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बोरिंग है स्वरा भास्कर की रसभरी, कमजोर कहानी को अपने रिस्क पर देखें

वेब सीरीज की कहानी दो लोगों के इर्दगिर्द घूमती है. एक है लखनऊ की मशहूर तवायफ रसभरी और दूसरी है इंग्लिश टीचर शानू बंसल. शानू बंसल जो इंग्लिश टीचर हैं वो अपने हसबेंड के साथ नई-नई मेरठ सिफ्ट हुई हैं.

रसभरी में स्वरा भास्कर का एक स्टिल रसभरी में स्वरा भास्कर का एक स्टिल
पुनीत उपाध्याय
  • नई दिल्ली,
  • 30 जून 2020,
  • अपडेटेड 11:54 AM IST

स्वरा भास्कर बॉलीवुड की चुनिंदा एक्ट्रेस में हैं जो फिल्में चुनने से पहले उसकी स्क्रिप्ट पर विशेष ध्यान देती हैं. अधिकतर फिल्मों में आपने स्वरा भास्कर को साड़ी में किसी मध्यमवर्गीय या गरीब महिला का रोल प्ले करते देखा होगा. चाहें निल बटे सन्नाटा हो, अनारकली ऑफ आरा हो या फिर रांझणा हो, इन सभी में वे देसी अंदाज में दिखी थीं. गांव-देहात की देसी महिला का रोल वे भलीभांति निभाती आई हैं. अब एक बार फिर ऐसे ही रोल में नजर आई हैं स्वरा भास्कर. वेब सीरीज का नाम है रसभरी.

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स्वरा भास्कर की मैंने जितनी फिल्में देखी हैं उसमें दो फिल्में जो मेरे दिल के करीब हैं वो हैं अनारकली ऑफ आरा और नील बटे सन्नाटा. अनारकली ऑफ आरा में स्वरा भास्कर ने गांव की नाचने-गाने वाली एक महिला का रोल प्ले किया था. फिल्म में उनकी एक्टिंग की खूब तारीफ हुई थी. फिल्म में स्वरा ने एक नाचनेवाली का संघर्ष बखूबी दिखाया था. रसभरी में भी उनका किरदार कुछ-कुछ ऐसा ही है. वेब सीरीज में वे तवायफ के रोल में हैं. तवायफ का नाम है रसभरी. किरदार यूं तो दोनों अलग हैं मगर उनका गेटअप और अंदाज काफी मेल खाता है.

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मगर ये बात भी गौर करने वाली है कि जब आप बार-बार एक ही किस्म के किरदार, या मिलते-जुलते किरदार करते हैं तो आपके ऊपर ये चैलेंज भी होता है कि आप उस किरदार को इस कदर निभाएं कि उसमें आपके द्वारा निभाए गए पुराने किरदार की झलक ना दिखाई दे जाए. अगर आपका पुराना किरदार आपके नए किरदार पर हावी हो रहा है तो फिर या तो आपका ये किरदार कमजोर माना जाएगा या आपका अभिनय. रसभरी में स्वरा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. स्वरा का अभिनय शानू मैम और रसभरी के किरदारों में वो छाप नहीं छोड़ पाया जिसके लिए वे जानी जाती हैं. फिल्म की घिसी-पिटी कहानी भी इसका एक कारण हो सकती है.

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कहानी

वेब सीरीज की कहानी दो लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है. एक है लखनऊ की मशहूर तवायफ रसभरी और दूसरी है इंग्लिश टीचर शानू बंसल. शानू बंसल जो इंग्लिश टीचर हैं वो अपने हसबेंड के साथ नई-नई मेरठ शिफ्ट हुई हैं. एक छोटे शहर के लोगों की मानसिकता के हिसाब से शानू मैम का आगमन जैसे ही होता है वैसे ही उनके पहनावे और चाल-चलन को देखते हुए उन्हें कैरेक्टर सार्टिफिकेट थमा दिया जाता है. गली की आंटियां हों, मोहल्ले के अंकल, स्कूल का स्टाफ हो या फिर स्टूडेंट्स, सभी शानू मैम की शॉर्ट ब्लाउज को देख अपना-अपना जजमेंट ढूंढ़ लेते हैं और उन्हें पहले ही कैरेक्टरलेस मान लेते हैं. मर्द और स्कूल के लड़के शानू मैम का नाम सुनते ही मदहोश से होने लग जाते हैं. औरतें और स्कूल की लड़कियां शानू मैम को जलन की नजर से देखने लग जाती हैं. क्योंकि सच तो यही है कि शानू मैम के प्रति मेरठ के मर्द और लड़के चुंबक की तरह खिंचे चले आ रहे होते हैं. और उनके घर जाने का कोई ना कोई बहाना तलाशते हैं.

एक शख्स जो किसी काम से शानू मैम के घर जाता है वो इस बात का दावा करता है कि वो उनके साथ रिलेशन बनाकर आया है. इस बात से सभी मर्दों में हड़कंप मच जाता है. जो धारणा शानू मैम के लिए लोगों ने बनाई होती है वो सही साबित होती नजर आती है. महिलाएं इनसिक्योर महसूस करने लग जाती हैं. शानू मैम के पति काम के सिलसिले से घर के बाहर रहते हैं. इस कारण कोई ना कोई बहाना बना कर शानू मैम के यहां आने लग जाते हैं. शानू मैम को उनकी क्लास का लड़का नंद किशोर त्यागी काफी समय से फॉलो कर रहा होता है. वो शानू मैम के बारे में सब कुछ जानने के लिए उनके यहां ट्यूशन पढ़ने लग जाता है. वक्त के साथ-साथ नंद समझता है कि शानू मैम वास्तव में वैसी नहीं हैं जैसी छवि उनकी लोगों के बीच बनी है. मगर काफी समय तक वो भी रसभरी और शानू बंसल के बीच कहीं उलझा सा रह जाता है.

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जब शानू मैम के घर में ही उसका सामना शानू मैम सी ही दिखने वाली एक महिला से होता है तो कहानी एक कन्फ्यूजिंग मोड़ लेती है. शानू मैम सी दिखने वाली उस महिला का नाम है रसभरी. कैसे अचानक से शानू मैम, रसभरी नाम की एक तवायफ में तब्दील हो जाती हैं ये बात किसी के पल्ले नहीं पड़ती. रसभरी एक तवायफ है और शानू मैम के घर में जो भी जाता है वो उसके हुस्न के जाल में इस कदर फंसता है कि सिर्फ रसभरी का ही होकर रह जाता है. नंद भी धीरे धीरे ये समझ जाता है कि लोग जिसके आकर्षण में चुंबक की तरह चिपके चले आ रहे वो शानू मैम नहीं बल्कि रसभरी है. अब नंद शानू मैम और रसभरी के बीच की इस गुत्थी को सुलझाने में लग जाता है. इसी पर बनी है ये फिल्म.

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स्टूडेंट - टीचर के बीच का रिलेशनशिप

वेब सीरीज को लेकर भारी बवाल देखने को मिल रहा है. सभी कह रहे हैं कि वेब सीरीज के जरिए स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की मानसिकता को बदला जा रहा है और उन्हें गलत सीख दी जा रही है. मगर सच तो ये है कि ऐसा फिल्म में कहीं भी देखने को नहीं मिलता. किसी महिला के छोटी ब्लाउज पहन लेने से, मेकअप कर के स्कूल आ जाने से, दो मीठी बातें कर लेने से ये सिद्ध नहीं होता कि महिला के प्रति सामने वाला शख्स जिस तरह आकर्षित हो रहा हो महिला के मन में भी वैसे ही भाव हों. वो समाज में अपने हिसाब से रहने के लिए आजाद है.

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मगर समाज हमेशा से ही महिलाओं पर अपनी संकीर्ण मानसिकता से उपजा हुआ एक जजमेंट थोंप देता है. एक महिला अपने चरित्र पर वो कलंक लगाए ताउम्र जीवन व्यतीत करती है. बहिष्कार झेलती है. जब महिलाओं को समाज इतना भी नहीं समझ पा रहा है तो वो एक स्टूडेंट और टीचर के बीच के परस्पर मेल को भला फूहड़पन के अलावा और क्या ही समझ सकता है.

इसके अलावा कई लोग इस बात के लिए भी स्वरा का विरोध कर रहे हैं कि रसभरी में उन्होंने कई सारे इंटीमेट सीन दिए हैं. मेरा ऐसे लोगों से सिर्फ एक ही सवाल है कि इंटीमेंट सीन तो आज कल लगभग हर फिल्म में होता है. और रसभरी से कई ज्यादा होता है. तो सिर्फ स्वरा पर ही क्यों निशाना साधा जा रहा है. रसभरी के कंटेंट पर आप सवाल उठा सकते हैं मगर स्टूडेंट और टीचर के बीच का रिलेशनशिप समाज की एक सच्चाई है. जिसे पहले भी फिल्मों के माध्यम से पेश किया गया हो. चाहें वो नावाजुद्दीन सिद्दीकी की हरामखोर हो या फिर राधिका आप्टे की लस्ट स्टोरीज.

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दरअसल स्वरा भास्कर के एक विशेष पॉलिटिकल पार्टी से जुड़ाव की वजह से भी सोशल मीडिया पर उन्हें आए दिन ट्रोल का सामना करना पड़ता है. इस वेब सीरीज को लेकर भी वे आलोचकों के घेरे में आ गई हैं. किसी के पॉलिटिकल इंटरेस्ट से उसके फिल्मी करियर का आंकलन करना सही नहीं है. मगर अफसोस कि ऐसा ही होता नजर आ रहा है.

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निर्देशन-कहानी में दम नहीं

वेब सीरीज का निर्देशन किरदारों को स्थापित करने के लिहाज से ठीक है. डायलॉग भी फिल्म में वैसे ही हैं जैसे आम बोल चाल की भाषा में लोग इस्तेमाल करते हैं. क्योंकि कहानी मेरठ की है तो खड़ी बोली और गालियों का भरपूर इस्तेमाल किया गया है. फिल्म की कहानी एक ऐसा पहलू है जो रोचक भी नहीं और जो किसी निष्कर्ष तक भी नहीं ले जाती.

वेब सीरीज में कई जगह ऐसा लगेगा कि शानू मैम और रसभरी की उलझन में कहानीकार खुद इतना उलझा रह गया कि कहानी को सुलझा ही नहीं पाया. फिल्म के बीच में तो ऐसा प्रतीत भी होता है कि इस फिल्म को बनाया ही क्यों. इसका ना तो कोई उद्देश्य नजर आता है नाहिं कोई वजह. नाहीं कोई खास सस्पेंस नजर आता है ना फिल्म किसी भी लेवल पर उत्साहित करती है. बस फिल्म में जमीनी स्तर पर कलाकारों का अभिनय बढ़िया है और प्रासंगिक भी है. मगर आज जब हर तरफ कंटेंट पर इतना काम किया जा रहा है, उसी पुराने ढर्रे पर रसभरी की कहानी ताना-बाना बुना गया है जो एक हद के बाद फिल्म को इरिटेटिंग बना देता है. कहानी के अंत में अगर कुछ नजर आता है तो बस एक उलझन. और एक सवाल. "ये फिल्म बनी ही क्यों"

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एक्टिंग-

स्वरा भास्कर निसंदेह एक उम्दा एक्ट्रेस हैं मगर अनारकली ऑफ आरा की तुलना में रसभरी और शानू का उनका किरदार फीका नजर आता है. वे अपनी अन्य फिल्मों की तरह इस फिल्म में अपनी एक्टिंग से इंप्रेस कर पाने में नाकाम रही हैं. वे अपने किरदार में एक नयापन नहीं ला पाई हैं. बाकी अन्य किरदारों में चितरंजन त्रिपाठी, नीलू कोहली की एक्टिंग असरदार है. इसके अलावा नंद के रोल मे आयुष्मान सक्सेना और प्रियंका के रोल में रश्मि अगडेकर की केमिस्ट्री भी लाजवाब है. वेब सीरीज को देखने की कोई विशेष वजह तो नहीं है फिलहाल मगर टाइम पास के लिए मेरठ की इस कहानी को एक बार देख सकते हैं.

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