
दलित चिंतक और बहुजन पार्टी की नींव रखने वाले कांशीराम का आज जन्मदिन है और कल ही उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनाव के सकारात्मक नतीजे आए हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पाई बसपा की दुर्दशा को देखकर उस वक्त कांशीराम की रूह दुख से भर गई होगी.
लेकिन उपचुनाव के नतीजों ने दलितों के भीतर राजनीतिक चेतना जगाने और इतने बड़े स्तर पर इस समुदाय के वोटों का एकीकरण करने वाले कांशीराम के जन्मदिन पर उन्हें बड़ा तोहफा दे दिया है. कांशीराम के बारे में कहा जाता है कि वे जिस भी नए शहर में जाते वहां सबसे पहले दलितों की बस्ती का भ्रमण करते थे.
वे दलितों से मिलते उनके दुख-सुख सुनते और फिर उनसे अपील करते कि आप लोग एकजुट होकर वोट डालिए. आज कांशीराम होते तो फिर एक बार वे दलितों की बस्तियों के चक्कर लगाते और कहते एक बार फिर 'एकजुट' होने का समय आ गया है. वे अपनी पूरी शक्ति के साथ दलित समुदाय को एक करने में लग जाते.
बसपा की लगातार हार के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने तो यह तक कहना शुरू कर दिया था कि अब बसपा का खेल खत्म. मायावती का मजाक यह कहकर उड़ाया गया कि लोकसभा चुनाव में शून्य मे सिमट गई पार्टी को दूसरा झटका दिया नोटबंदी ने.पुरानी 'कैश कमाई' मिट्टी में मिलने और आगे का रास्ता बंद होने से मायावती को खासा सदमा लगा है. इसलिए उनकी मानसिक स्थित थोड़ी डगमगा गई है.' दूसरी तरफ गुजरात में जिस तरह से दलित युवा नेता जिग्नेश मेवाणी का उभार हुआ उससे भी लगा कि अब ये समुदाय अपने इस युवा नेता की तरफ देख रही है. यानी मायावती का जादू फीका पड़ गया है.
लेकिन जिस तरह से उत्तर प्रदेश की दोनों सीटों पर बसपा के समर्थन से सपा का सिक्का चला उससे तो यही लगता है...अभी बसपा में जान बाकी है. जेएनयू में सोशियोलॉजी के प्रोफेसर गंगा सहाय मीणा के अनुसार 'ये जीत बसपा की लगातार हार से निराश हो चुके कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार किया है.और इस जीत ने सामाजिक न्याय की समर्थक पार्टियों के सामने एक नया मॉडल भी रख दिया है. हालांकि वे यह भी कहते हैं कि यह मॉडल कितना टिकाऊ होगा ये तो समय बताएगा लेकिन फिलवक्त इस मॉडल ने गैर यादव और गैर जाटव समुदाय के सामने एक विकल्प रख दिया है.'
मीणा कहते हैं इन उपचुनावों ने कार्यकर्ताओं के बीच कितनी उम्मीद जगाई है इसका उदाहरण इस श्लोगन से लगाया जा सकता है. 'प्रदेश में भतीजा, देश में बुआ.' हालांकि ये सपना अभी दूर की कौड़ी है लेकिन ये कर्याकर्ताओं के बीच लौट आए उत्साह को जरूर दर्शाता है. वे कहते हैं फिलहाल बिना बेहतरीन सोशल इंजीनियरिंग के भाजपा को हराना संभव नहीं है. ऐसे में कहीं न कहीं इस गठजोड़ ने भाजपा के विजय रथ को रोकने की उम्मीद भी पक्की हुई है.
इस जीत से कहीं न कहीं यह यह कहा जा सकता है कि मायावती का फीका पड़ता जादू फिर चल गया. बसपा को डूबता जहाज मानकर सांसद स्वामी प्रसाद मौर्या, वरिष्ठ नेता आर.के.चौधरी, ब्रजेश पाठक समेत अब तक करीब दर्जन नेता और सैकड़ों कार्यकर्ता पार्टी का दामन छोड़ चुके हैं. ऐसे में इन चुनावों में बसपा के 'उम्मीदवार' भले ही नहीं थे लेकिन 'उम्मीद' पूरी तरह शामिल थी.
'फील्ड ट्रायल' में पास हुई बसपा
उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में बसपा के समर्थन से बने नए राजनीतिक समीकरण का 'फील्ड ट्रायल' हो चुका है. या यूं कहें 'पायलट स्टडी' हो गई है. नतीजे पक्ष में रहे. तो क्या अब आगामी यूपी चुनाव में बुआ और भतीजे के बीच गठबंधन का रास्ता साफ हो गया है? दरअसल शुरू में मायावती गठबंधन के पक्ष में नहीं थीं. लेकिन उन्हें ये समझाकर राजी किया गया कि ये
'उपचुनाव' हैं. इसलिए इससे बसपा को किसी भी तरह का नुक्सान होने की उम्मीद बिल्कुल भी नहीं है. वे 'विन-विन पोजिशन' में ही रहेंगी. मायावती ने 'हां' कर दी. उन्हें यह भी भरोसा दिलाया गया कि अगर हार हुई तो इसका असर पार्टी की छवि पर नहीं पड़ेगा. वे यह कहकर पल्ला झाड़ सकती हैं कि उपचुनाव में समर्थन का फैसला स्थानीय नेताओं था.
हालांकि नतीजे आने के बाद अब इस तरह के किसी बयान की जरूरत नहीं है. जैसे भी हो सपा को बसपा का समर्थन मिला. और ये सभी जानते हैं बसपा में मायावती की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं डोलता. इसलिए बसपा सुप्रीमो ने कहीं न कहीं कुछ सोचविचारकर समर्थन देने का फैसला लिया.
इसलिए अगर ये प्रयोग सफल नहीं होता तो लोगों को इस बात के लिए तैयार करना मुश्किल होता कि यह फैसला बसपा सुप्रीमो का नहीं था बल्कि स्थानीय नेताओं का था. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि गठबंधन के खिलाफ रहने वाली मायावती ने सपा से हाथ मिलाना कुबूल किया. दरअसल 2017 के चुनाव में 19 सीटों में सिमट गई बसपा की मुखिया मायावती को अंदाजा हो चला था कि अगले प्रदेश विधानसभा चुनावों की राह आसान नहीं है.
कभी गठबंधन पर था सख्त एतराज
बात 23 जुलाई 2017 की है जब मायावती ने नई दिल्ली में रकाबगंज रोड स्थित बसपा के केंद्रीय कार्यालय में राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर के कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ बैठक की. बसपा सुप्रीमों ने आदेश दिया कि दो हफ्ते के भीतर इस बात का पता लगाएं कि गठबंधन पर जनता की राय क्या है?
10 अगस्त 2017 में लखनऊ स्थित बसपा के प्रदेश कार्यालय में फिर बैठक हुई. इसमें करीब-करीब एकमत से पार्टी कार्यकर्ताओं ने कहा कि गठबंधन ठीक नहीं रहेगा.मायावती ने पिछले साल पटना में गठबंधन को लेकर होने वाली राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव की महारैली पर भी मौन साध लिया.
दरअसल मायावती नहीं चाहती थीं कि उनके कोर वोटर तक यह संदेश पहुंचे कि उनकी पार्टी कमजोर पड़ गई है. या फिर किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार है.मई 2016 में भी बसपा के पार्टी कार्यालय से जारी विज्ञप्ति में साफ कहा गया था कि आगामी चुनाव में बसपा किसी के साथ गठबंधन नहीं करेगी. 2017 के चुनाव में मायावती अपनी बात पर कायम रहीं.
बसपा को यूपी चुनाव में मुंह की खानी पड़ी. जबकि सपा और कांग्रेस के गठबंधन को भी भाजपा ने भारी शिकस्त दी. यूपी के 'दो लड़कों' यानी राहुल-अखिलेश की जोड़ी कोई कमाल नहीं कर पाई थी. लेकिन इन
उपचुनावों में बुआ-बबुआ की जोड़ी ने भाजपा की 27 साल से गोरखपुर में काबिज सत्ता को हिला दिया वहीं 2014 में फूलपुर में खिले कमल को सुखा दिया.
तो क्या आगले उत्तर प्रदेश चुनाव में सपा-बसपा साथ आएंगे? और इससे क्या अब ये मान लेना चाहिए कि अगले उत्तर प्रदेश चुनाव में योगी सरकार को बुआ-भतीजे की जोड़ी कड़ी चुनौती देगी?
लेकिन इस जोड़ी में सबसे बड़ा अड़ंगा तब लगने की उम्मीद है जब अखिलेश यादव इस जोड़ी में कांग्रेस को भी जोड़ने का प्रयास करेंगे क्योंकि मई 2016 में मायावती ने यह भी कहा था कि दो विरोधी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा की विचारधारा बसपा से बिल्कुल अलग है.
ये दोनों ही पार्टियां बड़े-बड़े पूंजीपतियों को संरक्षण देती हैं जबकि बसपा सर्वसमाज के गरीबों और जातिवादी व्यवस्था से पीड़ित जनता की पार्टी है. ऐसे में अगर अखिलेश यादव कांग्रेस को भी जोड़ने की कोशिश करेंगे तो मायावती शायद ही इस गठजोड़ को आगे बढ़ाएं.
आगे क्या होगा ये तो भविष्य बताएगा लेकिन बसपा समर्थित सपा की इस जीत ने आज कांशीराम के जन्मदिन को और भी खास बना दिया है.
उम्मीद की जा रही है कि अब प्रदेश के अगले चुनाव में यूपी के 'दो लड़के' नहीं बल्कि 'बुआ-भतीजे' की जोड़ी मशहूर होगी!
बिल्कुल वैसे ही जैसे नब्बे के दशक में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव की राजनैतिक जोड़ी ने खूब चर्चा बटोरी थी.
उस समय एक नारा बेहद लोकप्रिय हुआ था, 'मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्रीराम.' 1993 में बसपा के संस्थापक कांशीराम ने मुलायम से हाथ मिलाया तो भाजपा का मंदिर एजेंडा हवा हो गया. अब जब एक बार फिर दोनों पार्टियों की दूसरी पीढ़ी ने हाथ मिलाया तो नब्बे के दशक में आए नतीजों की उम्मीद बसपा समर्थकों के जगने लगी है.
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