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Modi@4: क्या वाकई मोदी ने मनरेगा को 'गाजे-बाजे' के साथ आगे बढ़ाया?

दिसंबर 2017 में अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के राजेंद्र नारायणन और दो स्वतंत्र शोधकर्ताओं के शोध में सामने आया था कि मनरेगा का 80 फीसदी बजट चार महीनों में खप जाता है और बाकी महीनों के लिए 20 फीसदी बजट ही बचता है.

मनरेगा की हालत सुधरी या बिगड़ी मनरेगा की हालत सुधरी या बिगड़ी
भारत सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 26 मई 2018,
  • अपडेटेड 8:20 AM IST

देश की बड़ी आबादी आज भी गांवों में रहती है और ग्रामीण इलाकों में 'महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना' (मनरेगा) युवाओं को रोजगार मुहैया कराने की अहम योजना है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मनरेगा को लेकर शुरुआती बयान काफी सुर्खियों में रहा था. पीएम मोदी ने फरवरी 2015 में संसद में मनरेगा पर कांग्रेस को आढ़े हाथों लिया था. उन्होंने कहा था, 'मेरी राजनीतिक सूझबूझ कहती है कि मनरेगा बंद मत करो. मैं ऐसी गलती नहीं कर सकता हूं, क्योंकि मनरेगा आपकी (कांग्रेस की) विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है. मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा.'

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हालांकि, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आम बजट पेश करने के तुरंत बाद मार्च 2015 में कहा था, 'सरकार मनरेगा के जरिए रोजगार उपलब्ध कराने को लेकर प्रतिबद्ध है.' ऐसे में मोदी सरकार के मनरेगा के साथ दुलार-दुराव का मिलाजुला रिश्ता रहा. आइए जानते हैं कि यूपीए-1 के शासनकाल में शुरू की गई इस योजना को लेकर मोदी सरकार कितनी प्रतिबद्ध रही.

क्या है मनरेगा?

मनरेगा ग्रामीण इलाकों में साल में कम से कम 100 दिनों की रोजगार गारंटी देने का कार्यक्रम है. यह 2006 में देश के 200 जिलों में अमल में आया, जबकि 2008 से इसे देश भर में लागू किया गया. 2014 में विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में इसे ग्रामीण विकास का अनुपम उदाहरण करार दिया था.

इस साल सबसे बड़ा बजट

वित्त वर्ष 2018-19 में मनरेगा के लिए 55 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए गए. यह इस योजना का अब तक का सबसे ज्यादा बजट है. हालांकि, तकनीकी रूप से ऐसा नहीं है, क्योंकि पिछले साल यानी- 2017-18 में इस योजना के लिए 48 हजार करोड़ रुपये आवंटित हुए थे और जनवरी 2018 में अतिरिक्त 7 हजार करोड़ जारी किए. इस तरह इस साल भी मनरेगा को पिछली बार के बजट के बराबर ही अनुदान मिला है. इन दोनों सालों में मनरेगा का बजट सबसे ज्यादा रहा.

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क्या रही पिछले 3 सालों की स्थिति?

2016-17 में दो सप्लीमेंटरी एलोकेशन के बाद मनरेगा का फंड बढ़कर 47,500 करोड़ हो गया था. 2015-16 में मनरेगा के लिए 34,699 करोड़ बजट मिला और अतिरिक्त 5 हजार का वादा किया था. हालांकि, नरेगा संघर्ष मोर्चा के निखिल डे और सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय के मुताबिक बाद में केवल 2,000 करोड़ ही रिलीज किए गए. वित्तीय वर्ष 2014-15 की बात करें तो मनरेगा के लिए 34,000 करोड़ रखे गए थे, लेकिन बाद में इसे रिवाइज करके 31,000 करोड़ कर दिया गया.

यूपीए के शासनकाल में कितना बजट?

इससे ठीक पहले यूपीए-2 के समय में 2013-14 और 2012-13 में मनरेगा के लिए 33-33 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए गए. 2011-12 और  2010-11 में  40,100-40,100 करोड़ रुपये आवंटित हुए. 2009-10 में 39,100 करोड़, 2008-09 में 30,000 करोड़ रुपये का बजट रखा गया था. इससे पहले 2007-08 में देश के 330 जिलों के लिए 12,000 करोड़ और 2006-07 में 200 जिलों के लिए 11,300 करोड़ रुपये का प्रावधान था.

क्या असल में बढ़ा है बजट?

ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर तैयार नरेगा संघर्ष मोर्चा और स्वराज अभियान की संयुक्त रिपोर्ट कुछ और तस्वीर पेश करती है. वित्तीय वर्ष 2017-18 की शुरुआत तक मजदूरों की 11,646 करोड़ रुपये की देनदारी पेंडिंग थी. इसलिए इस साल 55,000 करोड़ रुपये आवंटन के बावजूद शुरुआत ही घाटे से हुई है. इसी तरह 2016-17 में 47,500 करोड़ रुपये के बजट के सामने 13,220 करोड़ रुपये की बकाया देनदारी थी. 2015-16 में 34,699 करोड़ रुपये के बजट के सामने 12,218 करोड़ रुपये की देनदारी थी. 2014-15 में 31,000 करोड़ रुपये के मुकाबले 6,102 करोड़ रुपये बकाया थे. इस तरह मनरेगा के बजट में से हजारों करोड़ रुपये पिछले साल बैकलॉग खत्म करने में ही खर्च हो रहा है.

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इस सरकार में कैसे प्रभावित हुई मनरेगा?

मनरेगा को लेकर मोदी सरकार पर आरोप लगे हैं कि उन्होंने मनरेगा में ग्राम सभाओं के अधिकारों को केंद्र के सामने सीमित कर दिया है. अनुमानित कार्यदिवस पर स्वीकृत कार्यदिवस का पहरा बैठा दिया है. इससे बजट प्रभावित हुआ है. स्वराज अभियान की रिपोर्ट के मुताबिक, 2017-18 में 288 करोड़ अनुमानित कार्यदिवस थे, जबकि इनमें से केवल 215 करोड़ ही स्वीकृत कार्यदिवस हुए. यानी 25 फीसदी कार्यदिवसों में कमी आई. 2016-17 में भी 315 अनुमानित कार्यदिवस थे, लेकिन स्वीकृत कार्यदिवस 220 ही हुए. यहां 30 फीसदी कार्यदिवस कम हो गए.

समय से भुगतान नहीं होना बड़ी समस्या

इसके अलावा समय पर भुगतान न होना भी बड़ी समस्या है. सरकार की रिपोर्ट में दावा किया गया कि वित्तीय वर्ष 2017-18 की दो शुरुआती तिमाहियों में मनरेगा का 85 फीसदी भुगतान समय पर किया गया. हालांकि, सरकार के आंकड़ों से ही बनी दो रिपोर्ट में सामने आया कि इस साल केवल 32 फीसदी भुगतान समय से हुआ. 2016-17 की बात करें तो सरकारी आंकड़े 42 फीसदी भुगतान समय से होने की बात करते हैं, जबकि इन्हीं आंकड़ों से बनी रिपोर्ट में केवल 21 फीसदी भुगतान समय से होने की बात सामने आई है.

क्या है सरकार के सामने चुनौती?

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दिसंबर 2017 में अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के राजेंद्र नारायणन और दो स्वतंत्र शोधकर्ताओं के शोध में सामने आया था कि मनरेगा का 80 फीसदी बजट चार महीनों में खप जाता है और बाकी महीनों के लिए 20 फीसदी बजट ही बचता है. सूखाग्रस्त राज्य की हालत और भी गंभीर है. मई 2016 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को 12 सूखा प्रभावित राज्यों को तुरंत मनरेगा का फंड देने का निर्देश दिया था.

2015 और 2016 में सूखे के कारण ग्रामीण इलाकों से कई लोग शहरों की ओर पलायन कर गए. सरकार के सामने मनरेगा से इन्हें रोजगार देने की चुनौती थी, जो कार्यदिवसों में कमी आने से पूरी नहीं हो सकी. कई रिपोर्ट में सामने आया है कि नोटबंदी से गांवों से लेकर शहरों तक अनस्किल्ड लेबर के बीच बेरोजगारी बढ़ी है. इधर, 2017 में भी आठ राज्यों ने खुद को सूखाग्रस्त घोषित किया. नोटबंदी और सूखे से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर दबाव बना हुआ है, जो अब तक कम नहीं हुआ है. 

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