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क्या अन्ना फिर आंदोलन खड़ा कर पाएंगे?

जंतर मंतर. यही वह जगह थी जहां किशन बापट बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे ने जन लोकपाल के लिए पहला अनशन किया था.  6 अप्रैल, 2011 को. दिल्ली में अन्ना की ये पहली दस्तक थी –इतनी जोरदार कि सत्ता के गलियारे तक हिलते नजर आए. देखते ही देखते पूरा देश अन्ना के साथ हो लिया. जगह-जगह लोग – ‘मैं हूं अन्ना ’ की टोपी पहनकर सड़कों पर उतर आए.

अन्ना हजारे अन्ना हजारे
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 29 जनवरी 2015,
  • अपडेटेड 7:27 PM IST

जंतर मंतर. यही वह जगह थी जहां किशन बापट बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे ने जन लोकपाल के लिए पहला अनशन किया था.  6 अप्रैल, 2011 को. दिल्ली में अन्ना की ये पहली दस्तक थी – इतनी जोरदार कि सत्ता के गलियारे तक हिलते नजर आए. देखते ही देखते पूरा देश अन्ना के साथ हो लिया. जगह-जगह लोग – ‘मैं हूं अन्ना ’ की टोपी पहनकर सड़कों पर उतर आए.
तब उनके साथ एक मजबूत टोली हुआ करती थी टीम अन्ना. अब न वो दौर है – न ही अब वो शोर है. दिलचस्प ये है कि फिर भी अन्ना का जोश कायम है. अपने गांव रालेगण सिद्धि से अन्ना ने फिर से आंदोलन का एलान किया है. एक इंटरव्यू में अन्ना कहते हैं, "लोग अब समझ गए हैं कि उन्हें धोखा दिया गया है. वे उन्हें सबक सिखाएंगे जैसे कांग्रेस को सिखाया था."

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क्या अन्ना कर पाएंगे?
सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या अन्ना फिर से रामलीला आंदोलन जैसा कुछ कर पाएंगे. तब की टीम अन्ना में लोगों के मूड और हैबिट को पढ़ने की क्षमता थी. टीम अन्ना ने लोगों की आदत को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया. सपोर्ट के लिए उन्होंने लोगों से एसएमएस भेजने की बजाय एक खास नंबर पर ‘मिस काल‘ देने को कहा. इसमें लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. वह आंदोलन एक ऐसे दौर में चला जब लोग भ्रष्टाचार से ऊब चुके थे [मामूली फर्क भले आया हो, हालात अब भी जस के तस ही हैं]. आंदोलन के जरिए अन्ना ने लोगों में एक उम्मीद जगा दी थी. कामयाबी आमतौर पर देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करती हैं. राजनीति में जेपी आंदोलन और लगभग उसी दौर में आई अमिताभ की फिल्मों की कामयाबी के पीछे भी यही फैक्टर माने जाते हैं. अन्ना के तत्कालीन सहयोगियों ने आंदोलन को लगातार सही रास्ते पर रखा और भटकाव की गुंजाइश खत्म कर दी थी.

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शायद हां... अन्ना कर सकते हैं
उनकी छवि बिलकुल बेदाग है. लोग अन्ना की बातों पर बाकियों के मुकाबले ज्यादा यकीन करते हैं. वह महात्मा गांधी के बताए अहिंसा के रास्ते पर चलने में विश्वास करते हैं. रामलीला आंदोलन के दौरान मंच से वह बार बार अपील करते रहे कि लोग शांत रहें वरना पुलिस उन्हें टिकने नहीं देगी. लोगों ने अन्ना की बात मानी. अन्ना और लोग - दोनों मैदान में डटे रहे.
बीतते वक्त के साथ उनकी टीम बिखरती गई, लेकिन अन्ना अपनी बात पर कायम रहे. रामलीला आंदोलन के बाद भी वह हमेशा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर फोकस रहे. ये बातें अन्ना को ताकतवर बनाती हैं.

शायद नहीं... अन्ना के वश की बात नहीं
अन्ना की पूरी टीम बिखर चुकी है. अन्ना आंदोलन के आर्किटेक्ट कहे जाने वाले अरविंद केजरीवाल अब आम आदमी पार्टी के नेता हैं और दिल्ली में दोबारा मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं. उस आंदोलन में अन्ना के एक तरफ केजरीवाल नजर आते थे तो दूसरी तरफ किरण बेदी. बेदी अब बीजेपी की ओर से दिल्ली में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार हैं. अन्ना आंदोलन को सपोर्ट करने वाले योग गुरु रामदेव भी लोक सभा चुनावों में बीजेपी के साथ हो लिए जबकि पूर्व आर्मी चीफ जनरल वीके सिंह अब केंद्र सरकार में मंत्री हैं.

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केजरीवाल के पार्टी बना लेने के बाद अन्ना ने किरण बेदी और जनरल वीके सिंह के साथ आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की थी, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. बाद के दिनों में भी ऐसे एक-दो प्रयास हुए लेकिन सब के सब नाकाम साबित हुए. अन्ना कर भी क्या सकते हैं – गुजरते वक्त के साथ उम्र भी हावी हो रही है.

बंदे में है दम बशर्ते...
13 दिनों तक चले अनशन के कारण अन्ना के वजन में उस वक्त साढ़े सात किलो की कमी आ गई थी. पहले गुड़गांव के अस्पताल में उनका इलाज चला और फिर उन्होंने एक प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र पर उपचार कराया. वह अनुशासित जीवन जीते हैं. अल्प भोजन लेते हैं और नियमित तौर पर वर्क-आउट करते हैं.

तब की टीम अन्ना के केजरीवाल, किरण बेदी, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया और कुमार विश्वास ने अलग रास्ते अख्तियार कर लिये, फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अन्ना आंदोलन से जुड़े रहे लेकिन मतभेदों के चलते अलग हो गये. जस्टिस संतोष हेगड़े, स्वामी अग्निवेष और राजेंद्र सिंह ऐसे नाम हैं जो आंदोलन में कुछ वक्त साथ रहे लेकिन बाद में अपने सामाजिक कामों में व्यस्त हो गए.

अन्ना फिर से आंदोलन खड़ा कर सकते हैं – हां इसके लिए उन्हें एक टीम मैनेजर की जरूरत है जैसे पिछली बार उनके साथ केजरीवाल थे. अन्ना को एक ऐसे सहयोगी की जरूरत है तो निडर हो. मुल्क के लिए कुछ कर गुजरने का माद्दा हो. बेदाग हो. अहिंसा के रास्ते पर चलने में यकीन रखता हो.

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एकला चलो रे...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन को लेकर आम आदमी पार्टी ने समर्थन जताया है. आप नेता मनीष सिसोदिया ने कहा है कि वो एक कार्यकर्ता की तरह अन्ना के आंदोलन में उनका साथ देंगे.

रामलीला आंदोलन के दौरान नेताओं को मंच से दूर रखने की बात की जाती रही. अन्ना के पुराने साथी अब नेता हो गए हैं. इसलिए अब अन्ना को उनका सपोर्ट भी मंजूर नहीं है. अन्ना जोर देकर कहते हैं, "एकला चलो रे, मुझे किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल की कोई जरूरत नहीं है. मेरे साथ जनता है. मेरे साथ टीम नहीं होने पर मुझे दुखी क्यों होना चाहिए?"

सपना देखा... और मरने नहीं दिया
अपना अनशन खत्म करते वक्त अन्ना ने कहा था, “यह आधी जीत है। हमें अभी पूरी लड़ाई भी जीतनी है.” अपने नए आंदोलन को अन्ना शायद आजादी का तीसरा आंदोलन नाम दें.

सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना. पाश की इस लाइन से प्रेरित नजर आते अन्ना ने जो सपना देखा था – उसे अब तक नहीं मरने दिया है. ऐसे में अन्ना के समर्थकों को शायद नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं.

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