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जानिए, क्यों आसान नहीं है पनीरसेल्वम की राह

अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता के निधन के बाद ओ पनीरसेल्वम तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने हैं. जयललिता के अस्वस्थ रहने के दौरान पिछले कुछ दिनों से पनीरसेल्वम ही अंतरिम मुख्यमंत्री की भूमिका में थे. पनीरसेल्वम के निर्देश के बाद कैबिनेट की मीटिंग में जयललिता की तस्वीर रखी जाती थी और जरूरी फैसले लिए जाते रहे. पनीरसेल्वम ने वादा किया था कि जयललिता जैसे ही स्वस्थ होकर लौटती हैं, वो अपनी कुर्सी छोड़ देंगे. हालांकि, अब जयललिता कभी लौटने वाली नहीं हैं. लेकिन तीसरी बार सीएम पद की शपथ लेने वाले पनीरसेल्वम की राहें आसान भी नहीं हैं.

आसान नहीं है पनीरसेल्वम की राह आसान नहीं है पनीरसेल्वम की राह

अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता के निधन के बाद ओ पनीरसेल्वम तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने हैं. जयललिता के अस्वस्थ रहने के दौरान पिछले कुछ दिनों से पनीरसेल्वम ही अंतरिम मुख्यमंत्री की भूमिका में थे. पनीरसेल्वम के निर्देश के बाद कैबिनेट की मीटिंग में जयललिता की तस्वीर रखी जाती थी और जरूरी फैसले लिए जाते रहे. पनीरसेल्वम ने वादा किया था कि जयललिता जैसे ही स्वस्थ होकर लौटती हैं, वो अपनी कुर्सी छोड़ देंगे. हालांकि, अब जयललिता कभी लौटने वाली नहीं हैं. लेकिन तीसरी बार सीएम पद की शपथ लेने वाले पनीरसेल्वम की राहें आसान भी नहीं हैं.

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सोमवार रात साढ़े 11 बजे जयललिता के निधन की पुष्ट‍ि हुई और महज दो घंटे के भीतर ही करीब डेढ़ बजे अम्मा के बेहद करीब पनीरसेल्वम ने तमिलनाडु के 19वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. हालांकि, सीएम के शपथ ग्रहण को लेकर भी कई सीनियर नेताओं ने सवाल उठाए कि आखिरी इतनी जल्दबाजी क्या थी. कहा गया कि एक सीएम से दूसरे सीएम को आसानी से सत्ता हस्तातरंण का देश में यह पहला मामला है. जयललिता के निधन की खबर मिलते ही जो जनता शोक में डूब गई थी, उन्हें अहसास भी नहीं हो रहा था कि उनका मुख्यमंत्री बदल चुका है.

तो क्या सीएम बनने से पनीरसेल्वम को जयललिता की सियासी विरासत का उत्तराधिकारी मान लिया जाए. यह अभी तक साफ नहीं हो सका है कि जयललिता का असली सियासी वारिस कौन है. पनीरसेल्वम को संसदीय दल का प्रमुख चुना गया था. हालांकि पार्टी महासचिव का पद अब भी खाली है. और ऐसी रिपोर्ट है कि अम्मा की बेहद करीबी रहीं शशिकला की नजरें इस पद पर हैं. जयललिता के निधन के बाद शशिकला का कुनबा भी राजाजी हॉल में दिखाई दिया. कहा जा रहा है कि सत्ता के लिए खींचतान हुई तो पार्टी दो फाड़ भी हो सकती है.

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जयललिता के हाथ में जब सत्ता की कमान थी तो पार्टी के बड़े बड़े फैसलों में शशिकला की भूमिका होती थी. राज्य के टॉप ब्यूरोक्रैट्स और पुलिस अधिकारियों की पोस्टिंग में शशिकला का ही हाथ है और ये अफसर शशिकला के वफादार बताए जाते हैं. कहा जाता है कि शशिकला को तमिलनाडु विधानसभा में अन्नाद्रमुक के 135 विधायकों में से करीब 100 विधायकों का समर्थन प्राप्त है. इनमें से अधिकतर थेवर समुदाय के हैं जिस समुदाय के पनीरसेल्वम और शशिकला दोनों ही हैं. राजाजी हॉल में शशिकला और उनके परिजन तो मौजूद थे ही, इस दौरान परदे के पीछे से उनके भाई भी सक्रिय हैं. कहा जाता है कि शशि‍कला के भाई पार्टी के अधिकतर विधायकों को अपने पाले में जुटाने की कोशिश में हैं ताकि विधानसभा और सरकार पर अपनी पकड़ बनाई जा सके.

वैसे तो पनीरसेल्वम इससे पहले भी दो बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. लेकिन जयललिता के बाद वाले दौर में इस बार उन्हें खुद को अम्मा का असली सियासी वारिस साबित करने के लिए ज्यादा मेहनत करनी होगी. उनके सामने पार्टी को एकजुट रखने की सबसे चुनौती है. क्योंकि अभी तक पूरी पार्टी सिर्फ एक ही नेता के ईद-गिर्द घूमती रही है. वो थीं जयललिता. यह हकीकत है कि अन्नाद्रमुक में एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके पास पार्टी के संस्थापक एमजी रामचंद्रन या फिर जयललिता जैसी लीडरशिप स्किल हो.

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75 दिनों तक जब जयललिता अपोलो अस्पताल में भर्ती रहीं तो सरकार का काम करीब करीब ठप ही रहा. कोई भी बड़ा फैसला नहीं लिया गया या कोई बड़ा ऐलान किया गया. राज्य में अभी अन्नाद्रमुक सरकार के चार साल बचे हैं. पनीरसेल्वम सरकार के सामने इस मोर्चे पर जनता का दिल जीतने की चुनौती भी है. इसके अलावा अन्नाद्रमुक 'ब्रांड अम्मा' को कितना कायम रख पाएगा, नई सरकार के सामने यह भी चुनौती है. क्योंकि इसी ब्रांड अम्मा ने पार्टी को सूबे में फिर से खड़ा करने और सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है.

अभी तक अन्नाद्रमुक हमेशा से एक सुप्रीमो के तहत काम करती रही है और जाति व समुदाय केंद्रित स्थानीय नेता इनके कहे मुताबिक काम करते रहे हैं. जयललिता के जाने के बाद शायद ऐसा नहीं होगा. पनीरसेल्वम और शशि‍कला दोनों ही एक ही समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और इस समुदाय की बड़ी आबादी दक्ष‍िणी तमिलनाडु में रहती है. कुछ ऐसे समुदाय और नेता जो अन्नाद्रमुक के प्रति वफादार रहे हैं, अब खुद को उपेक्षित महसूस कर सकते हैं. कई अन्य उपजातियां भी हैं जो अन्नाद्रमुक के बैनर तले अपना सियासी वजूद बचाए रखना चाहती होंगी. ऐसे में जयललिता के बाद पनीरसेल्वम और अन्नाद्रमुक के बाद इन तमाम समुदायों का भरोसा हासिल करना और उन्हें अपना वफादार मतदाता बनाए रखना बड़ा चैलेंज होगा.

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इनके अलावा गुड गवर्नेंस और भ्रष्टाचार पनीरसेल्वम सरकार के सामने सबसे बड़े मसले होंगे. वफादारी को छोड़ दिया जाए तो पनीरसेल्वम के पास एक चतुर राजनेता की क्वालिटी दिखाई नहीं देती. हालांकि वो भी पीएम मोदी की तरह पहले चाय बेचते थे लेकिन नरेंद्र मोदी के तौर पर उनकी जननायक की छवि मुश्किल है. बीते 15 साल के दौरान, जब से वो पहली बार सीएम बने, अब तक सियासत की दुनिया में पनीरसेल्वम के जितने दोस्त और प्रशंसक बने, उससे ज्यादा कहीं दुश्मन बने हैं. ये सारे दुश्मन एकजुट होकर पनीरसेल्वम के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं.

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