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छत्तीसगढ़ में फसल बीमा योजना से छले गए किसान अब बीमा कंपनियों की घेराबंदी में जुटे हैं. किसानों की मांग है कि अब उन्हें और उनके खेत खलिहानों को व्यक्तिगत रूप से फसल नुकसान का मानक बनाया जाए न कि गांव या ग्राम पंचायत को.
दरअसल फसल बीमा करने वाली कंपनियां ग्राम पंचायत या गांव को यूनिट मानकर फसलों के नुकसान का निर्धारण करती हैं. कंपनियां गांव या ग्राम पंचायतों में शामिल एक तिहाई से ज्यादा किसानों की फसल नष्ट होने पर उन्हें फसल बीमा मुहैया कराती हैं, और तो और किसानों को फसल नुकसान का मुआवजा बतौर बीमा एक, दो, पांच और दस रुपये ही मिलता है. लिहाजा फसल बीमा का नए सिरे से आकलन करने की मांग को लेकर किसान सड़कों पर हैं.
छत्तीसगढ़ में एक बार फिर फसल बीमा योजना किसानों के निशाने पर हैं. महासमुंद में बड़ी तादाद में किसानों ने कलेक्टर दफ्तर में प्रदर्शन किया. सिर्फ महासमुंद ही नहीं राज्य के तमाम गांव से लेकर शहरों और जिला मुख्यालयों में किसान फसल बीमा योजना की पेचीदगियों के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं. उनके मुताबिक फसल बीमा योजना से असल लाभ उन्हें नहीं बल्कि बीमा कंपिनयों को हो रहा है.
किसानों के मुताबिक उनसे बगैर पूछे उनके खाते से प्रीमियम की रकम बीमा कंपिनयों के खाते में ट्रांसफर हो जाती है, लेकिन वक्त पड़ने पर बीमा कंपनियां अपने वादे से मुकर जाती हैं, उन्हें नुकसान का पर्याप्त और वास्तविक मुआवजा मिलने के बजाय मात्र एक, दो और पांच रुपये थमा दिए जाते हैं.
किसान नेता पारस सांखला के मुताबिक ग्राम पंचायतों को यूनिट मान लेने से इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है. उनका आरोप है कि निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियों की एकाधिकार के कारण फसल बीमा योजना अपने मार्ग से भटक गयी है. उधर इस मामले को लेकर सरकार का अपना तर्क है. राज्य के कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल की दलील है कि किसानों का जितना नुकसान होगा उसकी भरपाई का प्रावधान फसल बीमा योजना में है, लेकिन किसानों के बीच फैले भ्रम के कारण वे इस योजना को समझने में भूल कर रहे हैं. उनके मुताबिक किसानों के नुकसान की पर्याप्त भरपाई हो रही है.