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दिल्ली के होकर क्यों रह जाते हैं यहां आने वाले लोग? 60 साल पहले ऐसी थी राष्ट्रीय राजधानी, तंबू में चलते थे स्कूल

हिंदी के मशहूर कवि इब्बार रब्बी कहते हैं, "दिल्ली आने वाले इसे छोड़कर वापस नहीं गए. रघुवीर सहाय ने किताब लिख दी 'दिल्ली मेरा परदेस' और बोले कि मैं तो वापस लखनऊ चला जाऊंगा लेकिन उन्होंने दिल्ली में ही आख़िरी सांस ली. दिनकर ने दिल्ली के ख़िलाफ़ कविता लिखी लेकिन वो भी दिल्ली को कभी छोड़कर नहीं गए."

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दिल्ली से जुड़े अनसुने क़िस्से... (तस्वीर: Getty Images)
दिल्ली से जुड़े अनसुने क़िस्से... (तस्वीर: Getty Images)

“दिल्ली आने वाले लोग कहते हैं कि मैं यहां मजबूरी में रह रहा रहूं, दिल्ली को ज़्यादातर लोग प्यार नहीं करते हैं लेकिन यहां पर आने के बाद वापस कोई नहीं जाता है. मैंने अपनी आंखों से देखा है कि जो लोग भी दिल्ली आए, वो वापस लौटकर नहीं गए. रघुवीर सहाय ने किताब लिख दी 'दिल्ली मेरा परदेस' और बोले कि मैं तो वापस लखनऊ चला जाऊंगा लेकिन उन्होंने दिल्ली में ही आख़िरी सांस ली. दिनकर ने दिल्ली के ख़िलाफ़ कविता लिखी लेकिन वो भी दिल्ली को कभी छोड़कर नहीं गए. मंगलेश डबराल कहते थे 'मैं पहाड़ों पर चला जाऊंगा' लेकिन नहीं गए. उदय प्रकाश बार-बार कहते थे कि मैं अपने गांव सीतापुर चला जाऊंगा लेकिन वो भी आज तक नहीं गए. मां रोटी खिला रही है, दूध पिला रही है, सेवा कर रही है और लोग उसी मां (दिल्ली) को गाली देते हैं. लेकिन मैंने दिल्ली से प्रेम किया और दिल्ली के लिए कई कविताएं लिखीं. मैं दिल्ली में रहने वाला अकेला कवि हूं, जिसने दिल्ली से प्रेम किया.”

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“किसी भी शर्त पर नहीं छोड़ना है,
अपनी इस व्यक्तिगत दिल्ली को,
जहाँ हर शाम सफ़रित होना है
इस बस से उस बस में मुझे.
मेरा सारा अपना दिन दे दो मुझे.
जनवरी की शामें और फरवरी की दोपहर,
और ‘दि.प.’ की बसें बस.
कुछ नहीं चाहिए मुझे और
जीने के लिए और मरने के लिए
क्योंकि बढ़ने वाला रास्ता जुटा देता है सारा सामान,
सारे प्रतीक, सारा सुर्रियलिज्म.
मैं वापस कर दूँगा ‘डाली’ की आत्मकथा की सारी प्रतियाँ.
प्रतीकों की नदियों में छोड़ दो मुझे.
छोड़ दो मुझे मेरी व्यक्तिगत दिल्ली में,
अपनी बसों में.
नहीं चाहिए स्विटज़रलैंड, श्रीनगर और दीवान-ए-ख़ास.
बसों की बनियान रहित छातियाँ,
होंठों की बेल,
बाँहों के शार्क
और पगथतियो से फूटती सैंदुर महक दे दो
दे दो मुझे.”

- इब्बार रब्बी, हिंदी कवि

Hindi Poet Ibbar Rabbi

हिंदी के मशहूर कवि इब्बार रब्बी ने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में गुज़ारे दिनों को याद करते हुए aajtak.in के साथ बातचीत में अलग-अलग दौर के क़िस्से सुनाए. इब्बार रब्बी की पैदाइश और तालीम उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ ज़िले में हुई. साल 1961 में वे नौकरी की तलाश करते हुए दिल्ली आए और यहीं के होकर रह गए. कवि के अलावा उन्होंने दिल्ली में शिक्षक की नौकरी की, पत्रकारिका में हाथ आजमाया. क़रीब 64 साल से उनकी आंखें दिल्ली के अलग-अलग दौर को देख रही हैं.

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इब्बार रब्बी कहते हैं, “मैं सरोजिनी नगर के एक सरकारी स्कूल में हिंदी पढ़ाया करता था. उस वक़्त तंबू में स्कूल चला करते थे. दिल्ली में पंजाब के लोग बहुत रहते थे, स्कूलों में भी पंजाबी छात्र ज़्यादा थे. कुछ दिनों बाद तंबू वाला स्कूल बिल्डिंग में चला गया. मेरा कवि का स्वभाव था, इसलिए मैं कभी नौकरी की परवाह नहीं किया करता था. अचानक प्रिंसिपल रिटायर हुए और स्कूल में नए प्रिंसिपल आए. मैं बिल्कुल बेफ़िक्र स्वभाव का हुआ करता था, एक दिन मैं स्कूल गया और मेरे शर्ट का बटन टूटा हुआ था. प्रिंसिपल ने बिना मेरा नाम लिए मुझे इस बात के लिए तंज़ किया. इसके बाद मैंने टीचर पद से इस्तीफ़ा दे दिया.”

delhi laal quila
(तस्वीर: Getty Images)

इब्बार रब्बी के अंदर इस्तीफ़े देने के फ़ैसले के लिए निडरता कहां से आई, वे इसका भी ज़िक्र करते हैं... 

“दिल्ली में फ्रीलांसिंग बहुत आसान हुआ करती थी. बाहर से जो लोग भी आते थे, उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं होती थी. वे एमए, बीए कुछ भी पढ़ाई किए हों, काम मिल जाया करता था. रेडियो के लिए बच्चों की कहानी लिखने पर ₹20 मिल जाते थे. हम कविताएं पढ़कर पैसा कमा लेते थे. हंग्री, रूस, अमेरिका, सऊदी अरब, कुवैत, ईराक, ईरान जैसे देशों की एंबेसी में ट्रांसलेशन का काम मिल जाया करता था. काम के बाद फ़ौरन पैसे मिल जाते थे. दिल्ली में लेखन से जुड़ा हुआ कोई भी शख़्स भूखा नहीं मरता था. यही सब वजहें थीं कि मुझे नौकरी छोड़ते वक़्त कुछ सोचना नहीं पड़ा.”

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(तस्वीर: Getty Images)

84 के दंगों के वक़्त दिल्ली का नज़ारा

“मैंने पत्रकारिता की नौकरी की, जिसकी वजह से ख़बरों के ज़रिए पूरी दुनिया से जुड़ने का मौक़ा मिला. 84 के दंगे हुए, मैं फ़ोटोग्राफ़र को लेकर पुरानी दिल्ली, चांदनी चौक, मोरी गेट इलाक़ों में घूमा. मैंने अपनी आंखों से टायर जलते और लोगों को मरते हुए देखा.”

“एक वक़्त आया जब मैं कुछ दिनों के लिए ग़ाज़ियाबाद रहने लगा था. मैं अपने घर से पैदल ही ग़ाज़ियादाबाद स्टेशन आ रहा था और उसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी लेकिन मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी. ट्रेन में बैठकर मैं दिल्ली आया, हर तरफ़ कर्फ़्यू लगा हुआ था. मुझे मालूम नहीं था कि दंगों का माहौल है. ITO पर मेरा दफ़्तर था, जब मैं वहां पहुंचा तो मेरे साथियों ने पूछा कि तुम दंगों के माहौल में आ कैसे गए.”

जब दिल्ली में दुकानदार भी बोलता था अंग्रेज़ी 

“मैं अलीगढ़ जैसे छोटे शहर से दिल्ली आया था. दिल्ली में दुकानदार भी अंग्रेज़ी में बातें किया करते थे. दुकानों के नाम और सड़कों पर लगे हुए साइनबोर्ड पर भी अंग्रेज़ी लिखी होती थी. इसके पीछे की वजह ये थी कि राजधानी में मद्रास, कश्मीर, मराठी हर तरह के लोग रहते हैं.”

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ये है असली दिल्ली…

दिल्ली के लोगों पर बात करते हुए इब्बार रब्बी कहते हैं, "दिल्ली के लोगों में इस बात का गर्व होता है कि वे दिल्ली के रहने वाले हैं. वहीं, बाहर से आने वाले लोग यहां के बारे में जानने के लिए उत्सुक होते हैं और जगहों को एक्सप्लोर करते हैं. मुझे इतिहास का बहुत शौक़ था. मुझे मालवीयनगर स्थित मोहम्मद तुग़लक का महल और रहीम का मक़बरा देखना था. दिल्ली के लोग सजावट पर बहुत ज़्यादा पैसे ख़र्च करते हैं. मेरी मौसी का दस-बारह साल का लड़का स्कूल में पढ़ता था. अगर उसको उस दौर में चार आने मिलते थे, तो वो जूते पॉलिश करवाता था. और मैं ये बात सोच भी नहीं सकता था क्योंकि आम तौर पर बच्चों को पैसे मिलने पर सिनेमा देखते थे या कुछ खाने-पीने की चीज़ें ख़रीद लेते थे. दिल्ली और अन्य शहरों के लोगों में ये फ़र्क़ होता है, ये है दिल्ली. यहां के लोगों में ये होता था. मैंने गांव और दिल्ली की संस्कृति में ये फ़र्क़ देखा. इसीलिए दिल्ली वाले आगे नहीं बढ़ते और यहां दिल्ली के बाहर वाले रूल करते हैं."

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(तस्वीर: Getty Images)

दिल्ली में ऐसे होता था बस का सफ़र

इब्बार रब्बी बताते हैं, “मैं ऑटो में नहीं बैठ पाता था, इसकी दो वजहें थीं. एक तो ऑटो में डीज़ल और पेट्रोल की गंध आया करती थी, इससे हमारा सिर चकराता था. दूसरा, जेब में पैसे कम होते थे. सबसे सस्ती बस हुआ करती थी, चार या पांच पैसों में टिकट मिला जाता था. बस में ड्राइवर के अलावा पीछे की तरफ़ एक दरवाज़ा होता था, बस में बहुत भीड़ हुआ करती थी और सब पीछे ही भागते थे क्योंकि दरवाज़ा उसी तरफ़ होता था. बस आगे की तरफ़ ख़ाली रहती थी. अगर मुझे दरियागंज जाना है, तो पता ही नहीं चलता था कि बस कब वहां पहुंची, ऐसे में कहीं और ही उतर जाते थे क्योंकि कोई बताने वाला भी नहीं होता था. कहीं कुछ लिखा भी नहीं होता था. इस वजह से मैं बस में भी नहीं चढ़ता था और ज़्यादातर जगहों पर मैं पैदल जाया करता था.”

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काग़ज़ पर बने मैप के सहारे दिल्ली भ्रमण

इब्बार रब्बी आगे बताते हैं, “दिल्ली में मेरे मौसा रहा करते थे, वो मुझे काग़ज़ पर मैप बनाकर दिया करते थे और मैं उसी के सहारे दिल्ली भ्रमण किया करता था. उस वक़्त AIIMS बन रहा था. सफ़दरजंग के मक़बरे से दिखाई देता था कि कोई इमारत बन रही है. जब मैं लोगों से पूछता था कि ये क्या बन रहा है, तो लोग बताते थे कि यह अमरीकन अस्पताल बनवाया जा रहा है. एयरपोर्ट भी सफ़दरजंग मक़बरे के पास था, जहां से सभी डोमेस्टिक प्लेन उड़ान भरा करते थे. इलाक़े में आस-पास ऊंची इमारतें नहीं हुआ करती थीं.”

“यूसुफ़ सराय में एक पेड़ हुआ करता था, उस पेड़ के नीचे तांगे खड़े रहते थे, जो क़ुतुब मीनार तक जाते थे. उस वक़्त ग्रीन पार्क, बड़ी बिल्डिंग्स, खेल गांव और हौज़ ख़ास नहीं हुआ करता था. उसके आगे मालवीयनगर हुआ करता था. आस-पास ख़ाली ज़मीन थी, जिसमें कभी खेती हुआ करती थी. मैं मालवीयनगर से सरोजिनी नगर के लिए पैदल जा रहा था और एक साइकिल सवार आदमी पीछे से आया, मुझसे पूछा कहां जाओगे, मेरे बताने पर उन्होंने मुझे साइकिल पर बैठा लिया और सफ़दरजंग अस्पताल के पास छोड़ दिया, इसके बाद मैं पैदल अपने घर आ गया. मैंने पूरी दिल्ली को पैदल टहलकर देखा है.”

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(तस्वीर: Getty Images)

जब दिल्ली में चलती थी फटफट और ट्राम

“दिल्ली में एक वक़्त ऐसा भी था, जब फटफट चला करती थी. वो चांदनी चौक से दिल्ली गेट, इरविन अस्पताल, मिंटो रोड, कनॉट प्लेस होते हुए चलती थी. उसमें सिर्फ़ चार लोग बैठा करते थे. फटफट का फ़ायदा ये था कि आप जहां भी कहोगे, वहां उतार दिया जाएगा. उस पर आवाज़ बहुत आती थी. इसके अलावा, दिल्ली में ट्राम भी चला करती थी लेकिन वो जल्द ही बंद हो गई और ख़ाली उसकी पटरियां बची रह गईं थीं.”

जब दिल्ली में पहली बार बनी जनसंघ की सरकार

दिल्ली की सियासत का ज़िक्र करते हुए इब्बार रब्बी बताते हैं, “साल 1966 में दिल्ली में पहली बार जनसंघ की सरकार बनी और विजय कुमार मल्होत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद बने. उस वक़्त दिल्ली में कोई मुख्यमंत्री पद नहीं होता था. सरकार बनने के बाद लोगों को अलग-अलग ज़िम्मदारियां दे दी गईं. जनसंघ के जीतने के पीछे वजह थी दिल्ली में बड़ी तादाद में पंजाबियों का होना. दंगों के बाद लोग पंजाब से दिल्ली आए थे और उनके मन में कांग्रेस के ख़िलाफ़ बहुत ग़ुस्सा था. यहां पर ग़ौर करने वाली बात ये है कि दिल्ली में जनसंघ की सरकार बनने के बाद भी कोई भी आदमी ये नहीं कहता था कि मैं जनसंघ का सपोर्टर हूं क्योंकि लोग घृणा करते थे, इसलिए लोग ख़ुद को जनसंघ का सपोर्टर बताने से डरते थे. इसके पीछे की वजह ये थी कि इन लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में कभी हिस्सा नहीं लिया था. ये लोग गांधी, नेहरू के विरोधी हुआ करते थे, अंग्रेज़ इनके दुश्मन नहीं थे. सावरकर ने अंग्रेज़ों से लिखकर माफ़ी मांगी थी. सावरकर ने मांग किया था कि मुसलमानों को अलग स्टेट दिया जाए. इसलिए लोग घृणा करते थे.”

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(तस्वीर: Getty Images)

जब चुनावी पोस्टर में पहली बार छपी तस्वीर 

“1966 के दौरान पोस्टर्स पर नेताओं की तस्वीर नहीं हुआ करती थी, सिर्फ़ चुनाव निशान हुआ करता था. उस वक़्त कांग्रेस का चुनाव निशान ‘बैलों की जोड़ी’ और जनसंघ का चुनाव चिन्ह ‘दीपक’ हुआ करता था. पहली बार जनसंघ के नेता मनोहर लाल सोंधी की तस्वीर पोस्टर में छपवाई गई. इसके पहले किसी नेता की तस्वीर पोस्टर में नहीं छपवाई गई थी और कमाल ये हुआ कि बिना किसी चुनावी भाषण के सिर्फ़ पोस्टर के दम पर एमएल सोंधी चुनाव जीतने में कामयाब हुए. उसके बाद से ही चुनावी पोस्टर्स में तस्वीरें छपने का चलन शुरू हो गया.”

लाल क़िले का वो कवि सम्मेलन…

इब्बार रब्बी मौजूदा दौर और 70 के दशक में होने वाले कवि सम्मेलनों की तुलना करते हैं और कहते हैं, "सत्तर के दशक में लाल क़िले पर कवि सम्मेलन हुआ करता था. दिनकर, महादेवी वर्मा, शिव मंगल सिंह सुमन, बच्चन, नीरज, मैथिलीशरण गुप्त जैसे दिग्गज कवि आया करते थे. उस वक़्त कवि सम्मेलनों में चुटकुले नहीं हुआ करते थे, बल्कि अच्छी और गंभीर कविता हुआ करती थी. अब अच्छी कविता कहां होती है. पहले जब कवि अपनी कविता पढ़ते थे, तो सामने बैठे लोग सोचने पर मजबूर हो जाया करते थे. अब जनता को आकर्षित करने और तालियां हासिल करने के लिए लोग हल्की कविताएं ज़्यादा करते हैं. कवि को सत्ता का समर्थक नहीं बल्कि विरोधी होना चाहिए.”

 
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