
दिल्ली का संसद मार्ग पिछले तीन दिनों से ‘हम अपना अधिकार मांगते, नहीं किसी से भीख मांगते.’, ‘एक काम का, एक ही वेतन.’ और ‘मंदिर-मस्जिद में मत उलझाओ, हमारी सहूलियतें बढाओ,’ जैसे नारों से गूंज रहा था. देशभर से लाखों आशा कार्यकर्ताओं, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, बीड़ी मजदूरों और दूसरे अन्य असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले आदमी-औरत ने यहां डेरा डाला हुआ था. यह जुटान देश के दस बड़े श्रमिक संगठनों के संयुक्त बुलाहट पर हुआ था और इसका नाम ‘महापड़ाव’ दिया गया था. 9 नवम्बर से 11 नवम्बर तक चले इस महापड़ाव में देशभर के मेहनतकश श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा जमा हुआ था.
संसद भवन से थोड़ी ही दूरी पर ये लोग पिछले तीन दिनों से अपनी मांग को लेकर डटे हुए थे. शनिवार को इस महापड़ाव का आख़री दिन था. बिहार के जहानाबाद से महाराष्ट्र के विदर्भ के साथ साथ केरल के सुदूर इलाकों से लोगों का जुटान हुआ था. कई चीजें अलग थी, इलाक़ा-समाज, भाषा-बोली यहां तक की पहनावा-ओढ़ावा भी, पूरी जीवन शैली अलग होने के बावजूद मांगे एक थी. उनकी मांगे व्यक्तिगत नहीं थी, सामाजिक थी और यह सामाजिक मांग का दायरा बहुत बड़ा था, उत्तर भारत से मध्य भारत होते हुए दक्षिण भारत तक के कामगार इस महापड़ाव में जमा होकर पूरे कामगार समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
बिहार के गोपालगंज ज़िला की अधेड़ उम्र की कलावती देवी हमारे हाथ में माइक देखकर क़रीब आती हैं. वो स्कूल में रसोईया हैं और कहती हैं, ‘हमको बोलना है. हमको बताना है कि हम सुबह के आठ बजे से लेकर शाम के सात बजे तक आठ घंटें की ड्यूटी देते हैं और महीने के आख़िर में मिलता है ख़ाली 1200 सौ रूपया. हम तो अपना काम उतनी मेहनत से करती हैं, जितना कोई नौकरी वाला करता है. लेकिन हमकों सरकार इतना कम पैसा क्यों देती है?
वो आगे कहती हैं, ‘बारह सौ रूपए में आज क्या मिलता है? यह जो 1200 सौ रूपए मिलता है वो हर महीने नहीं मिलता है. पांच महीनें से लेकर आठ महीने तक मिलता है. हम हियां (यहां) इसीलिए आईं हैं ताकि सरकार से पूछा सकें कि काहे (क्यों) हमकों सैलरी नहीं मिलती? काम तो दूसरों के बराबार करते हैं लेकिन उन्हें हर महीने सैलरी मिलती है और हमें सात-आठ महीने पर मानदेय का पैसा क्यों मिलता है?’
कलावती के सवाल और मांग के ही तरह दिल्ली के कापसहेड़ा बोर्डर से आईं मंजू के भी हैं. मंजू आशा वर्कर हैं. वो कहती हैं, ‘हम सेवा तो ख़ूब करते हैं. दूसरों का ख्याल रखते हैं. लेकिन हम अपना और अपने परिवार का ख्याल रख पाएं या उन्हें पाल पाएं इतना पैसा नहीं मिलता है. 1500 रूपया मिलता है वो भी नियमित नहीं है. अगर पॉइंट बना तो मिलता है नहीं तो इसमें भी काम हो जाता है. मैं इस मांग के साथ इस महापड़ाव में आई हूँ कि जब सरकार हमसे काम लेती है तो हमें वो सरकारी कर्मचारी घोषित करें. हमें भी वो सुविधाएं मिलनी चाहिए जो हमारे बराबर की सरकारी कर्मचारी को मिलती है.’
अपने लिए सामाजिक सुरक्षा, पक्की नौकरी, समान काम के बदले-समान वेतन की मांग लेकर आए इन लोगों की संख्या महापड़ाव के आख़री दिन भी इतनी थी कि पूरा का पूरा संसद मार्ग लाल दिख रहा था. रह-रहकर नारेबाज़ी हो रही थी. मंच से दूर महिलाओं की एक गोष्ठी में एक महिला पूरी ताक़त से लगाए जा रहे नारे को दुहरा रही थी. वो जानती थी कि उसकी आवाज बहुत दूर तक नहीं जाएगी और दब जाएगी, लेकिन वो फिर भी पूरी तन्मयता से आवाज बुलंद कर रही थी.
संसद मार्ग पर वरिष्ठ वामपंथी नेता, राज्यसभा सदस्य और सीटू के महासचीव तपन सेन भी मौजूद थे. जब हमने उनसे इस महापड़ाव के मकसद के बारे में पूछा तो वो पहले इस बारे में अपनी नाराजगी दर्ज कराई कि इतनी बड़ी संख्या में देशभर से लोग आए हुए हैं और मीडिया इस बारे में कुछ दिखा नहीं रहा, छाप नहीं रहा.
फिर हमने उनसे महापड़ाव के मक़सद और कामयाबी के बारे में पूछा तो बोले, ‘मकसद तो आप उन लाखों लोगों से ही पूछिए जो देशभर से उपस्थित हुए हैं और आज भी अपनी उपस्थिति दे रहे हैं. वो बेहतर बताएंगे. रही बात कामयाबी की तो वो इतनी जल्दी नहीं मिलती. हम इस महापड़ाव के द्वारा रूलिंग पार्टी को यह बताना चाहते हैं कि अगर जन समस्याओं को, कामगारों के हितों को और नजरंअन्दाज किया गया तो देश में बड़ा आंदोलन होगा. हम ना तो अपने अधिकार छोड़ेंगे और ना हीं इन्हें सबकुछ निजी हाथों में देने देंगें.