
उन्होंने पुणे के नजदीक कोरेगांव भीमा में 1 जनवरी को दलितों पर हुए हमले के बाद राज्य भर में बंद की अगुआई की थी. कम चर्चित भारिप-बहुजन महासंघ (बीबीएम) के अध्यक्ष, डॉ. भीमराव आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर अब महाराष्ट्र के सियासी और सामाजिक तौर पर विभाजित दलितों और आदिवासियों को गोलबंद करने की मुहिम में लगे हैं. महाराष्ट्र ने जनवरी 1992 के बाद से इतने जबरदस्त पैमाने पर दलितों का विरोध प्रदर्शन नहीं देखा. उस वक्त मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी का नाम डॉ. आंबेडकर के नाम पर रखने की मांग पर ऐसा जोरदार प्रदर्शन हुआ था.
प्रकाश आंबेडकर ने दिसंबर में गुजरात विधानसभा चुनावों में जद(यू) के बागी नेता छोटूभाई वसावा (बाद में उन्होंने भारतीय ट्राइबल पार्टी, यानी बीटीपीए बना ली) के समर्थन में समुदाय को गोलबंद किया. फिर उन्होंने दलितों को 'बहादुर नस्ल' के तौर पर पेशवा और ब्रिटिश फौज के बीच लड़ाई की 200वीं सालगिरह के मौके पर कोरेगांव भीमा में जुटने का मुद्दा दिया. यह ठीक वहीं दोहराने का जतन था, जो बाबा साहेब ने 1927 में इसी दिन किया था. आंबेडकर का कहना है कि वे कई सारे दलित धड़ों के बीच संवाद चाहते हैं. वे कहते हैं, ''इसे दोबारा शुरू करने के लिए हमें इतिहास में पीछे लौटना होगा.''
चैरिटी कमिशनर कोर्ट में वकील आंबेडकर मानते हैं कि उनकी मुहिम अभी तक कामयाब रही है. अब वे दलित आक्रोश को सियासत और तालीम की तरफ मोडऩा चाहते हैं. महाराष्ट्र में दलितों की तकरीबन 11 फीसदी आबादी आदिवासियों की आठ फीसदी आबादी के साथ मिलकर मजबूत दबाव समूह बना सकती है. मगर दलितों के चार मुख्य समूह—महार, चमार, मातंग और ढोर—पुराने समय से ही बुरी तरह बंटे हुए हैं. आंबेडकर इसी को बदलने की आस लगाए हैं.
वे स्वीकार करते हैं कि वे 2019 का लोकसभा चुनाव लडऩे का मंसूबा बना रहे हैं, मगर यह भी कहते हैं कि सामाजिक पुनरोत्थान सियासी सत्ता से कहीं ज्यादा अहम है. वे जोर देकर कहते हैं कि सियासी सत्ता के खेल असल मकसद को ठेस पहुंचाने वाले साबित हो सकते हैं और असल मकसद सामाजिक बदलाव लाना है. वे कहते हैं, ''मायावती ने दिखा दिया है कि सियासी सत्ता समाज को नहीं बदल सकती.''
उनका कहना है कि आरक्षण अपने साथ विकास नहीं लाता और यही वजह है कि वे 'सभी के लिए शिक्षा' के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कई एनजीओ के साथ बातचीत में मुब्तिला हैं. वे कहते हैं, ''छात्रों के पास शिक्षा का विकल्प होना चाहिए. यह हमारा एजेंडा होगा. अगर उनमें कुछ वंचित हैं, तब आरक्षण के बारे में सोचें.'' वे दावा करते हैं कि दूसरे (दलित) नेता उनका समर्थन करेंगे. उनका कहना है कि युवा पीढ़ी जाति की गोलबंदी में भरोसा नहीं करती. वे कहते हैं, ''एक दशक पहले वे प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के सवाल पर साथ आए थे.''
आंबेडकर को कांग्रेस की क्षमता पर भरोसा नहीं है कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला कर पाएगी और इसलिए वे वामपंथियों की अगुआई वाले मोर्चे की वकालत करते हैं. वे कहते हैं, ''वामपंथी पार्टियां ही मोदी की गैर-भ्रष्ट छवि की बराबरी कर सकती हैं.'' उन्होंने कोरेगांव भीमा में वामपंथी कार्यकर्ताओं और छात्र कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का जोरदार विरोध किया था. हालांकि खुद उनके ही कई लोग वामपंथ की तरफ उनके झुकाव को लेकर शक जाहिर करते हैं. उनके एक कट्टर समर्थक नरेश जाधव मानते हैं कि ''भाजपा के खिलाफ कांग्रेस ही हमारी स्वाभाविक सहयोगी हो सकती है.''
आंबेडकर इससे इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ''वाम दल आगे आ जाएं तो भाजपा वहां होगी जहां आज कांग्रेस है.'' वे यह भी कहते हैं कि हिंदुस्तान के लोकतंत्र में सभी सियासी विचारधाराओं के लिए जगह है.
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