
नोटबंदी को एक साल पूरा हो गया. किसानों का कहना है कि साल भर उन्होंने सिर्फ मार झेली है. किसानों का आरोप है कि कैशलेस ट्रांजेक्शन ने भी उनके बुरे हाल किए हैं. ऐसे ही एक किसान का पूरा साल कैसे बीता... ये समझने का प्रयास किया 'आजतक' ने.
पुणे के मुख्य सब्जी मंडी जाने पर मालूम हुआ कि इन दिनों प्याज के बाजार में तेजी आई हुई है. कारण बताया गया कि पिछले महीने लगातार बारिश होने से नई प्याज की फसल बर्बाद हुई है और इसीलिए जिन किसानों के पास पुराना प्याज रखा हुआ था उन्हें अच्छा मुनाफा हो रहा है. अहमदनगर जिले के सांगवी सूर्या गांव में प्याज की फसल उगाने वाला विनायक कोठाले किसान के प्याज को चालीस रूपया किलो का भाव मिला है. लेकिन इसके बावजूद उसके चेहेरे पर खुशी नहीं झलक रही है.
अहमदनगर जिले से आए किसान विनायक कोठाले के मुताबिक नोटबंदी के कारण अब किसान को फसल के पैसे बहुत देरी से मिलने शुरू हो गए हैं. कैश पैसा तो मिलेगा नहीं, और चेक भी एक महीने बाद उसके हाथ आएगा. व्यापारी को फसल बेचने के एक महीने बाद चेक मिलता है उसके आठ दिन बाद चेक पास होता है. जिससे विनायक को घर चलाने में और खेती में काम करने वाले मजदूरों को पैसे देने में बहुत दिक्कतें आती हैं.
यही हाल अन्य किसानों का भी है. किसानों का कहना है कि नोटबंदी से किसानों का बहुत नुकसान हुआ है. खेत में जो काम करने वाले मजदूर हैं वो पढ़े-लिखे नहीं होने से उनके अकाउंट का चेक देना या फिर RTGS करने के लिए वो सहमत नहीं होते. इसीलिए उन्हे नगद पैसे देने पड़ते हैं और बैंक से दो हजार की नोट मिलती है तो मुश्किल जा रही है.
किसान भच्छिंद्र भाकरे बताते हैं, "नोटबंदी के पहले किसान अपना माल खेती के बांध पर बेचता था लेकिन अब व्यापारी खेती में माल खरीदने नहीं आते. पैसे ट्रांसफर करने में तकलीफ होती है. व्यापारी हमें चेक देता है तो 20 दिन तक चेक क्लियर नहीं होता. किसान को पैसे की बहुत जरूरत होती है. आज प्याज को थोड़ा सा भाव मिला है लेकिन पिछले साल कुछ भी भाव नहीं था. प्रिंसिपल भी नहीं निकला."
अहमदनगर जिले के सांगवी सूर्या गांव में किसान अपना गुजरा कैसे करते हैं ये जानने 'आजतक' की टीम उस इलाके में भी पहुंची. मालूम पड़ा कि अधिकतर किसान साल में दो बार होने वाली फसल और उसे बेचकर होने वाली आमदनी पर पूरे साल गुजारा करते हैं, नोटबंदी के साथ-साथ कैशलेस ट्रांजेक्शन के कारण विनायक जैसे अन्य किसानों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है.
गोविंद धुमल और उनके परिवार के पास पैसे नहीं होने के कारण उन्हें गुजारा करना भी मुश्किल हो रहा है. गोविंद धुमल की कहानी भी ठीक वैसी ही है. उन्हें चेक से पेमेंट करने से दो-दो महीनों तक पैसे नहीं मिलते. जिससे उनकी हालत खराब है. उनका कहना है कि इस बार बारिश अच्छी हुई है. फसल भी अच्छी निकली है. लेकिन पैसे न मिलने से उन्हें दो दिन बैंक में जाना पड़ता है और कैशलेस सिस्टम ऑपरेट करना ना आने कि वजह से उन्हें एक व्यापारी ने एक साल से पैसा नहीं दिया है. उन्हें चेक भी लिखना नहीं आता जिससे उनके दस चेक खराब हो गए हैं. टाइम पर मजदूरों को पैसे ना देने से मजदूर भी परेशान हैं.
गोविंद धुमल ने भी एक साल से किसानों के हाल सुनाए, "प्याज की खेती करते हैं, दो-चार एकड़ प्याज उगाते हैं, खर्चा बहुत है लेकिन कीमत उतनी नहीं मिलती. चेक आता है व्यापारी से लेकिन पैसा नहीं मिल रहा. क्योंकि चेक बाउंस भी होता है. पेमेंट आने में लेट हो जाता है. मजदूर उतने दिन रहते नहीं है. पैसा जल्दी नहीं आता तो मजदूर रुकते नहीं हैं. घर का खर्चा चलाना भी मुश्किल हो जाता है. पेट्रोल, डीजल और बाकी के खर्चों का प्रॉब्लम हो जाता है. मजदूर चले जाते हैं तो लोडिंग करने में मुश्किल आती है. ऐसी बहुत दिक्कत है."
खेती में काम करने वाले मजदूरों के भी बुरे हाल हैं. उज्ज्वला राजाराम ढवले ने बताया कि कैसे उन्हें चेक से पेमेंट मिलता है और फिर खेत के जो मजदूर काम करते हैं उन्हें रोज रोटी खाने के लिए रोज पैसे लगते हैं. बहुत छोटी-छोटी प्रॉब्लम हैं. खेती से जुड़े लोगों के खाने के बहुत वांदे चल रहे हैं.
नोटबंदी और कैशलेस ट्रांजेक्शन के बीच फंसे हैं मजदूर-किसान और व्यापारी. मजदूर परेशान हैं कि किसान पैसा नहीं देता. किसान परेशान है कि व्यापारी चेक देरी से दे रहा है. व्यापारी परेशान है कि हाथ में कैश नहीं तो- किसानों को खाली है भेजना पड़ रहा है. कुल मिलाकर बाजार में एक साल बाद तेजी आने के बावजूद किसानों के चेहरे पर खुशी नहीं है.
पुणे, अहमदनगर, नासिक जैसे हालात सिर्फ पश्चिमी महाराष्ट्र तक सीमित नहीं हैं पूरे राज्य के सब्जी मंडियों में आज भी कैश नहीं के बराबर दिखाई देता है. पैसा हाथ में नहीं मिलने के कारण बाजार से शुरू होने वाली मुश्किल किसान और मजदूरों के घर तक पहुंचते-पहुंचते और भी बड़ी हो जाती है. किसानों के मुताबिक पिछले एक साल से खेती पर निर्भर लोग अपना पेट काटकर जिंदगी जी रहे हैं.