
पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट राजीव कमल बिट्टू की बिटिया ने बिहार के गोपालगंज के उनके पैतृक गांव में जब पड़ोसियों को गंदा कहकर गोद में जाने से इनकार कर दिया, तो उनको बड़ा झटका लगा था. रांची में अपने 150 वर्गफुट के दफ्तर से हो रही ठीक-ठाक आमदनी से राजीव अच्छी जिंदगी बिता सकते थे लेकिन इस घटना के बाद उन्होंने गर्मी, पसीने और कड़ी मेहनत का रास्ता अख्तियार कर लिया. सीए राजीव अब एक किसान में बदल गए.
देश की खेती को आधुनिक नजरिया देने के लिए युवाओं के जुड़ाव की दरकार थी. देश के कई हिस्सों में नौजवान ऐसा कर भी रहे हैं. इन जिगरवालों में कुछ राजीव की तरह अपने जमे-जमाए पेशे से खेती में आए, तो कुछ ने खेती से जुड़े सेक्टर को कारोबार में बदल लिया. लेकिन फूलों की खेती हो या मछलीपालन, डेयरी हो या सब्जी, हर क्षेत्र में युवाओं ने अपनी छाप छोड़ी है.
रांची के राजीव कमल बिट्टू खेती के काम के लिहाज से नौसिखुआ ही थे. सो, उन्होंने कई जगहों से खेती के बारे में जानकारी हासिल करनी शुरू की-इंटरनेट, बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और स्थानीय किसानों से बातचीत की.
झारखंड में जमीन हासिल करना उनके लिए बेहद मुश्किल काम था, क्योंकि छोटानागपुर टेनेंसी ऐक्ट उनको जमीन खरीदने की इजाजत नहीं देता था. तब उन्होंने रांची के पास ही कुच्चू गांव के एक जमीन मालिक को खेत लीज पर देने को राजी कर लिया. बहरहाल, झाड़ियों वाली उस जमीन को खेती लायक बनाने में राजीव को करीब 2.5 लाख रुपए का निवेश करना पड़ा.
2013 के जाड़ों की शुरुआत से पहले राजीव ने इस खेत में ड्रिप सिंचाई वगैरह की व्यवस्था की और तरबूज और खरबूजे की फसल बो दी. वे कहते हैं, ''मैंने खेती को आधुनिक बनाने के लिए बस कुछ बुनियादी बातों का ख्याल रखा. लागत कम रखने की कोशिश की और ऐसी फसल बोई जिसमें ज्यादा मजदूर नहीं लगते." राजीव हंसते हुए बताते हैं कि लागत को लेकर उनका सीए वाला नजरिया बेहद काम आया.
उन्होंने कभी भी ऐसी फसल नहीं बोई, जिसका वजन हल्का हो. मसलन, मटर. लेकिन वह हर बार तरबूज बोने से पहले मटर जरूर लगाते हैं. इससे मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा स्थिर हो जाती है और उनकी फसल बेहतर आती है. वैज्ञानिक नजरिए से खेती करते हुए राजीव ने अपने खेतों में तरबूज की बेलों में अधिक फल आने पर कुछ फलों को शुरू में तोड़कर हटा दिया. उनका कहना है, ज्यादा फल आने से पूरी फसल की गुणवत्ता पर असर पड़ता. राजीव का पहली फसल से शुद्ध मुनाफा 7 लाख रु. के करीब था.
अपनी कामयाबी से प्रेरित होकर राजीव ने रांची के ओरमांझी ब्लॉक में आनंदी गांव में 13 एकड़ जमीन लीज पर ले ली है. वे कहते हैं, ''मेरी खेती से खेत मालिकों को फायदा होता है क्योंकि एक तो मैं उन्हें प्रति एकड़ 5 से लेकर 10,000 रु. सालाना किराया देता हूं और उन्हें अपने ही खेत पर काम करने का मेहनताना भी.
इससे उनकी आमदनी पहले से अधिक है." अब राजीव अपने खेतों में तरबूज और खरबूजे के अलावा खीरे, स्वीट कॉर्न, और चेरी टोमैटो की फसल भी लगाते हैं. अधिक नफे के लिए उन्होंने अपनी सारी फसल होलसेलर को देने की बजाए उसका तकरीबन आधा हिस्सा अपने लोगों के जरिए खुदरा बेचना शुरू किया. इससे भी शुद्ध मुनाफा बढ़ गया.
वे नीम की पत्तियों और करंजा की पत्तियों का इस्तेमाल कीटनाशक के तौर पर करते हैं. राजीव आगे जोड़ते हैं, ''मैं तरबूज के बीज सीधे खेतों में नहीं बोता. बल्कि इसके बिचड़े तैयार करता हूं. इन बिचड़ों की रोपाई में एक पखवाड़े का अंतर रखने से मेरी फसल आने में भी दो हफ्ते का अंतर होता है. इससे मार्केटिंग में फायदा होता है."
अपनी कारोबारी बुद्धि से राजीव ने खेती को उम्दा कारोबार में बदल दिया है.
झंडे गाड़े कृषक बनकर
राजीव की ही तरह हरियाणा के ऐसे कुछ युवाओं ने ऐसी राह पकड़ ली कि आज वे युवाओं के प्रेरणास्रोत बन गए हैं. इन युवाओं ने आला दर्जे की पढ़ाई कर खेती-किसानी अपनाई और लाखों-करोड़ों का साम्राज्य खड़ा कर लिया है.
कंप्यूटर इंजीनियरिंग करने के बाद विप्रो जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर चुके सुखविंदर सर्राफ और ऑस्ट्रेलिया में बड़ी कंपनी से लंबे समय तक जुड़ी रहीं सीमा गुलाटी की कंपनी आज अपने-आप में ब्रान्ड बन गई है.
राष्ट्रीय राजमार्ग-1 से लगते हरियाणा के करनाल जिले की कुटाली गांव की सीमा गुलाटी मशरूम और ऑर्गेनिक सब्जियों की उपज के लिए जानी जाती हैं. ''एल्ले मशरूम" नाम से इनके यहां उपजाई कई किस्में दिल्ली-एनसीआर के बाजारों में बिकती हैं.
सीमा ने शुरुआत में गुलाब की नर्सरी लगाई. बाद में इरादा बदलकर 50 हेक्टेयर में मशरूम और सेमी-आर्गेनिक सब्जियों का उत्पादन शुरू कर दिया.
सीमा गुलाटी आज प्रति दिन 500 किलो विभिन्न प्रकार के मशरूम और तकरीबन एक टन सेमी आर्गेनिक सब्जियां बाजार में सप्लाई कर रही हैं.
उन्होंने बीस-पचीस लोगों को नौकरी भी दी हुई है. सीमा कहती हैं, ''काम इतना बढ़ गया कि संभालना मुश्किल है."
इसके बरअक्स, कुंडली के सुखविंदर सर्राफ डेयरी के कारोबार को न केवल विस्तार देने में लगे हैं, नित नए प्रयोग कर डेयरी के दूध को ज्यादा पौष्टिक बनाने में लगे हैं.
इसके लिए उन्होंने अपनी डेयरी में ही एक माइक्रोलैब बना ली है. कंप्यूटर इंजीनियर सुखविंदर बताते हैं कि दुधारू पशुओं के दूध में प्रोटीन की मात्रा 3.1 फीसदी होती है, जिसे प्रयोग की बदौलत बढ़ाकर उन्होंने 3.8 कर दिया है.
इसके साथ दूध की बैक्टेरियल कॉलोनी की संख्या घटाने पर भी काम चल रहा है. उनके दावों पर यकीन करें तो दूध में पाए जाने वाले 50,000 बैक्टिरिया की संख्या घटाकर 30,000 करने में उनकी डेयरी सफल रही है.
इनकी डेयरी रोजाना दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में तीन से चार हजार घरों में पांच हजार लीटर दूध सप्लाई करती है. डेयरी चलाने में इनके दो दोस्त पंकज नवाणी और दीपक राज भी पार्टनर हैं. न्यूजीलैंड की एक कंपनी इनके प्रोजेक्ट पर पैसा लगाने को तैयार हो गई है.
सुखविंदर बताते हैं कि छह वर्ष पहले उन्होंने 50 बछियों के लालन-पालन से डेयरी शुरू की थी. अब उनके पास छह सौ दुधारू पशु हैं. सुखविंदर कहते हैं, ''पशुपालन हो या कृषि कार्य जब तक आप उससे खुद नहीं जुड़ेंगे कामयाबी असंभव है."
देशी-विदेशी विशेषज्ञों की सहायता से सीए कर चुकी बहादुरगढ़ जिले के ढांटा खेड़ा गांव की वामिका बोहती ने भी मात्र दो वर्ष में फूलों के अपने कारोबार को बुलंदी पर पहुंचा दिया है. वे लगन, मेहनत और नित नए प्रयोगों से आज ढाटा खेड़ी में 19 एकड़ में फूलों की खेती कर रही है्य 14 एकड़ नेट और पोली हाउस और तीन एकड़ में खुले में फूलों की खेती हो रही है.
इंजीनियरिंग कर चुके सुरेश कुमार 300 बक्सों से शहद उत्पादन कर रहे हैं. इनकी सालाना आमदनी आठ से दस लाख रुपए है. गुरमेल सिंह पिछले चार वर्षों से बेमौसमी सब्जियां टमाटर, शिमला मिर्च, खीरे वगैरह के उत्पादन में लगे हैं.
उन्होंने 2012 में बैंक से लोन लेकर सब्जी उत्पादन शुरू किया था. आज इनकी सालाना आमदनी लाखों में है. हरियाणा के कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ कहते हैं, ''इन किसानों ने कई मायने में सूबे की प्रगतिशील खेती की तस्वीर राष्ट्र स्तर पर पेश की है. इनकी मदद से दूसरे युवाओं को भी प्रेरित किया जा रहा है कि वे नौकरी के पीछे भागने की बजाए उन्नत खेत अपनाकर रोजगार देने वाला बनें."
ऐलोविरा का राजा
दिल्ली में एक एग्रीकल्चर एक्सपो से लौटे युवा इंजीनियर किसान हरीश धनदेव जैसलमेर के अपने गांव धायसर लौटे तो अपनी नौकरी छोड़कर खेती करने का मन बना चुके थे. उन्होंने ऐलोविरा की खेती शुरू की. हरीश ने शुरुआत में करीब एलोविरा के 80,000 पौधे लगाए थे जो अब बढ़कर 7 लाख हो चुके हैं.
हरीश बाबा रामदेव के पतंजलि फूड प्रोडक्ट लि. को हर महीने 150 टन से अधिक प्रोसेस की हुई एलोविरा की पत्तियों का पल्प धायसर से भेजते हैं. अपने रेतीले खेतों में हरीश बार्बी डेन्सिस नामक ऐलोविरा की प्रजाति की खेती करते हैं. इसकी उम्दा क्वालिटी की नेशनल प्रोग्राम फॉर ऑर्गेनिक प्रोडक्शन (एनपीओपी) ने तारीफ की है.
अब हरीश के पास ब्राजील, अमेरिका और हांगकांग से मांग आने लगी है. वे कहते हैं, ''पतंजलि के बाद भी प्रति दिन 5,000 लीटर जूस, 2 से 3 टन जेल, करीब 5 टन पल्प, फ्लॉवर पाउडर एलो स्प्रेट्राईड पावर जैसे अन्य कई प्रकार की एलोएविरा उत्पादन तैयार कर सकते हैं."
बाराबंकी में खेती से बरसी दौलत
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिला मुख्यालय से तकरीबन आठ किलोमीटर दूर लखनऊ-फैजाबाद हाइवे पर मौजूद कस्बे दादरा के दौलतपुर गांव में रहने वाले किसान राम सरन वर्मा ने खेती में नई तकनीकों का प्रयोग बेहद कुशलता से किया है.
घर की माली हालत बेहद खराब होने के कारण रामसरन कक्षा आठ से आगे की पढ़ाई नहीं कर सके और किसान पिता का हाथ बंटाने खेतों में कूद पड़े. महज चार एकड़ खेत और गेहूं-चावल की परंपरागत खेती से किसी तरह परिवार का पेट ही भर पाता था.
रामसरन ने 1991 में पहली बार पिता के विरोध को दरकिनार कर एक एकड़ क्षेत्रफल में केले की खेती शुरू की. एक खास तरीके से ''टिश्यू कल्चर" तकनीक से केले की खेती की तो उत्पादन अचानक 30 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ गया.
उन्होंने गांव के कुछ और किसानों को अपने साथ जोड़कर बड़े क्षेत्रफल में केले की खेती शुरू की. रामसरन ने आसपास के गांव के किसानों के खेतों को साथ जोड़कर ''स्टकिंग" विधि से टमाटर, आलू बुआई और मेंथी का तेल निकालने की कम खर्चीली और प्रभावशाली तकनीकों को इजाद कर पैदावार 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा दी.
रामसरन के पास अभी भी केवल 12 एकड़ ही खेत हैं लेकिन वे 300 एकड़ खेतों में नए ढंग की खेती से सोना उगा रहे हैं.
सेब से रोकेंगे पलायन
देश में पपीते की खेती में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाले ''पपाया मैन" के नाम से मशहूर सुधीर चड्ढा अब सेब और अखरोट की उन्नत पौध तैयार करके पहाड़ों में लाभदायक खेती का एक नया मॉडल रख रहे हैं. चड्ढा की खोजी सेब की नस्ल गमलों में भी उगाई जा सकती है. उत्तराखंड में अब तक इन प्रजाति के सेब के बाग सात जगहों पर मुख्यमंत्री विशेष सेब योजना के तहत लगाए गए हैं जिनमें से तीन बाग देहरादून, एक उत्तरकाशी में, एक नैनीताल में, एक रानीखेत में लगाया गया है.
जाहिर है, इन लोगों की मेहनत, लगन और संकल्प फलदायी साबित हुआ है. रांची के राजीव से लेकर हरियाणा के युवाओं तक, आधुनिक तकनीक को खेती से जोड़कर नौजवानों ने साबित किया है कि खेती को दवाब से उबारने के लिए नए जमाने के साथ कदमताल करना होगा. अपनी अक्ल और व्यावसायिक बुद्धि के इस्तेमाल से कईयों के प्रेरणास्रोत बने युवा यही कर रहे हैं.
—साथ में, आशीष मिश्र, मलिक असगर हाशमी, अखिलेश पांडे और विमल भाटिया
***