
इसी 19 जून को एक ईसाई एनजीओ के कार्यकर्ता, पांच आदिवासी महिलाओं ने अपने तीन पुरुष साथियों के साथ झारखंड के खूंटी जिले के बुरुडीह कोचांग गांव के एक ईसाई मिशनरी स्कूल में मानव तस्करी के खिलाफ अपना नुक्कड़ नाटक अभी शुरू ही किया था कि छह हथियारबंद आ धमके और उन्हें अगवा करके ले गए. 5 किमी दूर जंगल में महिलाओं के साथ बलात्कार किया, बुरी तरह मारा-पीटा और पुरुषों को जबरन पेशाब पिलाई.
स्थानीय पुलिस के मुताबिक, स्कूल के प्रिंसिपल फादर अल्फोंसो आईन और दो नन ने बलात्कार की शिकार महिलाओं से मामले को रफा-दफा करने के लिए कहा. मगर उनमें से एक ने अगले ही दिन अपनी चुप्पी तोड़ दी.
इस मामले में कैथोलिक पादरी और दो संदिग्धों को गिरफ्तार किया गया. झारखंड के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक आर.के. मलिक ने ऐलान किया कि संदिग्ध हमलावर माओवादी गुट पीपल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएलएफआइ) के सदस्य और आदिवासी स्वायत्तता के लिए चल रहे 'पत्थलगड़ी आंदोलन' के समर्थक हैं.
यह आंदोलन राज्य सरकार के लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा है और अधिकारियों को आदिवासी गांवों में घुसने से रोक रहा है.
मलिक ने कहा, ''पत्थलगड़ी आंदोलन का विरोध कर रहे लोगों को डराने-धमकाने की गरज से इस जुर्म को अंजाम दिया गया. लगता है कि खूंटी में आंदोलन के शीर्ष नेताओं में से एक जोहान जोनास टिडु ने अगवा और बलात्कार करने की पूरी योजना बनाई थी.''
इस बीच, टिडु ने इंडिया टुडे को बताया कि पुलिस का दावा झूठा है. उसने कहा, ''पत्थलगड़ी आंदोलन आदिवासी समुदायों को एकजुट कर रहा है, उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर रहा है. यह हमें बदनाम करने की साजिश है. हम भी दोषियों की तलाश कर रहे हैं और उन्हें सजा देंगे.''
इस वहशियाना वारदात को लेकर भले उलझन बनी हुई है लेकिन ये आरोप-प्रत्यारोप राज्य में बढ़ रहे तनाव की ओर इशारा करते हैं. इससे अलग-थलग पड़े आदिवासी समुदायों को राज्य प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोलने का मुद्दा मिल रहा है, जो अपनी हर नाकामी के लिए माओवादियों, पत्थलगड़ी और ईसाई मिशनरियों से खतरा बता देता है.
खूंटी की वारदात ने राज्य सरकार को इस 'तिहरे खतरे' का हौवा खड़ा करने का मौका दे दिया है लेकिन इससे सरकार की नाकामियों और स्थानीय समुदायों से अलगाव पर भी रोशनी पड़ती है.
यह मुहिम सिर्फ झारखंड तक ही सीमित नहीं है. ये एकदम नए विद्रोह की चिनगारियां हैं, जो समूचे देश के आदिवासी समुदायों को अपने आगोश में ले रही हैं. इसकी लौ पश्चिम में महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के रास्ते झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा तक पहुंच रही है.
इसमें में जो चीज आग में घी का काम कर रही है, वह है 1996 के पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार) कानून या पेसा के प्रावधानों को ठीक ढंग से लागू करने में एक के बाद एक सरकारों की नाकामी.
इस कानून के जरिए संविधान में बताए गए तमाम 'अनुसूचित इलाकों' में जमीन अधिग्रहण के साथ-साथ वन संसाधनों के हक के मामलों में फैसलों का अंतिम अधिकार आदिवासी ग्राम सभाओं को दिया जाना था.
आदिवासियों की नाराजगी का सबब यह भी है कि 2006 के वन अधिकार कानून के साथ हर तरीकों से छेड़छाड़ की जा रही है और सरकारी तथा सियासी धड़े आदिवासियों की पहचान को दबाने के लिए छल-कपट भरी कोशिशें कर रहे हैं.
इन छह में से पांच राज्यों में 2018 और 2019 में विधानसभा चुनाव होने हैं इसलिए राज्य सरकारें और खासकर भाजपा के लिए आदिवासी विद्रोह की यह सुगबुगाहट खतरे की घंटी की तरह है. फिलहाल ये आंदोलन बिखरे-बिखरे और अलग-अलग लग रहे हैं लेकिन यह सांस्कृतिक पहचान के एक तार से जुड़ता है और जमीन को लेकर आदिवासी अधिकारों का साझा हित भी जुड़ा हुआ है.
महाराष्ट्र में नासिक के प्रोफेसर अशोक बागुल की अगुआई में महाराष्ट्र राज्य आदिवासी बचाओ अभियान (एमआरएबीए) आदिवासी पहचान की लौ जगा रहा है. यह 'मूल निवासी' कहे जाने वाले आदिवासी समुदायों में एकजुटता की मुहिम चला रहा है.
2017 से एमआरएबीए आदिवासी विवाह का आयोजन कर रहा है, जहां रावण को मुख्य देव के रूप में पूजा जाता है और साक्षी बनाया जाता है. बेगुल कहते हैं, ''हमारा पक्का मानना है कि हम इस देश केमूल निवासी हैं और बाकी बाहर से आए हैं.'' लेकिन इस भदेस दावे में असली टकराव के बीज छुपे हुए हैं.
जंगल की जमीन पर करीब 50,000 आदिवासियों के दावे महाराष्ट्र सरकार की मंजूरी की बाट जोह रहे हैं. मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस का मानना है कि पिछले दो साल में ऐसे 20,000 दावों को मंजूरी दी जा चुकी है. हालांकि वे यह भी कबूल करते हैं कि वन विभाग ने दावों को निपटाने में गड़बड़ी की हो सकती है और आदिवासियों को उनके जायज दावे के मुकाबले कम जमीन दी गई हो सकती है.
17 मई को सर्वहारा जन आंदोलन (एसजेए) की उल्का महाजन की अगुआई में सैकड़ों आदिवासियों ने मुंबई में प्रदर्शन किया. वे महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के वास्ते जमीन का अधिग्रहण करने से पहले स्थानीय ग्राम सभाओं से मशविरा नहीं करने के लिए फड़नवीस सरकार की मुखालफत कर रहे थे.
महाजन सरकार के इस दावे को चुनौती देती हैं कि पेसा कानून का पालन किया गया है. वे कहती हैं, ''पेसा के नियम-कायदे तय करने में 15 साल लग गए और अब उस कानून को भी कमजोर किया जा रहा है.'' वे यह भी आरोप लगाती हैं कि कई मामलों में ग्राम सभाओं की अनिवार्य मंजूरी लेने में 'फर्जीवाड़ा' किया गया.
वन अधिकार कानून को लेकर ढीला-ढाला रवैया उत्तर महाराष्ट्र में बहुत साफ दिखाई देता है. यहां वन संसाधनों पर आदिवासियों के पारंपरिक अधिकार उनसे छीनकर जंगल महकमे को दे दिए गए हैं.
लोक संघर्ष मोर्चे की एक्टीविस्ट प्रतिभा शिंदे इसे आदिवासी समुदायों में बेचैनी बढ़ने की मुख्य वजह बताती हैं.
एसजेए की महाजन भी उनसे इत्तेफाक रखती हैं. वे कहती हैं कि आदिवासी ग्रामीणों को उनके इलाकों से गुजरने वाली सड़कों का कोई फायदा नहीं मिल रहा है.
रायगढ़ और थाणे के आदिवासी इलाकों के 15 बड़े बांधों की तरफ भी इशारा करते हुए वे कहती हैं, ''इनका पानी मुंबई, थाणे और नवी मुंबई सरीखे बड़े शहरों को चला जाता है, जबकि स्थानीय लोग बरसों से पानी की कमी से जूझते आ रहे हैं.''
महाराष्ट्र का लोक निर्माण महकमा अपने 16,000 करोड़ रु. के सालाना बजट का बड़ा हिस्सा आदिवासी विकास पर खर्च करता है, जिसके तहत आदिवासी इलाकों में सड़कें बनाई जाती हैं.
राज्य के आदिवासी विकास मंत्री विष्णु सावरा ने सलाह दी थी कि पीडब्ल्यूडी की परियोजनाओं के लिए पहले आदिवासी विकास महकमे से मंजूरी ली जाए, पर इस सुझाव को बट्टे खाते में डाल दिया गया.
महाजन और शिंदे, दोनों राज्य सरकार के अप्रैल के उस फैसले की आलोचना करती हैं, जिसमें उसने आदिवासी छात्रावासों में मेस बंद कर दिए और इसकी बजाए छात्रों को डीबीटी (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) के जरिए नकद भुगतान देने की शुरुआत की थी. उनका कहना है कि यह रकम बमुश्किल ही छात्रों को वक्त पर मिल पाती है.
आदिवासी एक्टीविस्ट महाराष्ट्र सरकार के 2016 के एक सर्कुलर का जिक्र करते हैं, जिसके जरिए 'व्यापक राष्ट्रीय हित' वाली परियोजनाओं के वास्ते जमीन का अधिग्रहण करने के लिए ग्राम सभाओं से मशविरे की जरूरत को खत्म कर दिया गया है.
इतना ही नहीं, 2017 में सरकार ने तीन आदिवासी पंचायतों—अक्कलकुवा, तालोदा और धड़गांव—का दर्जा बढ़ाकर उन्हें नगर परिषद बना दिया. नतीजा यह हुआ कि जिन आदिवासी नुमाइंदों को पंचायतों की अगुआई करने का संवैधानिक हक था, इन नए बनाए गए नगर निकायों में उनकी बात का कोई वजन ही नहीं रह गया.
मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदाय भी इतने ही नाराज हैं. उन्होंने खुद को सियासी तौर पर असरदार समूहों में संगठित किया है और जय आदिवासी युवा शक्ति (जेएवाइएस)—और बाज दफे पत्थलगड़ी आंदोलन सरीखे खुले तौर पर उग्रवादी संगठनों—की शक्ल में लामबंद किया है.
35 बरस के एक डॉक्टर हीरा अलावा 2016 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को तिलांजलि देकर मध्य प्रदेश के आदिवासी जिले धार के खूंटी कस्बे में जेएवाइएस में लौट गए थे, जिसे उन्होंने ही 2012 में बनाया था.
वे अपने इस संगठन में लाखों सदस्यों के होने का दावा करते हैं. एक और साथी भील अरविंद मुजाल्दा भी अलावा के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. उनकी बिरसा ब्रिगेड आदिवासी नौजवानों के लिए कोचिंग क्लासें चलाती है.
पुलिस अफसर और भू राजस्व अधिकारी के तौर पर काम कर चुके मुजाल्दा उन बेशुमार बेनामी सौदों की तरफ इशारा करते हैं जिनके जरिए पाटीदारों (बाहरी लोगों) ने आदिवासी जमीन पर कब्जा कर लिया है. वे कहते हैं, ''आदिवासियों को अपनी नियति खुद तय करनी होगी.'' उनकी कोचिंग कक्षाओं का मकसद आदिवासी नौजवानों को फायदेमंद सरकारी रोजगारों के लिए तैयार करना है.
अलावा मानते हैं कि आधे-अधूरे लागू किए गए पेसा कानून ने आदिवासी समुदायों को और ज्यादा असुरक्षित और कमजोर बना दिया है. वे आदिवासी इलाकों में सामूहिक विवाह करवाने के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को ब्राह्मणवादी व्यवस्था थोपने की कोशिश करार देते हैं और विरोध करते हैं.
अलावा आदिवासी संस्कृति के साथ छेड़छाड़ करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और चर्च को भी दोषी ठहराते हैं. वे कहते हैं, ''झाबुआ में मिशनरियों ने हमारे देवताओं को बेदखल कर दिया है और गायत्री परिवार और जय गुरुदेव सरीखे संगठन आदिवासियों से मांस और शराब छोड़ने को कह रहे हैं.''
जेएवाइएस दावा करता है कि महाराष्ट्र की तरह मध्य प्रदेश में भी जमीन अधिग्रहण के लिए आदिवासी ग्राम सभाओं से सलाह-मशविरा करने की अनिवार्य प्रक्रिया को धोखाधड़ी से हथिया लिया गया है. अलावा कहते हैं कि आने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में उनका संगठन आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी 47 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगा या दूसरों को समर्थन देगा.
संगठन तकरीबन 50 दूसरी सीटों पर भी उम्मीदवारों का समर्थन करेगा, जहां 20 फीसदी से ज्यादा आदिवासी मतदाता हैं. हालांकि वे भाजपा और कांग्रेस, दोनों के खिलाफ हैं, पर संगठन भगवा पार्टी को अपना मुख्य विरोधी मानता है.
आरएसएस-भाजपा की 'पन्ना प्रमुख' (मतदाता सूची में दर्ज मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए जिम्मेदार) बनाने की रणनीति का मुकाबला करने के लिए मुजाल्दा 'आधा पन्ना प्रमुखों' को खड़ा करने का मंसूबा बना रहे हैं.
जेएवाइएस पिछले अक्तूबर में हुए छात्र संघों के चुनावों में कामयाबी दर्ज करवा चुका है—धार जिले में छात्र परिषदों में उसके नौ अध्यक्ष और 162 सदस्य जीतकर आए थे. राज्य सरकार के तमाम कार्यक्रमों में वह 'वनवासी' शब्द को 'आदिवासी' शब्द से बदलवाने में भी कामयाब रहा है.
मध्य प्रदेश में कुक्षी से कोई 50 किमी दूर उकाला में अलावा फेसबुक लाइव के जरिए आदिवासी लड़कों और लड़कियों के साथ जुड़कर पता लगाते हैं कि उन्हें कल्याणकारी योजनाओं के फायदे मिल रहे हैं या नहीं.
वे कहते हैं, ''पूरे जिले के आदिवासी (छात्र) होस्टलों में महज 50 सीटें हैं. (यहां तक कि) लड़कियों को भी खुद अपने लिए रहने की जगह खोजनी पड़ती है. फिर होस्टलों में पानी की दिक्कत और सुरक्षा के मसले भी हैं ही.''
पूरबी मध्य प्रदेश में आदिवासियों का गुस्सा खुल्लमखुल्ला आक्रामक मुहिमों में लामबंद हो रहा है. छत्तीसगढ़ के पूर्वी सीमांत पर बसे सूरजपुर और जशपुर में शुरू हुआ पत्थलगड़ी 'ग्राम स्वायत्तता' आंदोलन पड़ोसी झारखंड तक फैल गया लगता है, जहां वह खूंटी, गुमला और सरायकेला-खरसवां जिलों में तेजी से फैल रहा है.
इसने सरकार के अधिकार क्षेत्र को पूरी तरह चुनौती देने की शक्ल अख्तियार कर ली है. 100 से ज्यादा आदिवासी गांवों में पत्थरों पर इलाके को आजाद घोषित करने वाली इबारतें लिख दी गई हैं. सरकारी अफसरों के इलाके में घुसने पर पाबंदी लगा दी गई है और 'बाहरी लोगों' को आगाह कर दिया गया है कि वे यहां न तो रोजगार की तलाश में आएं और न ही कारोबार कायम करने की कोशिश करें.
आदिवासियों की 26.2 फीसदी से ज्यादा आबादी वाले झारखंड सूबे में हाल के दिनों में आदिवासी आबादी के बड़े हिस्सों में सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ा है. इसकी एक मिसाल जमीन के अधिग्रहण, पुनर्वास और पुर्नस्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता (झारखंड संशोधन) कानून 2017 के खिलाफ उनका विरोध प्रदर्शन है.
यह नया कानून—जिसमें विकास परियोजनाओं के लिए जमीन की मंजूरी देने से पहले 70 फीसदी जमीन मालिकों की इजाजत लेने की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है—तेजी से सरकार के प्रति आदिवासी समुदाय के शक-शुबहे को बढ़ाने वाला एक और बड़ा मुद्दा बन सकता है.
हालांकि भाजपा के राज्य अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ जोर देकर कहते हैं कि यह कानून 'पॉजिटिव' ग्रोथ का रास्ता साफ करेगा, पर विपक्ष के नेता हेमंत सोरेन ने इसे वापस लेने की मांग की है ''वरना हम अलग राज्य की मांग सरीखा जनांदोलन चलाएंगे,''
झारखंड दिशोम पार्टी (जेडीपी) और 40 आदिवासी धड़ों के उससे जुड़े सामूहिक संगठन आदिवासी सेंगेल अभियान ने इस कानून के खिलाफ 18 जून को राज्य भर में बंद का आह्वान किया. झारखंड मुक्ति मोर्चे ने भी इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ने की धमकी दी है.
हालांकि झारखंड में आदिवासियों की बेचैनी सियासी मंचों तक महदूद नहीं है. वह उससे भी आगे चली गई है. गोड्डा में अडानी के प्रस्तावित बिजली कारखाने के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ जो आंदोलन चल रहे हैं, वे आदिवासी और गैर-आदिवासी, दोनों प्रदर्शनकारियों को अपनी तरफ खींच रहे हैं.
आदिवासी-गैर-आदिवासी बंटवारा पत्थलगड़ी की पट्टी में ज्यादा साफ दिखाई देता है. यहां एक्टीविस्ट ग्राम सभाओं को सबसे ऊपर रखने की वकालत कर रहे हैं और आदिवासियों से विधानसभा और लोकसभा चुनावों का बहिष्कार करने का आह्वान कर रहे हैं.
रघुबर दास सरकार ने आदिवासियों को साथ लेने के लिए कुछ कदम बेमन से उठाए जरूर हैं. राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू परंपरागत आदिवासी मुखियाओं को 'मुख्यधारा' में लाने की पहल कर रही हैं लेकिन इसका खास असर होता नहीं दिखता.
इस बीच राज्य सरकार ने धर्म-परिवर्तन निषेध विधेयक लागू करने से लेकर स्थानीय किरायेदारी कानून बदलने की कोशिशों जैसे अपने कई कदमों से आदिवासियों के बीच अविश्वास को बढ़ाया ही है. इस महीने पत्थलगड़ी के नेताओं ने ग्राम सभा बैंक की स्थापना की और 100 आदिवासी गांवों को पासबुक जारी की है.
बगल के छत्तीसगढ़ में पिछले महीने जशपुर जिला प्रशासन की एक टीम को आदिवासियों ने कालिया गांव में दाखिल होने से रोक दिया. पुलिस ने आठ लोगों को गिरफ्तार किया और उनके ऊपर धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी भड़काने और सरकारी अधिकारियों को अपना काम करने से रोकने की धाराएं लगा दीं.
यह घटना 18 जून को रायपुर में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की बैठक में भी बातचीत में उभरी थी.
भाजपा के स्थानीय नेता दावा करते हैं कि माओवादी आदिवासी आंदोलनों को हवा दे रहे हैं. मीडिया में आई रिपोर्टों ने सरकार के खिलाफ आदिवासियों को भड़काने में ईसाई मिशनरियों की भूमिका की तरफ इशारा किया है.
जशपुर इत्तेफाक से 1990 के दशक में तीखे 'घर वापसी' अभियान का अखाड़ा रहा है, जो दिवंगत भाजपा नेता दिलीप सिंह जूदेव ने छेड़ा था. हालांकि जशपुर की कलेक्टर प्रियंका शुक्ला दावा करती हैं कि कालिया में घटी घटना इन अफवाहों का नतीजा थी कि आदिवासियों की जमीन एक औद्योगिक परियोजना के लिए ली जा रही है. वे कहती हैं, ''स्थिति साफ कर दी गई है.''
आदिवासी परंपरा, संस्कृति और पहचान को बचाए रखने के अभियान पश्चिम बंगाल में भी जोर पकड़ रहे हैं. वहां तो भाजपा विपक्षी पार्टी है और वहां उसने उन आदिवासी संगठनों से दोस्ताना रिश्ते बना रखे हैं जो तृणमूल कांग्रेस सरकार से टकराव पर उतरे हुए हैं.
27 अप्रैल को करीब एक लाख संथाली आदिवासी 87 साल के नित्यानंद हेम्ब्रम को सुनने के लिए बांकुड़ा में जमा हुए. लोगों में 'दिशोम माझी' के नाम से लोकप्रिय हेम्ब्रम भारत जकात माझी परगना महल (बीजेएमपीएम) के मुखिया हैं.
यह पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा और असम में फैले तकरीबन 64 लाख संथालों का संगठन है. इस संगठन ने संथाली भाषा के 60 स्कूल शुरू किए हैं.
झाडग़्राम संभाग में समुदाय के बीच वयस्क शिक्षा को बढ़ावा देने वाले रघुनाथ मुर्मू मेमोरियल स्कूल ने करीब 62 बीघा सरकारी जमीन पर अनधिकृत रूप से कब्जा कर रखा है. लेकिन आदिवासी लोगों से किसी भी तरह का टकराव मोल लेने से घबरा रही सरकार ने उन्हें उस कब्जे से हटाने की कोई कोशिश अपनी तरफ से नहीं की है.
माझी आदिवासी परंपराओं को बचाए रखने की पुरजोर वकालत करते हैं. वे आदिवासियों की भारी भीड़ को संबोधित करते हुए कहते हैं, ''वक्त आ गया है कि आप लोग जाग जाएं और अपनी अंदरूनी ताकत का एहसास कर लें, वरना आपका बार-बार शोषण किया जाएगा और फिर अंत में आपको दरकिनार कर दिया जाएगा.''
माओवादी करार दे दिए जाने का खतरा सिर पर मंडराने के बावजूद बीजेएमपीएम ने तृणमूल कांग्रेस के दबावों का बड़ी कामयाबी से मुकाबला किया है. इसी तरह की धमकी का सामना करते हुए हाल ही में हुए पंचायत चुनावों में करीब एक दर्जन आदिवासी उम्मीदवारों ने अपने पर्चे दाखिल किए.
बांकुड़ा में मेलेरा गांव के मुखिया सुभाष सोरेन ने कहा, ''तृणमूल को चुनौती देते हुए हम तीन हजार लोगों के जुलूस के साथ पर्चा दाखिल करने गए.''
माझी ने अपनी निगाहें उन लक्ष्यों पर लगा रखी हैं जिन्हें 2025 तक हासिल कर लेने का उन्हें यकीन है. इनमें है सभी संथाली लोगों के लिए साक्षरता और एक स्वायत्त आदिवासी परिषद का गठन, जिसमें ओडिशा के चार और बिहार के तीन आदिवासी जिलों, झारखंड, असम के कुछ हिस्सों और पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर, बांकुड़ा, पुरुलिया और बीरभूम जिलों को शामिल किया जाए.
ओडिशा यकीनन आदिवासी जमीन पर राज्य या कॉर्पोरेट क्षेत्र के अतिक्रमण के खिलाफ आंदोलनों में अग्रणी रहा है. कालाहांडी और रायगढ़ जिलों में फैली नियमगिरि पहाडिय़ों में रहने वाले डोंगरिया कोंध समुदाय ने बॉक्साइट की तलाश में पहाड़ों में खनन के खिलाफ जो कामयाब आंदोलन छेड़ा, उसने दुनिया भर का ध्यान खींचा था (सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में खनन पर रोक लगा दी). लेकिन उसके अलावा भी राज्य में कई उल्लेखनीय आदिवासी आंदोलन हुए हैं.
हालांकि खनन के प्रस्तावों को नियमगिरि की ग्राम सभाओं ने खारिज कर दिया था लेकिन नियमगिरि पहाडिय़ों की सुरक्षा के लिए लड़ रहे आदिवासी संगठन नियमगिरि सुरक्षा समिति (एनएसएस) का आरोप है कि बहुराष्ट्रीय एल्युमिनियम कंपनी वेदांता के फायदे के लिए सुरक्षा बल अब भी उनका उत्पीडऩ कर रहे हैं.
पिछले साल 1 मई को पुलिस ने एनएसएस कार्यकर्ता दधी पुचिका की 20 साल की बहू को उठा लिया और उसे मीडिया के सामने एक समर्पण किए माओवादी के रूप में पेश कर दिया. उसके पति और तीन अन्य रिश्तेदारों को भी समर्पण किया माओवादी बता दिया गया.
खनन आधारित उद्योगीकरण पर सरकार का ध्यान अब कम हो रहा है, इसलिए यहां आदिवासी एकजुटता पड़ोसी राज्यों की तुलना में कम तीक्ष्ण है. लेकिन कई आदिवासी क्षेत्रों में समुदाय अब वन अधिकार कानून के तहत भूमि अधिकारों की मांग उठाने लगे हैं.
वैसे व्यक्तिगत वन अधिकार प्रदान करने में ओडिशा सरकार का रिकॉर्ड बाकी राज्यों की तुलना में बेहतर है. लेकिन आदिवासी लोग इस बात से नाराज हैं कि सरकार ने स्थानीय समुदायों को बहुत कम सामुदायिक वन अधिकार प्रदान किए हैं. यही कारण है कि पत्थलगड़ी आंदोलन की तर्ज पर भविष्य में अशांति की आशंका उमडऩे लगी है.
देश के बड़े इलाके में जो अलग-अलग असंतोष पनप रहा है और आंदोलन खड़े हो रहे हैं, क्या वे एक साझे आंदोलन में एकजुट हो सकते हैं जिससे केंद्र सरकार को जवाब देने पर मजबूर होना पड़ जाए? इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि भाजपा इस आदिवासी असंतोष को पहले ही 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए अपने अभियान के खिलाफ एक बड़े खतरे के तौर पर देख रही है.
अफसोस की बात यह है कि इस तरह के किसी भी खतरे का जवाब भी उसी पुरानी लकीर पर होता है जिसमें राज्य-प्रायोजित विकास परियोजनाओं के खिलाफ सामुदायिक विरोध के किसी भी स्वरूप को 'माओवादी साजिश' करार दे दिया जाता है.
इस साल चुनाव की तैयारी कर रहे छत्तीसगढ़ में इस महीने अपनी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना अलग ही संदर्भ बिंदु सामने रखाः ''मेरा मानना है कि हर तरह की हिंसा और साजिश का एकमात्र जवाब विकास है. विकास से पैदा होने वाला विश्वास किसी भी तरह की हिंसा का खात्मा कर देता है.''
उन्होंने आदिवासी कल्याण के इरादे से राज्य की खनिज संपदा के दोहन के लिए और ज्यादा राजस्व उपलब्ध कराने का भरोसा दिलाया. लेकिन इससे भविष्य को लेकर उनकी परिकल्पना को लेकर कोई संदेह नहीं रह गया.
उन्होंने कहा, ''छत्तीसगढ़ पहले जंगलों और आदिवासियों के लिए जाना जाता था, लेकिन अब वह अपनी श्स्मार्ट सिटी्य के लिए जाना जाता है.'' उनका इशारा बेशक नया रायपुर में खड़े किए गए कंक्रीट के जंगल की तरफ होगा.
लेकिन मध्य भारत के बड़े हिस्से में पनप रहा असंतोष अगर यकीनन कोई संकेत है तो कई आदिवासी समुदाय ऐसा भविष्य चाहेंगे जो उनकी पुश्तैनी जमीन और जंगल पर उनका अधिकार आश्वस्त करे.
टकराव के मुकाम
देश के मध्य की पूरी चौड़ाई को आदिवासी असंतोष ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है और राजनैतिक आंदोलन और उग्र विद्रोह, दोनों ही स्वरूप अख्तियार कर लिया है
मध्य प्रदेश
आदिवासी आबादी 21%
आदिवासियों ने या तो जय आदिवासी युवा शक्ति जैसे राजनैतिक गुट बना लिए हैं या फिर उग्र पत्थलगड़ी आंदोलन में सक्रिय है
पश्चिम बंगाल
आदिवासी आबादी 6%
भारत जकत माझी परगना महल 60 संथाली स्कूल चलाता है और पंचायत चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ खड़ा भी हुआ
ओडिशा
आदिवासी आबादी 23%
नियमगिरि पहाडिय़ों को बॉक्साइट की खानों से बचाने के लिए डोंगरिया कोंध समुदाय के कामयाब आंदोलन ने सारी दुनिया का ध्यान खींचा
महाराष्ट्र
आदिवासी आबादी 11%
सर्वहारा जन आंदोलन जैसे समूह चाहते हैं कि विकास परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण से पहले ग्राम सभाओं की मंजूरी ली जाए
झारखंड
आदिवासी आबादी 26%
पत्थलगड़ी आंदोलन सौ से ज्यादा आदिवासी गांवों में फैल चुका है. भूमि अधिग्रहण पर नया कानून आदिवासियों में अविश्वास का एक और आधार
छत्तीसगढ़
आदिवासी आबादी 31%
सूरजपुर और जशपुर जिलों में पत्थलगड़ी आंदोलन. पिछले महीने जशपुर अधिकारियों को कालिया गांव में घुसने से रोका
-साथ में किरण डी. तारे, रोमिता दत्ता और प्रियरंजन साहू
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