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जीतनराम मांझी: एक मुख्यमंत्री का अंत, एक मुद्दे का जन्म

द ग्रेट बिहार मांझी शो में इंटरवल हो चुका है. फ्लोर टेस्ट के ऐन पहले मांझी ने राजभवन पहुंचकर महामहिम को इस्तीफा सौंपा तो धीरे से ही सही जोर का झटका तो दिया ही.

JitanRam Manjhi, Nitish Kumar JitanRam Manjhi, Nitish Kumar
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 20 फरवरी 2015,
  • अपडेटेड 8:08 PM IST

द ग्रेट बिहार मांझी शो में इंटरवल हो चुका है. फ्लोर टेस्ट के ऐन पहले मांझी ने राजभवन पहुंचकर महामहिम को इस्तीफा सौंपा तो धीरे से ही सही जोर का झटका तो दिया ही. लेकिन पिक्चर अभी वाकई बाकी है. इस पिक्चर की शूटिंग भले ही नवंबर में हो पर स्क्रिप्ट तकरीबन फाइनल है. पूरी स्क्रिप्ट भले न सही, स्क्रिप्ट का ड्राफ्ट तो पूरी तरह तैयार है.

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विधानसभा चुनाव तक चाहे जो भी सियासी समीकरण बनें-बिगड़े, इतना तो तय है कि उनमें मांझी फैक्टर सबसे ऊपर होगा. चुनावों में मांझी क्या क्या गुल खिला सकते हैं, आइए थोड़ा समझने की कोशिश करते हैं.

बीजेपी के लिए मांझी के होने का मतलब
नीतीश के दोबारा कुर्सी हासिल करने के रास्ते में मांझी ही वो मोहरा थे जिसका बीजेपी इस्तेमाल कर सकती थी. बीजेपी ने इसके लिए कोई कसर बाकी भी नहीं रखा. फ्लोर टेस्ट में मांझी को समर्थन देने के लिए बीजेपी के तैयार होने की वजह भी नीतीश को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाना ही रहा. राजनीति के अखाड़े में सबसे बलवान वही होता है जिसके पास संख्या बल हो. सदन के भीतर विधायकों का सपोर्ट और बाहर जन समर्थन. फिलहाल मांझी के पास दोनों में से कोई भी नहीं है. पिछले लोकसभा चुनाव में भी मांझी को मुंहकी ही खानी पड़ी थी. आने वाले चुनावों में अगर मांझी, बीजेपी का साथ देते हैं फिर तो कोई बात ही नहीं. अगर मांझी बीजेपी से दूरी बनाए रहते हैं तो वो प्रत्यक्ष तौर पर पासवान को और परोक्ष रूप से बीजेपी को भी नुकसान ही पहुंचाएंगे. बीजेपी को भी पता है उसे अब फूंक-फूंक कर कदम रखना ही होगा.

नीतीश के लिए मांझी के होने का मतलब
नीतीश को मांझी से अब कोई प्रॉब्लम नहीं है. मांझी को किनारे लगाने के लिए उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना जरूर पड़ा लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए नीतीश इसे भुला सकते हैं. अगर उन्हें लगता है कि मांझी का दूर जाना ज्यादा नुकसानदेह हो सकता है तो वो येन केन प्रकारेण चाहेंगे कि मांझी जेडीयू में बने रहें. हां, किसी भी मामले में नीतीश को अब उन पर भरोसा नहीं रहेगा. वैसे मांझी पर ही क्यों इस एपिसोड के बाद नीतीश हर राजनीतिक छाछ को बगैर फूंके तो नहीं ही पीएंगे.

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खुद के लिए मांझी के होने का मतलब
चुनावों में पहले तो मांझी खुद को शहीद साबित करने की कोशिश करेंगे. लोगों को समझाने की कोशिश करेंगे कि उनके साथ जो भी हुआ वो महज दलित होने के चलते हुआ. बात में दम भी है. दलित होने के कारण ही नीतीश ने उस वक्त मांझी को मुख्यमंत्री बनाया. बाद में दलित होने के नाते ही उन्हें कुर्सी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया.

बिहार में कुल 38 सुरक्षित सीटें हैं. मांझी चाहें तो इन्हीं पर फोकस करें और इनमें से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर बार्गेन लायक स्थिति बना लें. पिछले चुनाव में इनमें से 19 जेडीयू को, 18 बीजेपी को और एक आरजेडी को मिली थीं.

दलितों को एकजुट करने के लिए मांझी अपने हथकंडे भी अपनाते रहते हैं. पटना के एक हॉस्टल में मांझी के भाषण पर जरा गौर कीजिए, 'दलित छात्रों को जात-पात से उपर उठकर अंतरजातीय विवाह करना चाहिए. अगर हमें एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनना है तब हमें अपनी जनसंख्या को 16 से बढ़ाकर 22 फीसदी करनी होगी.'

मांझी के पास खुद को दलितों का सबसे बड़ा नेता साबित करने की चुनौती होगी. नौ महीने के शासन के दौरान मांझी ने नौकरशाहों और विधायकों के बीच दलितों की आवाज बन कर उभरने की पूरी कोशिश की. अपनी कैबिनेट से उन्होंने पासवान बिरादरी को महादलित में शामिल कर एक ही साथ नीतीश कुमार और लोक जनशक्ति नेता राम विलास पासवान दोनों पर निशाना साधा. अब मांझी के फैसले किसी भी वजह से हकीकत भले ही न बन पाएं लेकिन दलित हितों के लिए काम करने का उनका दावा पुख्ता तो होता ही है.

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विधानसभा चुनाव तक मांझी चाहे गिले शिकवे भुलाकर नीतीश के साथ ही बने रहें या बीजेपी का दामन थाम लें या फिर एकला चलो रे का मंत्र अपना लें - मांझी मेजर फैक्टर बनेंगे.

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