुआती चार महीनों में भी 48 स्थानीय युवा आतंकी संगठनों में शामिल हो चुके हैं. एक अप्रैल को शोपियां में हुए एनकाउंटर के बाद से 16 लड़कों का कोई अता-पता नहीं है. आबिद नजीर उन्हीं 16 लड़कों में से एक है.
आबिद जैसी कहानी बहुत-से परिवारों की हैं जिनके बच्चों ने आतंक की राह चुन ली है. जब मुख्य राजनैतिक दल खासतौर से पीडीपी ने 2014 में भाजपा का हौवा खड़ा किया तो अनंतनाग के देहरुना गांव के मोहम्मद अफजल वानी आतंकियों के चुनाव बहिष्कार को ठेंगा दिखाते हुए राजनैतिक दल के सक्रिय कार्यकर्ता बने थे.
वानी गांव में सक्रिय जमात-ए-इस्लामी का मुखरता से विरोध करते हुए भाजपा में शामिल हो गए. चुनाव के दौरान देहरुना गांव में जो 11 वोट डाले गए थे, उनमें से पांच वोट वानी के परिवार के लोगों ने डाले थे. उनका बेटा जुबैर इस फैसले से बहुत नाराज था.
इसी साल 21 अप्रैल को जुबैर यह कहकर गांव के अपने पुश्तैनी घर से निकला कि वह श्रीनगर में राज्य स्तरीय शिक्षक भर्ती परीक्षा देने जा रहा है. लेकिन जल्दी ही उसका मोबाइल नंबर पहुंच से बाहर हो गया.
चौबीस घंटे बाद सोशल मीडिया पर उसकी फोटो आई जिसमें उसने हाथों में कलाशनिकोव राइफल थाम रखी थी. जुबैर के मन में पहले से ही गुस्सा भरा था क्योंकि एक अप्रैल को एनकाउंटर में मारे गए हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी रऊफ खांडे की शवयात्रा में उमड़ी भीड़ ने उसे हथियार उठाने के लिए प्रोत्साहित किया.
उसकी मां कहती हैं कि जुबैर आतंकी हो ही नहीं सकता. उसके आतंकी बनने की खबर से वे हैरान हैं. वे कहती हैं, ''जुबैर तो नौकरी की तलाश में था. वह नायब तहसीलदार शिक्षक बनने के लिए भर्ती परीक्षा की तैयारी कर रहा था.
वह तो हमेशा पढ़ता रहता था. नमाज के अलावा और कभी घर से बाहर निकलता भी न था.'' उसके पिता भाजपा से अपने संबंधों को छुपाते नहीं हैं. वानी स्वीकार करते हैं कि ''मैंने अपने छोटे बेटे को भाजपा प्रत्याशी के लिए पोलिंग एजेंट बनाया.
मुझे लगता था कि वे मेरे बेटे को नौकरी दिलाने में मदद करेंगे. लेकिन हमें सिर्फ धोखा मिला.'' उनके चेहरे से साफ झलकता है कि वे खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं. जुबैर के दोस्त उसे बेहतर जानते थे. वे अपना नाम तो नहीं जाहिर करना चाहते लेकिन जुबैर के बारे में वे बताते हैं कि वह ''रूढ़िवादी मुस्लिम था जो हमेशा कहता था कि कश्मीर को राजनैतिक समाधान की जरूरत है.''
श्रीनगर में दस्तगीर साहिब की मजार के बहुत पास रहने वाले पत्थरबाज 18 साल के फहद मुश्ताक वाजा ने 23 मार्च को घर छोड़ दिया और लश्कर-ए-तैयबा में शामिल हो गया. वह नेशनल कॉन्फ्रेंस के सक्रिय कार्यकर्ताओं के परिवार से आता है जिसका मुख्य पेशा कश्मीरी शादियों में पकाया जाने वाला परंपरागत व्यंजन वाजवान तैयार करना रहा है.
उसके बड़े भाई उमर मुश्ताक नेशनल कॉन्फ्रेंस छोड़कर कांग्रेस से जुडऩे का मन बना रहे थे लेकिन फहद के चले जाने से उन्होंने अपना इरादा फिलहाल बदल दिया है. उमर कहते हैं, ''अभी ऐसा करना ठीक नहीं होगा. फहद मुझसे हमेशा मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े होने को लेकर बहस किया करता था.''
उसकी परेशान अम्मी ने वीडियो अपील जारी कर लौट आने की मिन्नत की है. फुटबॉल खिलाड़ी से आतंकी बना माजिद खान अपनी मां की इल्तिजा पर आतंक से मुंह मोड़कर लौट आया था और जिसकी खूब चर्चा भी हुई थी, उससे उलट फहद ने मां की अपील का कोई जवाब नहीं दिया.
पुलिस अफसर कहते हैं कि आतंक की राह छोड़कर लौटने वाले माजिद को जिस प्रकार सोशल मीडिया पर नीचा दिखाया गया था, शायद उसी वजह से फहद मां की अपील पर चुप्पी साधे है.
पडेरपुरा में मारे गए आतंकियों में हिज्बुल मुजाहिदीन का शीर्ष कमांडर इशफाक मजीद ठोकर भी था. इशफाक, युवा सेना अधिकारी लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की हत्या में भी शामिल था. फैयाज शोपियां के बटपोरा गांव में एक रिश्तेदार की शादी में शामिल होने गए थे.
वहां से उनका अपहरण करके हत्या कर दी गई थी. 2015 में इशफाक के आतंकी बनने से पहले उसके पिता अब्दुल मजीद पीडीपी के सक्रिय कार्यकर्ता थे. पिछले तीन साल में उनके परिवार ने आतंकवाद के कारण बहुत कुछ खोया है. अब्दुल मजीद कहते हैं, ''मैं अब वोट नहीं डालूंगा. हमने खून दिया है, इसका ब्योपार (कारोबार) नहीं करेंगे.''
जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी हालात को 'चिंताजनक' करार देते हुए कहते हैं कि यह स्थिति केवल दक्षिणी कश्मीर क्षेत्र तक सिमटकर नहीं रहने वाली. श्रीनगर और दूसरी जगहों पर हुए एनकाउंटर की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं, ''आतंकवाद अब पूरी कश्मीर घाटी में फैल चुका है.''
5 मई को एक मुठभेड़ में लश्कर के तीन आतंकी मारे गए. यह मुठभेड़ झेलम के किनारे श्रीनगर के चट्टाबल इलाके में चार घंटे से ज्यादा समय तक चली थी. मारे गए लोगों में एक साल पहले आतंकी बना श्रीनगर का युवा फैयाज अहमद हम्माल भी शामिल था.
उस शाम श्रीनगर के ईदगाह स्थित कब्रिस्तान में मातम मनाने वालों की भारी भीड़ उमड़ी जिसमें बहुत-से युवा काफी गुस्से में दिखे. पुलिस और सीआरपीएफ की गाडिय़ां देखकर गुस्साए युवाओं ने पत्थरबाजी शुरू कर दी. अंधेरा होने के साथ जब फैयाज के शव को कब्र में रखा गया, उस समय कुछ आतंकी वहां पहुंचे और अपने साथी को अंतिम सलामी देने के लिए गोलियां चलाने लगे.
हालात तेजी से बदल रहे हैं. पिछले चार महीने में सुरक्षा बलों ने 34 कश्मीरी आतंकियों को मारा है लेकिन 48 नए लोगों ने हथियार उठा लिए हैं. पुलिस अधिकारी कहते हैं कि आतंकी संगठनों में भर्ती होने वाले नए लड़कों को घाटी में मौजूद लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों से हथियार चलाने की बुनियादी ट्रेनिंग भर दी जाती है.
इसी कारण ये मुठभेड़ों में ज्यादा देर तक नहीं टिक पाते. तो वे आतंकी क्यों बन रहे हैं? राज्य के पुलिस महानिदेशक शेष पॉल वैद कहते हैं, ''ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि आज कश्मीर में हर कोई आतंकवाद का महिमामंडन कर रहा है.''
लेकिन इसके अलावा भी कई कारण हैं. पीडीपी के यूथ विंग के अध्यक्ष वहीद-उर-रहमान का मानना है कि कश्मीरी युवा पूरे देश को संदेश देने का काम कर रहे हैं. वे कश्मीरियों पर बढ़ रहे हमलों को इसका सबसे बड़ा कारण बताते हैं.
रहमान कहते हैं, ''पहले दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल, पुलिस, सीआरपीएफ और सेना कश्मीरियों पर शक करने और उन्हें हिरासत में लेने में जुटी रहती थी. आज आप देखेंगे कि आम लोग भी मेवाड़ यूनिवर्सिटी, लखनऊ यूनिवर्सिटी जैसी जगहों पर कश्मीरियों (छात्रों) के साथ मार-पीट और बदसलूकी करने लग गए हैं.
युवाओं को ऐसा लगने लगा है कि वे अवांछित हैं. कश्मीरियों से बात करने के लिए उन्हें वार्ताकार की जरूरत नहीं है बल्कि एक बड़े वार्ताकार की जरूरत है जो देश से बात कर सके.''
मीरवाइज उमर फारूक का कहना है कि सरकार युवाओं को दरकिनार करने की नीति पर चल रही है और मौजूदा हालात उसी का नतीजा हैं. वे हुर्रियत पर शिकंजा कसे जाने, छात्र राजनीति पर रोक लगाने जैसी बातों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि युवाओं को सामान्य गतिविधियों में शामिल होने पर लगातार बंदिशें लगाई जा रही हैं.
इसके कारण कश्मीरी युवाओं का आतंकी संगठनों के प्रति रुझान बढ़ा है. मीरवाइज कहते हैं, ''पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस इसके लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने देश को यह बताकर गुमराह किया है कि यहां सब ठीक है. छर्रा बंदूक और दूसरे बर्बर तरीकों ने भी राज्य के लोगों में बहुत गुस्सा भर दिया है.''
लगातार मुठभेड़ों में आतंकी संगठनों को भारी क्षति के बावजूद स्थानीय युवाओं के आतंकवाद के प्रति बढ़ते रुझान ने सुरक्षाबलों की भी चिंता बढ़ाई है. पिछले महीने एक अप्रत्याशित बयान में सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने माना, ''वह समय दूर नहीं है जब वे (कश्मीरी युवा) यह समझ जाएंगे कि इस तरह न तो सुरक्षा बल और न ही आतंकवादी किसी अंजाम तक पहुंच सकेंगे.''
जनरल रावत ने कहा कि शांति ही एकमात्र जरिया है जो कश्मीर के हालात बदल सकता है. वास्तव में अभी मुख्यधारा की राजनीति भी गंभीर खतरों का सामना कर रही है.
अप्रैल में पुलवामा में एक पीडीपी कार्यकर्ता गुलाम नबी पाटिल की गोली मारकर हत्या कर दी गई. इससे राजनैतिक कार्यकर्ताओं के बीच खौफ के दौर की फिर से आहट मिलने लगी है.
महबूबा मुफ्ती के 2016 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही अनंतनाग की लोकसभा सीट खाली है क्योंकि फिलहाल कोई भी राजनैतिक दल दक्षिणी कश्मीर में स्थित इस संसदीय क्षेत्र में चुनाव अभियान शुरू करने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है. दिल्ली और श्रीनगर में काम करने वाली सरकारें 2019 में घाटी की तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव किस प्रकार कराएंगी, यह भी एक पहेली ही है.
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