
हमारे लोगों में आकांक्षा, अभिलाषा, अधीरता और जागरूकता तेजी से बढ़ रही है. हमारे संस्थान अभी भी विकास की प्रक्रिया में हैं और उनमें नई जान डालने की दरकार है. आजादी के बाद के बीते दशकों में सरकारों ने हमारे राष्ट्र निर्माताओं की विरासत को आगे बढ़ाते हुए लगातार प्रयास किए हैं.
फिर भी, आज हमारे सामने एक वैकल्पिक नजरिया पेश किया जा रहा है कि हम क्या थे, हम क्या हैं और हमें क्या होना चाहिए. यह वास्तव में हमें पीछे धकेलने वाला है. यह नजरिया हमारे इतिहास की विकृत अवधारणा पर आधारित है और हमारे भविष्य के लिए बहुत घातक है.
हम एक खुले विचार वाले उदार लोकतंत्र रहे हैं. यह प्रतिनिधित्व और सहभागिता पर आधारित रहा है. इसे ऐसी राजनैतिक प्रतिस्पर्धा से बल मिलता रहा है जिसमें नियमों, परंपराओं और मर्यादाओं का पूरा ख्याल रखा जाता रहा है. हमारे खुले और उदार लोकतंत्र ने कभी एकरूपता थोपे बगैर देश की एकता के सूत्र मजबूत किए हैं.
हमारे गणतंत्र ने न केवल विविध विचारों को सम्मान और संरक्षण दिया है बल्कि इसने हमेशा चर्चा-परिचर्चा को प्रोत्साहित किया है. यहां असहमति, असंतोष और विरोध को भी स्थान मिलता रहा है. इसने संवाद और समझौते के प्रति अपनी क्षमताओं का भी परिचय दिया है.
वर्षों से, हमारा लोकसंवाद शालीनता, तर्क-वितर्क पर आधारित रहा है न कि हुड़दंगई, हंगामा और गाली-गलौज पर. हमारा लोकतंत्र विचार-विमर्श से बहुमूल्य बनता है एकपक्षीय आत्मालाप से नहीं, जवाबदेही से इसमें सुंदरता आती है न कि सार्वजनिक सवालों और जांच-परख पर अंकुश लगाने से.
हमारा देश, हमारा समाज और हमारी आजादी—सब पर लगातार हमले किए जा रहे हैं. यह सब एक सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है जिसकी पूरी तैयारी की गई है और भारत को नए रंग में रंगने की कोशिश हो रही है. इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, तथ्यों में हेर-फेर किए जा रहे हैं, राष्ट्र निर्माताओं का अपमान किया जा रहा है, पूर्वाग्रह को हवा देकर धार्मिक उन्माद फैलाने की कोशिश हो रही है.
क्या भारत 26 मई, 2014 से पहले वाकई एक बड़ा ब्लैक होल था? क्या भारत की सारी तरक्की, समृद्धि और महानता महज इन चार वर्षों का परिणाम है? क्या ऐसी बात कहना हमारे देश के लोगों के बुद्धि-विवेक का अपमान नहीं है?
हमारे देश ने इतने वर्षों में जो कुछ उपलब्धियां हासिल की हैं उसे जान-बूझकर खारिज करते जाना कुछ और नहीं, बल्कि बस सत्ता का अहंकार है. हमारी पहले की सारी उपलब्धियों को, जो देश के लोगों के साझा प्रयासों का परिणाम है, एक सनक में खारिज करते जाना कुछ और नहीं, बल्कि एक अकड़, एक मिथ्याभिमान है.
यह श्रेय लेने वाली बात नहीं है. यह भारत की शक्ति और पिछले कई दशकों में भारतीयों के अथक प्रयासों को पहचानने-स्वीकारने की बात है.
हम सबको गंभीरता से इस बात पर विचार करना होगा कि कैसे हमारे मूलभूत सिद्धांतों और संविधान के मूल्यों पर जान-बूझकर आघात किया जा रहा है. संविधान को बदल देने की टिप्पणियां दर्शाती हैं कि भारत के गौरव को मटियामेट करने के लिए किस प्रकार से कुछ लोग आमादा दिखते हैं.
सत्ताधारी पक्ष की ओर से आने वाले भड़काऊ बयान अचानक या भूल से दिए गए नहीं होते, यह तो एक खतरनाक तैयारी का हिस्सा हैं. इस नई और खतरनाक परिपाटी के सबूत आपको चारों तरफ दिख जाएंगे.
भय और धमकियां रोजमर्रा की बातें हो चुकी हैं. इससे इतर बातों को कहने की आजादी ही नहीं है, उनका गला घोंट दिया जाता है. हिंसा से इन आवाजों को दबाने की कोशिश हो रही है और प्रतिरोध के स्वर दबाने के लिए हत्याएं तक की जा रही हैं.
अपने लिए अपने तरीके से सोचने, असहमति और प्रतिरोध, अपनी पसंद से भोजन, लोगों से मिलने-जुलने या अपनी मर्जी से शादी-ब्याह तक की आजादी जैसी चीजों के लिए जगह ही नहीं बची. इन सब पर हमले हो रहे हैं.
जहां सौहार्द्र और सद्भाव को बढ़ाने की कोशिश होती थी, वहां धार्मिक उन्माद बढ़ाने में लोग जुटे हैं. स्वयंभू पहरुओं के हमलों और निजी सेनाओं को सरकारी संरक्षण मिला है. वे बेखौफ घूम रहे हैं. दलितों और महिलाओं के प्रति असंवेदनशीलता खतरनाक स्तर तक बढ़ गई है. हमारे समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है और इन सभी चीजों का सिर्फ एक ही मकसद है—चुनाव जीतना.
सदियों से भारतीय परंपरा और जीवनशैली ऐसी रही है जैसे कई धाराएं अंततः आकर एक में मिल जाती हैं. यह भावना मिटाई जा रही है. हमारी सदियों पुरानी सामाजिक बनावट में छेड़छाड़ करके इसे नए तरीके से गढऩे की कोशिश हो रही है. उथल-पुथल की इस अनावश्यक कोशिश से लोगों में हताशा, असंतोष और क्रोध उपजा है जिसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे.
लोग इससे थोड़ी देर के लिए मंत्रमुग्ध भले ही हो सकते हों, लेकिन हमारे गणतंत्र को तटस्थ और मजबूत संस्थानों की आवश्यकता है. संसदीय बहुमत को बहस और कानूनों को ध्वस्त करने के लाइसेंस की तरह नहीं लिया जाना चाहिए.
जांच एजेंसियों का प्रयोग करके राजनैतिक विरोधियों को निशाना बनाया जा रहा है. न्यायपालिका में उथल-पुथल मची हुई है. सिविल सोसाइटी का मुंह बंद किया जा रहा है. विश्वविद्यालयों और छात्रों पर बेडिय़ां कसी जा रही हैं. मीडिया के एक बड़े हिस्से को धमकाया जा रहा है, ताकि वह जांच-पड़ताल की अपनी भूमिका छोड़ दे और प्रशासनिक खामियों, घोटालों और हेराफरी को उजागर न कर सके.
पारदर्शिता को बढ़ाने और भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए आरटीआइ कानून बनाया गया था. आज यह कानून किसी ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है. आरटीआइ कार्यकर्ता मारे जा रहे हैं. आधार को सशक्तीकरण का एक माध्यम बनना था.
इसका प्रयोग शिकंजा कसने के साधन के रूप में किया जा रहा है. हम ज्ञान-संचालित समाज बनना चाहते हैं लेकिन देखिए किस प्रकार से वैज्ञानिक स्वभाव का मजाक बनाया जा रहा है और बुद्धिजीवियों को कैसे ठिकाने लगाया जा रहा है.
राजनीति की आवाज ही लोकतंत्र का संगीत है लेकिन अब इस आवाज को दबाया जा रहा है. यह सब भारत को 10 खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनाने के नाम पर हो रहा है. बेशक, हमें तेज विकास की आवश्यकता है लेकिन इसका मतलब पहले कर दो और फिर सोचो नहीं होता.
हम बार-बार देख रहे हैं कि चाहे वह अर्थव्यवस्था का विषय हो या पड़ोसियों के साथ संबंध की बात हो या सुरक्षा से जुड़े गंभीर विषय और सीमापार आतंकवाद हो, फैसले वापस लिए जा रहे हैं.
क्या अधिकतम शासन-प्रणाली का अर्थ न्यूनतम सत्य है? क्या इसका यह अर्थ है कि असहज सचाई की जगह वैकल्पिक तथ्य ले लें? नौकरियों का ही उदाहरण ले लीजिए. हर कोई जानता है कि रोजगार की स्थिति दयनीय है. लेकिन अचानक हमें यह बताया जा रहा है कि 2017 में 75 लाख नौकरियों का सृजन किया गया. रोज-रोज नई बातें कही जाती रहीं और अर्थव्यवस्था की हालत बदतर होती गई.
जीएसटी को लेकर जितनी काट-छांट, जितना रद्दोबदल देखा गया, ऐसा लगता है कि बिना किसी तैयारी के सुधार के नाम पर कोई हठ पूरा किया जा रहा है. किसान परेशान थे पर उनकी सुध लेने में कितनी देर की गई और उनकी परेशानियों को दूर करने की कोशिश भी आधे-अधूरे हुई.
भारत विचार की पुनर्व्याख्या के लिए हमारे संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों और मूल्यों के प्रति मनसा वाचा कर्मणा समर्पण की जरूरत है. मन, वचन से और कर्म तीनों में इसके प्रति समर्पण झलकना चाहिए. संस्थाओं और संस्थागत प्रक्रिया की रक्षा और मजबूती के लिए हमें अपने संकल्प को फिर दृढ़ करना होगा.
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