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NCP की सियासत के लिए संजीवनी है मराठा आरक्षण आंदोलन!

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लेकर जारी आंदोलन बीजेपी के गले की फांस बन गई है. जबकि शरद पवार की पार्टी एनसीपी के लिए संजीवनी की तरह है. एनसीपी इस मुद्दे के जरिए अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाने की जुगत में है. इसीलिए एनसीपी मराठा आरक्षण की मांग का खुलकर समर्थन कर रही है.

शरद पवार शरद पवार
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 26 जुलाई 2018,
  • अपडेटेड 3:41 PM IST

महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी की जड़ें मजबूत क्या हुईं, कांग्रेस और एनसीपी के पैरों तले से आधार ही खिसक गया. अगले साल 2019 में होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में उठी मराठा आरक्षण की मांग से बीजेपी बैकफुट पर है. जबकि शरद पवार और उनकी पार्टी एनसीपी मराठा आरक्षण के जरिए अपनी खोई हुई जमीन को दोबारा से वापस पाने के लिए इस मुद्दे पर फ्रंटफुट पर खेल रहे हैं.

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महाराष्ट्र की सियासत में मराठा समुदाय किंगमेकर माना जाता है. राज्य में मराठों की आबादी 28 से 33 फीसदी है. राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से 20 से 22 सीटें और विधानसभा की 288 सीटों में से 80 से 85 सीटों पर मराठा वोट निर्णायक माना जाता है.

मराठा समुदाय की मांग पर 1960 में महाराष्ट्र राज्य बना. महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री रहे यशवंतराव चव्हाण ने उस वक्त कहा था कि ये राज्य मराठी लोगों का है. यहीं से शुरू होती है मराठा के नाम पर राजनीति. राज्य के गठन के बाद से अब तक 12 मराठा सीएम हुए हैं. जबकि ब्राहमण के तौर पर केवल दो सीएम शिवसेना के मनोहर जोशी और बीजेपी से देवेंद्र फडणवीस. इससे मराठों के वर्चस्व और दबदबे को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है.

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महाराष्ट्र मामलों के जानकर संजीव चंदन कहते हैं एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं. राज्य में सबसे ज्यादा मराठा समाज के लोग पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा में रहते हैं. ऐसे में निश्चित रूप से इसका राजनीतिक फायदा भी पवार को ही मिलेगा.

हालांकि, पवार ने आरक्षण के तमिलनाडु फॉर्मूले को महाराष्ट्र में लागू किए जाने की राय रखी है. पवार की राजनीतिक विरासत संभालने वाली उनकी बेटी सुप्रिया सुले ने लोकसभा में मराठा आरक्षण के मुद्दे को उठाया है. इतना ही नहीं बुधवार को एनसीपी के एक विधायक ने मराठा आरक्षण मुद्दे पर इस्तीफा दे दिया है.

दरअसल शरद पवार की राजनीति पूरी तरह से मराठों पर टिकी है. यही वजह है कि उनका आधार मराठावाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र के जिलों में है. 2014 में मोदी लहर में शरद पवार का किला पूरी तरह से धराशायी हो गया था. मराठा क्षत्रप होने के बावजूद उन्हें महज 6 सीटें मिली थीं, लेकिन उपचुनाव में एक सीट और जीतकर 7 सांसद हो गए हैं. इसके अलावा विधानसभा चुनाव में राज्य की 288 सीटों में से एनसीपी को 41 सीटें मिली थी.

बता दें कि पिछले काफी समय से मराठा समाज शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 16 फीसदी आरक्षण की मांग कर रहा है. राज्य सरकार ने हाल ही में 72 हजार पदों पर बहाली का विज्ञापन निकाला है, जिसमें मराठा क्रांति मोर्चा के नेतृत्व में मराठा समुदाय अपने लिए आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन करने के लिए सड़क पर उतरा. हिंसक होते आंदोलन के देखते हुए सीएम देवेंद्र फडणवीस ने बातचीत आश्वासन दिया तो मराठा क्रांति मोर्चा ने आंदोलन को कुछ दिनों के लिए रोक दिया.

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कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण ने मराठा आरक्षण पर चर्चा के लिए एक दिन का विधान मंडल सत्र बुलाने की मांग की है. उन्होंने कहा कि सीएम देवेंद्र फडणवीस मराठा युवाओं को बरगलाने का काम किया है. आश्वसन के बजाए उन्हें कानून बनाकर आरक्षण देना चाहिए.

बीजेपी चर्चा के लिए सत्र बुलाकर जोखिम भरा कदम नहीं उठाएगी. बीजेपी मराठा आरक्षण पर पक्ष और विपक्ष किसी पर भी बोलेगी तो उसे नुकसान उठाना पड़ेगा. पक्ष लेगी तो ओबीसी समुदाय नाराज हो सकता है और नहीं लेती है तो मराठाओं के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है.

संजीव चंदन कहते हैं कि एनसीपी की तरह शिवसेना खुलकर मराठा आरक्षण मुद्दे पर खड़ी नहीं होगी, क्योंकि उसका आधार मराठा के साथ अतिपिछड़ों और अति दलित मतों में भी है. ऐसे में वो जानबूझकर जोखिम भरा कदम नहीं उठाएगी.

दरअसल बीजेपी इस बात को बखूबी समझती है कि मराठा उसके परंपरागत वोटर नहीं हैं. ऐसे में मराठा आरक्षण की बात को स्वीकार कर भी लेते तो कोई गारंटी नहीं है कि वो उसे वोट करेंगे. क्योंकि मराठाओं की पहली पसंद एनसीपी है, उसके बाद शिवसेना और तीसरे नंबर पर कांग्रेस आती है.

बीजेपी का मूल वोट ओबीसी समुदाय है. ऐसे में फडणवीस सरकार मराठा आरक्षण की मांग को मानकर ओबीसी समुदाय को नाराज नहीं करना चाहती है. क्योंकि अगर मराठाओं को आरक्षण दिया गया तो उन्हें ओबीसी कोटे से ही देना पड़ेगा. राज्य की आबादी में ओबीसी 52 फीसदी है. ऐसे में बीजेपी की नजर मराठा से ज्यादा ओबीसी मतों पर हैं. इसी के मद्देनजर बीजेपी इस मुद्दे को चर्चा तक ही सीमित रखना चाहती है.

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