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जून, 2018 की एक शाम की बात है. गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजे आ चुके थे. उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के अजयपुरा गांव के शिवनाथ चौरसिया (बदला हुआ नाम) आधार कार्ड की अनिवार्यता को लेकर नाराज दिखे.
उपचुनाव के नतीजों का असर जनमानस में अभी ताजा था, जिस पर उनका कहना था, ‘यूपी में मायावती और अखिलेश यादव का हाथ मिलाना जरूरी है. मोदी सरकार के नियम-कायदों ने खेतीहर लोगों को परेशान कर दिया है. जब भी जाओ, बैंक वाले आधार कार्ड की मांग करते हैं. आधार कार्ड बनवाने के लिए मुझे दसियों चक्कर लगाने पड़े. मशीन ने हाथ का निशान लेने में रुला दिया. अब आप ही बताइए हम किसान आदमी हैं, हथेलियां कहां बिन मिट्टी की रहेंगी. मशीन ठीक से हमारे हाथ का निशान पहचान ही नहीं पाती है.कोई भी सरकारी काम दो-चार चक्कर लगाए बिना पूरा नहीं होता है. मायावती-अखिलेश के राज में इस तरह की कभी कोई परेशानी नहीं होती थी.’
बसपा-सपा का असमंजस
शिवनाथ बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव की जुगलबंदी में अपनी रोजमर्रा के जीवन की सहूलियत देखते हैं. लेकिन सवाल है कि क्या उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी प्रभाव रखने वाली इन सियासी पार्टियों के मुखिया एकजुट हो पाएंगे? इनकी सियासी अदावत जगजाहिर है, लेकिन लोकसभा चुनाव 2014 के नतीजे और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में गैर-एनडीए दलों की हार ने इन्हें साथ आने पर मजबूर किया है.
यही वजह रही कि गोरखपुर-फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में बसपा-सपा पुरानी प्रतिद्वंद्विता भूलाकर एक साथ आईं. बसपा ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा और दोनों जगहों पर सपा का समर्थन किया. लेकिन इस सब चीजों के बावजूद अगले आम चुनाव में इनमें गठबंधन होगा, इस पर अभी कुछ भी कहा नहीं जा सकता है.
लोकसभा चुनाव 2014 में उत्तर प्रदेश में बसपा 19.7 प्रतिशत मत हासिल करने के बावजूद एक भी सीट जीत नहीं पाई जबकि सपा 22.35 प्रतिशत मत के साथ पांच सीट जीतने में कामयाब रही थी. बीजेपी 42.63 प्रतिशत वोट के 71 सीटों पर कब्जा जमाने में कामयाब रही थी. वहीं, 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश की 80 में से 20 सीटें मिलीं और मत प्रतिशत 28.1 रहा था.
इसी तरह विधानसभा चुनाव 2017 में बसपा 19 सीटें ही जीत पाई जबकि सपा 54 सीटों पर जीतने में कामयाब रही. ये आंकड़े बताते हैं कि यूपी में इन दोनों दलों के लिए गठबंधन करना कितना जरूरी है. मगर मौजूदा सियासी तस्वीर में गठजोड़ की फिलहाल कोई सूरत नजर नहीं आ रही है.
महागठबंधन का सूरत-ए-हाल
कांग्रेस समान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ अखिल भारतीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की कवायद में लगी हुई है. हालांकि उसकी अभी कोई समग्र तस्वीर बनती हुई नहीं दिख रही है, लेकिन बिहार में वह महागठबंधन बनाने में कामयाब रही. राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), पूर्व केंद्रीय मंत्री और एनडीए का हिस्सा रहे उपेंद्र कुशवाहा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी), जीतन राम मांझी का हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा और शरद यादव की पार्टी के अलावा वाम दल भी महागठबंधन में शामिल हैं.
बिहार में महागठबंधन इसलिए भी अस्तित्व में आ सका क्योंकि 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जारी जीत का सिलसिला बिहार में ही 2015 के विधानसभा चुनाव में थम पाया था. उसकी एक बड़ी वजह एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे आरजेडी प्रमुख लालू यादव, जनता दल (यू) के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और कांग्रेस के नेतृत्व में महागठबंधन बन खड़ा हुआ था. उसी नतीजे को दोहराने के लिए बिहार में एक बार फिर से महागठबंधन अस्तित्व में आ चुका है. बिहार का यह महागठबंधन देश के दूसरे क्षेत्रीय दलों के लिए एकजुट होने का संदेश है.
क्या आकार ले पाएंगी थर्ड फ्रंट की कवायद?
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन और राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन को लेकर जारी रस्साकशी के बीच एक प्रयास थर्ड फ्रंट बनाने को लेकर देखा जा सकता है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के प्रमुख चंद्रशेखर राव विधानसभा चुनाव में मिली जीत से उत्साहित हैं.
वह आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर थर्ड फ्रंट बनाने की कवायद कर रहे हैं. इसी सिलसिले में वह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी से मुलाकात कर चुके हैं. हालांकि इस मुलाकात का नीचोड़ क्या रहा, यह साफ नहीं हो पाया. जबकि अखिलेश यादव की अभी केसी राव से मुलाकात नहीं हो पाई है और मायावती ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया. बहरहाल बता दें कि 2014 के चुनावों में ममता बनर्जी खुद भी तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश कर चुकी हैं, लेकिन काफी मेहनत के बाद भी जमीन पर थर्ड फ्रंट अस्तित्व में नहीं आ पाया.
सौदेबाजी या अस्तित्व बचाने की लड़ाई
आगामी लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे समीप आ रहा है सियासी तस्वीर बनाने को लेकर क्षेत्रीय दलों में सरगर्मियां तेज होती जा रही हैं. चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) पहले ही आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने के मुद्दे पर एनडीए से अपना अलग रास्ता चुन चुकी है. तेलंगाना चुनाव में टीडीपी-कांग्रेस साथ दिखीं. बिहार में उपेंद्र कुशवाहा महागठबंधन में शामिल हो चुके हैं.
अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी एनडीए को आंखें तरेर रहे हैं. लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की चेतावनी के बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को रामविलास पासवान को खुशामद करना पड़ा. बिहार में महागठबंधन की घोषणा के दौरान आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव कह रहे थे कि गठजोड़ की यह कोशिश लोकतंत्र बचाने की लड़ाई है. क्योंकि मौजूदा सरकार तानाशाही का रुख अख्तियार किए हुए.
उपेंद्र कुशवाहा ने उसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कोसा. उनका कहना था कि नीतीश ने उनका अपमान किया और पीएम मोदी बिहार की जनता से किया अपना वादा पूरा नहीं कर सके. सवाल है कि चार साल केंद्र की एनडीए सरकार में साझेदार रहने के दौरान उपेंद्र कुशवाहा को क्यों यह महसूस नहीं हुआ कि उनके राज्य बिहार की केंद्र की तरफ से उपेक्षा की जा रही है. ऐसे में यही सवाल उठता है कि क्षेत्रीय दलों की दिखने वाली एकजुटता वास्तव में अस्तित्व या लोकतंत्र बचाने की लड़ाई है कोरी सौदेबाजी.