
साहित्य आजतक के दूसरे दिन सीधी बात स्टेज पर ‘साहित्य में मुस्लिम समाज’ विषय पर चर्चा की गई . क्या हमारा साहित्य समाज मजहब, बिरादरी में बंटा है? क्या साहित्य का भी अपना कोई समाज है? इस पर चर्चा के लिए मौजूद रहे तीन बड़े लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह, भगवानदास मोरवाल और अंजुम उस्मानी. कार्यक्रम का संचालन शम्सताहिर खान ने किया.
शम्स ने सवाल किया कि क्या साहित्य में भी हिंदू-मुस्लिम होता है. इस पर अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा कि ये कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि हिंदी उपन्यास में प्रेमचंद के बाद किसी भी लेखक की कहानी में मुस्लिम दमदारी से नहीं दिखता.
क्या मुस्लिम लेखक आज भी खुलकर लिखने से खौफ खाते हैं, इस सवाल पर भगवान दास ने जवाब दिया कि आजादी के बाद किसी हिंदू लेखक का एक भी उपन्यास नहीं है जिसमें मुस्लिम समाज पूरी पूर्णता के साथ आता हो. कहानियों में मुस्लिम पात्र जरूर आते हैं लेकिन वो छौंक की तरह आते हैं.
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अंजुम उस्मानी ने कहा कि समाज मजहब से नहीं बनता. मैंने जो साहित्य पढ़ा उसमें मुझे हिंदू-मुस्लिम नहीं दिखा. मुस्लिम समाज तो इसमें था ही नहीं.बेबाकी से लिखने के सवाल पर अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा कि मैं बिलकुल नहीं डरता. मुझे ये सौभाग्य मिला है कि मैं अपने समाज के साथ-साथ हिंदू समाज को भी उतने ही करीब से देखा है. मैं नौकरी के सिलसिले में 10 साल बनारस में रहा. पूरे 10 साल में बुनकरों के बीच ही रहा. मैं दोनों के बीच रहा और दोनों के बारे में खुलकर लिखा है.
मुस्लिम समाज को मुख्य धारा में लाने के लिए साहित्य कितना मायने रखता है? इस सवाल पर अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा कि मुस्लिम समाज मुख्य धारा में है. हम नंबर दो के नागरिक नहीं हैं. हम पूरे भारतीय हैं.
वहीं भगवान दास ने कहा कि मुस्लिम समाज को लेकर जो धारणा है उसे बदलनी होगी. अंजुम उस्मानी ने कहा कि ये मुख्य धारा तय करने वाला कौन है. मैं खुद मुख्यधारा हूं. ये सब साहित्य से बाहर की बात है. साहित्य में हिंदू-मुस्लिम नहीं बल्कि आप क्या हैं, ये ज्यादा मायने रखता है.
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गौरतलब है कि अब्दुल बिस्मिल्लाह के लेखन में मुस्लिम समाज के संघर्ष, दुख और जीवन की झलक साफ दिखती है. वह हिंदी लेखन क्षेत्र का बड़ा नाम हैं और उपन्यास, कहानी,नाटक, कविता, आलोचना इन सभी विधाओं में लिखते रहे हैं. उनकी चर्चित किताबों में उपन्यास 'झीनी झीनी बीनी चदरिया', 'मुखड़ा क्या देखें', 'समर शेष है', 'जहरबाद', कहानी संग्रहों में 'अतिथि देवो भव', 'रैन बसेरा', 'टूटा हुआ पंख' आदि मशहूर हैं. वह सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, अखिल भारतीय देव पुरस्कार, उ.प्र हिन्दी संस्थान व हिंदी अकादमी आदि कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं.
मेवात की माटी और केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की नौकरी ने लेखक भगवानदास मोरवाल को इतना मांजा है कि उनकी रचनाओं में समय और समाज जी उठते हैं.'सिला हुआ आदमी', 'सूर्यास्त से पहले', 'अस्सी मॉडल उर्फ सूबेदार', 'सीढ़ियां', 'मां और उसका देवता', 'दोपहरी चुप है' जैसे कहानी संग्रहों से लेकर उपन्यास 'काला पहाड़', 'बाबल तेरा देस में', 'रेत', 'नरक मसीहा', 'हलाला' तथा 'सुर बंजारन' से उन्होंने खूब शोहरत बटोरी है. वह 'श्रवण सहाय अवार्ड’, 'जनक विमेहर सिंह सम्मान’, 'हरियाणा साहित्य अकादमी', 'कथा सम्मान’, 'साहित्यकार सम्मान’ आदि से नवाजे जा चुके हैं. वह हिन्दी अकादमी दिल्ली एवं हरियाणा साहित्य अकादमी के सदस्य भी रह चुके हैं.
अंजुम उस्मानी उर्दू के जाने-माने लेखक हैं. मुस्लिम समाज और उर्दू के लिए किए गए उनके काम ने उन्हें देश और देश से बाहर भी मशहूर किया है. उन्होंने उर्दू में'सफर दर सफर', 'ठहरे हुए लोग', 'कहीं कुछ खो गया है', ’शुमार ए नफ्स' जैसी किताबें तो लिखीं ही, कई अकादमिक और तकनीकी विषय पर भी लिखा. ऐसी ही उनकी एक किताब 'टेलीविजन नशरियातः तारीख, तहरीर, टेक्नीक' काफी चर्चित रही है.
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