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कश्मीरः लोकतंत्र पर गंभीर सवाल उठाती ये रिट याचिका

एक तरफ नियंत्रण रेखा पर बढ़ रही घटनाओं की खबर सुर्खियां बन रही हैं, दूसरी ओर घाटी में सियासी दुराव की स्थिति संजीदा हो रही

सिद्दीक वाहिद सिद्दीक वाहिद
मंजीत ठाकुर
  • नई दिल्ली,
  • 21 फरवरी 2018,
  • अपडेटेड 5:25 PM IST

कश्मीर में पिछले दो हफ्ते से बड़े मामलों और अंदेशों के अलावा घटनाओं और संदर्भों का दबदबा बना हुआ है. हमारे लिए इसे समझना जरूरी है ताकि परमाणु शक्तिसंपन्न दक्षिण एशिया पर लटकते खतरे की गंभीरता को समझा जा सके.

ताजा घटना है तीन कश्मीरी युवकों की मौत. ये तीनों नौजवान सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए. इससे पैदा हुई स्थितियां इतनी संगीन थीं कि जम्मू-कश्मीर सरकार को भारतीय सेना के एक बड़े अधिकारी के खिलाफ एफआइआर दर्ज करानी पड़ी. लेकिन उस अधिकारी के पिता ने इस एफआइआर को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. उनका कहना था कि ऐसा कोई अधिकार है ही नहीं.

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इसका मतलब यह हुआ कि मारे गए तीन युवकों—जावेद भट्ट, सुहैल लोन और रईस गनई—के माता-पिता के पास जांच कराने या सजा दिलाने की तो बात ही दूर है, अपने बेटों की मौत का रिकॉर्ड रखने का भी अधिकार नहीं है.

सजा दिलाने की तो कोई भी संभावना नहीं है क्योंकि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) के तहत मुकदमा चलाने के लिए राज्य सरकारों को केंद्र सरकार की अनुमति लेनी होती है.

रिट याचिका में यह दुविधा कश्मीर के लिए भारतीय लोकतंत्र में निहित विरोधाभास की विडंबना को उजागर करती हैः कथित रूप से ''जनता" की चुनी हुई सरकार जनता का ही प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है.

इसका तात्कालिक संदर्भ यह है कि हाल के वर्षों में नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर औसतन 300 बार युद्धविराम का उल्लंघन हुआ, पिछले छह महीने में पाकिस्तान के एक भी नागरिक को वीजा नहीं दिया गया है, सैनिक कार्रवाइयों, नियंत्रण रेखा के पास रह रहे नागरिकों को दर-बदर करने, अंग-भंग करने और मौत के घाट उतारने की घटनाओं में अभूतपूर्व रूप से तेजी आई है.

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यह पाकिस्तान-इंडिया पीपल्स फोरम फॉर पीस ऐंड डेमोक्रेसी (पीआइपीएफपीडी) के तपन बोस ने इस महीने की शुरुआत में भुवनेश्वर में 10वीं बैठक की तैयारी की रिपोर्ट में बताया है. यह दिखाता है कि एक तंत्र के रूप में सरकार इस बात की उपेक्षा करती है कि राजकाज जनता के लिए होता है—न कि केवल इलाके के लिए, जैसा कि तथाकथित राष्ट्र-राज्य की 500 साल पुरानी अवधारणा हमें बताती आई है.

वाकए और संदर्भ का यह सम्मिलन दक्षिण एशिया को दो सबसे बड़े क्षेत्रीय और जनसांख्यिकी वाले देशों भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में विरोधाभासों और गड़बड़ियों को दिखाता है. इससे एक बड़ा खतरा खड़ा हो गया है जिसे दुनिया देख नहीं पा रही है लेकिन दोनों देशों के नागरिक दिनों-दिन इस खतरे के प्रति सचेत हो रहे हैं.

फिर कश्मीर में मूड क्या है? सख्त रवैए में बदलाव की एक छोटी-सी लहर भी नहीं दिखाई देती. पीडीपी की ओर से दर्ज एफआइआर को लोग सिर्फ दिखावा मान रहे हैं और जानते हैं कि पार्टी के लिए यह चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरा वाला दांव है.

पार्टी एक घटना पर लोगों की नाराजगी के अवसर का लाभ उठाना चाहती है और दूसरी तरफ गठबंधन की साझेदार भाजपा पर जिम्मा डाल देती है कि वह एएफएसपीए जो वास्तव में मार्शल लॉ ही है, के संदर्भ का इस्तेमाल करके वास्तविक कार्रवाई को बेअसर कर दे.

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घटना और संदर्भ का यह गैर-इरादतन सम्मिलन सियासी रूप से नाजुक कश्मीर को यह समझने का मौका देता है कि कुछ महीने पहले केंद्र में भाजपा की सरकार के रवैए में अचानक नरमी क्यों आ गई थी, जब उसने कश्मीर के लिए ''विशेष प्रतिनिधि" नियुक्त किया था.

भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की वास्तविक समस्या यह है कि वह गवर्नेंस में अपने सहयोगियों को नियंत्रित करने में असमर्थ है. यहां यह गौरतलब है कि इनका चुनावी जुमला, इनके संघ और विस्तारित परिवार और नियंत्रण की जद से बाहर ही रहे साझेदारों के समर्थकों के आधार की वास्तविक आस्था है. 

इसका संकेत केंद्र सरकार की रक्षा मंत्री के रुख से साफ देखा जा सकता है जिन्होंने पहले तो एफआइआर का समर्थन किया और बाद में उस ''रियायत" को बदल दिया. इसके अलावा एक अन्य संकेत टेलीविजन पर बोलने वालों के मूड से भी मिलता है. कश्मीर पर बहस करते हुए उनका यही कहना होता है कि युद्ध की बात के सिवा और कोई बात नहीं. कश्मीर में इसे एक सामान्य बात माना जा रहा है.

कश्मीर में यह मान लेना सामान्य बात हो गई है कि उनका यह संघर्ष उस राज्य के साथ लड़ते हुए खत्म हो जाने तक है जो उनकी बेरोजगारी, बुनियादी ढांचे, अर्थव्यवस्था और विकास के लिए जबावदेह है. यह नई दिल्ली के लिए ज्यादा चिंता का विषय होना चाहिए.

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सिद्दीक वाहिद मध्य यूरेशिया और तिद्ब्रबत के राजनीतिक इतिहासकार, पूर्व कुलपति और कश्मीर की राजनीति पर मशहूर टिप्पणीकार हैं.

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