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भारत को महंगी पड़ सकती है इजरायल से दोस्ती, हो सकते हैं ये नुकसान

यहां गौर करने वाली बात यह इस्राइल से राजनयिक संबंधों में गर्मजोशी पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के दौर में शुरू हुई. हालांकि तब भी दोनों देशों के बीच के संबंध दबे-छुपे ही रहे. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर भारत इस पश्चिम एशियाई देश से खुले रिश्ते में यूं कतराता क्यों रहा..

इजरायली समकक्ष बेंजामिन नेतन्याहू के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इजरायली समकक्ष बेंजामिन नेतन्याहू के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
साद बिन उमर
  • नई दिल्ली,
  • 06 जुलाई 2017,
  • अपडेटेड 11:54 PM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन दिवसीय इजरायल यात्रा कई मायनों में ऐतिहासिक है. देश के 70 वर्षों के इतिहास में भारतीय प्रधानमंत्री का यह पहला इजरायल दौरा है, जिसमें दोनों देशों के बीच कृषि, विज्ञान, अंतरिक्ष और जल प्रबंधन जैसे अहम क्षेत्रों में कुल 7 समझौते हुए.

पीएम मोदी अपनी इस यात्रा के दौरान भारत की पूर्ववर्ती सरकारों की तरफ से बरती गई इजरायल से दूरी को रेखांकित करते हुए भविष्य में द्विपक्षीय संबंधों को नई उंचाइयों तक ले जाने की बात कही.

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दबे-छुपे रहे हैं भारत-इजरायल संबंध

यहां गौर करने वाली बात यह है कि इजरायल से राजनयिक संबंधों में गर्मजोशी पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के दौर में शुरू हुई. हालांकि तब भी दोनों देशों के बीच के संबंध दबे-छुपे ही रहे. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर भारत इस पश्चिम एशियाई देश से खुले रिश्ते में यूं कतराता क्यों रहा..

इजरायल से दूरी के पीछे ये दो तर्क

इजरायल से मेल-मिलाप में इस संकोच के पीछे दो तर्क बताए जाते हैं. पहला यह कि इस यहूदी देश से करीबी अरब देशों से भारत के संबंधों में तनाव की आशंका, दूसरा देश की मुस्लिम आबादी की नाराजगी. दरअसल मुस्लिम राष्ट्रों से घिरे इजरायल से अरब देशों के रिश्ते हमेशा ही कटुता भरे रहे हैं. अरब जगत इजरायल की स्थापता का शुरू से ही विरोध करते रहे हैं और वर्ष 1948 में इजरायल की स्थापना के तुरंत बाद इस पर हमला कर दिया था. हालांकि अरब देशों का वह हमला नाकाम रहा, लेकिन उनके बीच की दुश्मनी खत्म नहीं हुई.

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पश्चिम एशिया को लेकर भारतीय नीति में अहम बदलाव

 

पीएम मोदी की इस इजरायल यात्रा को पश्चिम एशिया को लेकर भारतीय नीति में अहम बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है. इससे पहले जब भी कोई भारतीय राजनेता इजरायल गए, तो उन्होंने इसके साथ ही फिलीस्तीन का भी दौरा किया. इजरायल और फिलिस्तीन के बीच वर्षों से चले रहे आ रहे टकराव के बीच भारत सरकार की यही कोशिश रही है कि उसे किसी एक का हिमायती न समझा जाए.

ऐसे में पीएम मोदी के अकेले इजरायल यात्रा से जहां कई सामरिक फायदे गिनाए जा रहे हैं, तो वहीं कुछ नुकसान की भी आशंका है. सबसे पहला तो यह कि भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए अब भी खाड़ी देशों पर बुहत ज्यादा निर्भर है. ऐसे में अगर इजरायल से भारत की दोस्ती से अगर अरब देश खफा होते हैं, तो भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते हैं.

खाड़ी से जुड़ा है करीब 80 लाख भारतीयों का रोजगार

वहीं भारत की विदेशी पूंजी भंडार में बड़ा हिस्सा इन्हीं अरब देशों से आता है. एक अनुमान के मुताबिक, करीब 80 लाख भारतीय रोजगार के लिए खाड़ी देशों पर निर्भर हैं और वहां से अपने वेतन का बड़ा हिस्सा अपने परिवार के पास भारत भेजते हैं. ऐसे में अरब देशों की नाराजगी इन परिवारों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है.

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फिलिस्तीन के पक्ष में खड़ा रहा है भारत

यहां गौर करने वाली बात यह है कि इजरायल-फिलिस्तीन के झगड़े में भारत हमेशा ही फिलिस्तीन के पक्ष में खड़ा दिखा. भारत ने इजरायल के गठन के प्रस्ताव का भी विरोध किया था. वहीं भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव के माहौल में अरब देशों ने भी दोस्ती का खयाल रखते हुए कभी पाकिस्तान की खुली तरफदारी नहीं की और ना ही कश्मीर विवाद में हस्तक्षेप की बात कही.

अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का मददगार रहा है अरब

इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय मंच पर जब भी भारत घिरता पाया गया, तो वहां उसकी खुलकर मदद की. ऐसे में भारत द्वारा इस तरह फिलिस्तीन इंतेफादा (जन आंदोलन) को दरकिनार कर इजरायल से दोस्ती के नतीजतन आशंका है कि अरब देश भी ऐसे विवादों की स्थिति में भारत के पक्ष में खड़ा होने से परहेज कर सकते हैं.

 

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