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मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा- हमारे नियम कुरान से, SC के अधि‍कार क्षेत्र से बाहर

लॉ बोर्ड का कहना है कि समुदाय के पर्सनल लॉ कुरान पर आधारित हैं, ऐसे में यह सर्वोच्च अदालत के क्षेत्राधिकार में नहीं है कि वह उसकी समीक्षा करे.

कोर्ट ने तीन बार तलाक के नियम पर उठाए थे सवाल कोर्ट ने तीन बार तलाक के नियम पर उठाए थे सवाल
स्‍वपनल सोनल
  • नई दिल्ली,
  • 24 मार्च 2016,
  • अपडेटेड 6:33 PM IST

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने देश की सर्वोच्च अदालत के निर्देश को न सिर्फ मानने से इनकार कर दिया है, बल्कि‍ उसे उसके अधि‍कार क्षेत्र से बाहर बताया है. सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ में तीन बार तलाक कहकर रिश्ते खत्म करने की प्रथा की कानूनी वैधता जांच करने का निर्देश दिया था. जबकि एआईएमपीएलबी ने कहा है कि यह कोर्ट के क्षेत्राधि‍कार में नहीं है.

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लॉ बोर्ड का कहना है कि समुदाय के पर्सनल लॉ कुरान पर आधारित हैं, ऐसे में यह सर्वोच्च अदालत के क्षेत्राधिकार में नहीं है कि वह उसकी समीक्षा करे. एआईएमपीएलबी ने कहा कि यह कोई संसद से पास किया हुआ कानून नहीं है. अंग्रेजी अखबार 'टाइम्स ऑफ इंडिया' की खबर के मुताबिक, बोर्ड ने एक यूनिफॉर्म सिविल कोड की उपयोगिता को भी चुनौती देते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय अखंडता और एकता की कोई गारंटी नहीं है. इनका तर्क है कि एक साझी आस्था ईसाई देशों को दो विश्व युद्धों से अलग रखने में नाकाम रही. एआईएमपीएलबी ने कहा कि इसी तरह हिन्दू कोड बिल जातीय भेदभाव को नहीं मिटा सका.

कानून और धर्म से निर्देशित मानदंडों के बीच हो स्पष्टता
ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने वकील एजाज मकबूल के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में बताया है कि विधायिका द्वारा पारित कानून और धर्म से निर्देशित सामाजिक मानदंडों के बीच एक स्पष्ट लकीर होनी चाहिए. एजाज ने कहा, 'मोहम्मडन लॉ की स्थापना पवित्र कुरान और इस्लाम के पैगंबर की हदीस से की गई है और इसे संविधान के आर्टिकल 13 के मुताबिक अभिव्यक्ति के दायरे में लाकर लागू नहीं किया जा सकता. मुसलमानों के पर्सनल लॉ विधायिका द्वारा पास नहीं किए गए हैं.'

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कोर्ट के कई फैसलों का भी हवाला
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए शपथपत्र में ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है, 'मुस्लिम पर्सनल लॉ एक सांस्कृतिक मामला है जिसे इस्लाम मजहब से अलग नहीं किया जा सकता. इसलिए इसे आर्टिकल 25 और 26 के तहत अंतःकरण की स्वतंत्रता के मुद्दे को संविधान के आर्टिकल 29 के साथ पढ़ा जाना चाहिए.' इस शपथपत्र में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का भी हवाला दिया गया है, जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को लेकर चुनौती नहीं दी सकती.

'...तो यह जूडिशल कानून होगा'
सुप्रीम कोर्ट ने खुद से ही मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की जांच करने का फैसला किया था. इसमें पाया गया कि मुस्लिम पुरुषों द्वारा एकतरफा तलाक दिए जाने के बाद ये महिलाएं बिल्कुल असहाय हो जाती हैं. 43 साल पुरानी इस संस्था का कहना है कि समय-समय पर समाज के एक तबके से यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर शोर मचाया जाता है. एआईएमपीएलबी ने कहा, 'यदि मुस्लिम महिलाओं के लिए सुप्रीम कोर्ट स्पेशल नियम बनाता है तो यह अपने आप में जूडिशल कानून होगा.'

'क्या यूनिफॉर्म सिविल कोड जरूरी है?'
एआईएमपीएलबी ने पूछा है, 'क्या यूनिफॉर्म सिविल कोड राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए जरूरी है? यदि जरूरी है तो ईसाई देशों की आर्मी के बीच दो विश्व युद्ध नहीं होने चाहिए थे.' यूनिफॉर्म सिविल कोड के विचार को काउंटर करते हुए बोर्ड ने तर्क दिया कि 1956 में हिन्दू कोड बिल लाया गया था, लेकिन इससे हिन्दुओं में विभिन्न जातियों को बीच दीवार खत्म नहीं हुई. यह विचार एक लिहाज से नाकाम हो गया. बोर्ड ने पूछा है, 'क्या हिन्दुओं में जाति खत्म हो गई? क्या यहां छुआछूत नहीं है? क्या दलितों के साथ यहां भेदभाव बंद हो गया?'

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