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जब एक सैनिक ने खुद ही काट डाली थी अपनी टांग...

सोचिए कि क्या आप दुर्घटनाग्रस्त होने पर अपनी एक टांग खुद ही काट सकते हैं? जवाब शर्तिया तौर पर ना ही होगा. लेकिन यदि वह शख्स भारतीय सेना का जवान हो तो कुछ भी संभव है...

इयान कारदोज़ो इयान कारदोज़ो
विष्णु नारायण
  • नई दिल्‍ली,
  • 05 मई 2016,
  • अपडेटेड 11:43 AM IST

जब एक सैनिक ने खुद ही काट डाली अपनी टांग...वैसे तो फौज और जंग में इतने किस्से होते हैं कि सुनते-सुनाते न जाने कितनी रातें बीत जाएं, लेकिन वे किस्से गोरखा रेजिमेंट और भारतीय सैनिकों से जुड़े हों तो फिर वे किंवदंती बन जाते हैं.
यह कहानी है इयान कारदोजो की जिन्होंने दुश्मनों से लोहा लेने और उन्हें धूल चटाने के लिए अपनी एक टांग खुद ही खुखरी से काट डाली.

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क्या है पैर काटने की कहानी?
हम इस बात को बखूबी समझ सकते हैं कि आपकी उत्सुकता इस समय चरम पर पहुंच चुकी है. दरअसल, यह जाबांज इयान कारदोज़ो की कहानी है. वे तब पांचवी गोरखा राइफल्स के मेजर जनरल थे. इस सैनिक ने साल 1965 और 1971 में भारत की ओर से युद्ध में हिस्सा लिया और दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए.
यह बात 1971 के युद्ध की है. भारतीय सेना पाकिस्तान के हेली में युद्धरत थी. उनका पैर लैंडमाइन पर पड़ा और धमाका हो गया. वहां के एक रहवासी ने उन्हें देखा और उठा कर पाकिस्तानी बटालियन के मुख्यालय ले गए. उन्होंने डॉक्टर से मॉरफीन मांगी, जो उन्हें नहीं मिल पाई. उनके पास एक खुखरी थी (धारदार चाकू - जिसे गोरखा रेजिमेंट का अहम हथियार माना जाता है). उन्होंने एक गोरखा से वह टांग काटने को कहा. लेकिन गोरखा घबरा गया. इस पर उन्होंने खुद ही अपनी टांग काट डाली.

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पाकिस्तान से नहीं लिया खून...
टांग काटने के बाद एक पाकिस्तानी डॉक्टर ने उनका ऑपरेशन किया. उन्हें खून की सख्त आवश्यकता थी, लेकिन उन्होंने पाकिस्तान के किसी शख्स का खून लेने से साफ इंकार कर दिया. अब भी उनके नाम पर बांग्लादेश में 'एक फुट बाय एक फुट' की जमीन है जहां उनकी कटी हुई टांग दबाई गई है.
अपने इसी जज्बे के दम पर आगे चलकर वे पहले ऐसे अधिकारी बने जिसने एक टांग न होने के बावजूद ब्रिगेड का नेतृत्व किया हो.

पूरा बटालियन उन्हें कारतूस साब बुलाता था...
जिस तरह आम घरों में लोगों को उपनाम दे दिए जाते हैं. ठीक उसी तरह सेना के बटालियन में भी उपनाम दिए जाते हैं. इयान कारदोजो को उनके साथी सैनिकों ने 'कारतूस साब' नाम दिया था. वे कहते हैं कि सिलहट की लड़ाई चल रही थी और वे किसी-किसी तरह आखिरी हेलिकॉप्टर से युद्धक्षेत्र में पहुंच पाये थे. उनकी बटालियन के सैनिक उन्हें खोज रहे थे.

सैनिकों ने उन्हें देखते ही कंधे पर उठा लिया और गाने लगे- 'कारतूस साब होयकि हैना ...कारतूस साब होयकि हैना.' वे सैनिक 65 के युद्ध में कारतूस साब के साथ लड़े थे. वे कहते हैं कि उन्होंने जिंदगी में बहुत कुछ देखा है. कई अवाॅर्ड जीते हैं. सेना मेडल भी जीता है लेकिन गोरखा सैनिकों द्वारा दिया गया सम्मान तो बस अद्वितीय था. आज भी कारतूस साब जीवित हैं और उनके अनुभव दिल में देशभक्ति की लौ जगाने वाले हैं.

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