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बीते कुछ महीनों से मध्य पूर्व जंग का अखाड़ा बना हुआ है. गाजा में हमास और इजरायल के बीच तो छह महीने से जंग चल ही रही है. इस बीच अब ईरान और इजरायल के बीच भी युद्ध का खतरा बढ़ गया है.
ईरान ने 14 अप्रैल की रात को इजरायल पर 300 से ज्यादा मिसाइलों और ड्रोन से हमला किया था. इजरायल का दावा है कि उसने ईरान से आईं 99 फीसदी मिसाइलों और ड्रोन को मार गिराया है. ईरान का कहना है कि उसका मकसद पूरा हो गया है और अब और हमला करने की जरूरत नहीं है. लेकिन इजरायल का कहना है कि ईरानी हमले का जवाब दिया जाएगा.
ईरान ने ये हमला 1 अप्रैल को सीरिया की राजधानी दमिश्क में उसके कॉन्सुलेट पर हुई एयरस्ट्राइक के जवाब में किया था. कॉन्सुलेट पर हुए हमले में ईरानी सेना के टॉप कमांडर की मौत हो गई थी.
इस हमले पर इजरायली सेना के प्रवक्ता रियर एडमिरल डेनियल हगारी ने कहा कि हम जो वक्त चुनेंगे, उसी समय जवाब देंगे.
इन सबके बीच अब ईरान और इजरायल का तनाव अब क्षेत्रीय संघर्ष के अलावा शिया और सुन्नी की लड़ाई में भी तब्दील होता नजर आ रहा है. सुन्नी बहुल खाड़ी देश शिया बहुल ईरान के हमले की न सिर्फ निंदा कर रहे हैं, बल्कि अमेरिका और इजरायल का साथ भी दे रहे हैं.
मध्य पूर्व में शिया-सुन्नी
एक अनुमान के मुताबिक, दुनियाभर में 1.5 अरब से ज्यादा मुसलमान हैं. इनमें से लगभग 20 फीसदी मुस्लिम मध्य पूर्व और खाड़ी देशों में रहते हैं. इनमें भी सबसे ज्यादा आबादी सुन्नी मुसलमानों की है.
मिस्र, जॉर्डन, सऊदी अरब जैसे मुल्कों में सुन्नी आबादी 90 फीसदी से ज्यादा है. ईरान की 90 से 95 फीसदी आबादी शिया मुस्लिमों की है. इसके अलावा इराक, कुवैत, यमन, लेबनान, कतर और सीरिया जैसे देशों में शियाओं की अच्छी-खासी आबादी है.
ईरान खुद को शिया मुसलमानों के 'लीडर' के तौर पर पेश करने की कोशिश करता है. और मध्य पूर्व में अपना दबदबा बनाए रखने के लिए शिया बहुल देशों के चरमपंथी संगठनों का समर्थन करता है.
शिया और सुन्नी के बीच संघर्ष मजहबी है. दोनों ही कुरान और शरीयत को मानते हैं. हालांकि, इसके बावजूद प्यू रिसर्च का एक सर्वे बताता है कि ज्यादातर सुन्नी शियाओं को मुस्लमान नहीं मानते.
दोनों के बीच ये संघर्ष पैगम्बर मोहम्मद की मृत्यु के बाद से ही जारी है. पैगम्बर मोहम्मद की मृत्यु के बाद शिया एक ओर हजरत अली इब्न अली तालिब को तो सुन्नी अबू बकर को अपना 'खलीफा' मानते हैं.
शिया और सुन्नी के बीच संघर्ष की असली वजह 'खलीफा' को लेकर है. सुन्नी उन सभी को पैगंबर मानते हैं, जिनका जिक्र कुरान में है. लेकिन उनके लिए आखिरी पैगंबर मोहम्मद ही थे. जबकि, शिया दावा करते हैं कि पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के बाद उनके दामाद अली को ही खलीफा घोषित किया जाना चाहिए था. मुसलमानों का आखिरी नेता या खलीफा किसे होना चाहिए, इसे लेकर ही शिया और सुन्नी में संघर्ष होता रहता है.
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शिया-सुन्नी संघर्ष में तब्दील हो रहा मध्य पूर्व?
लगभग साढ़े चार दशकों पहले तक ईरान के इजरायल और अमेरिका से अच्छे-खासे संबंध हुआ करते थे. लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद सब बदल गया. ईरान अमेरिका को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है. जबकि, इजरायल को भी बड़े खतरे के रूप में देखता है.
इसलिए मध्य पूर्व में अपना दबदबा बरकरार रखने के लिए ईरान ने कथित तौर पर प्रॉक्सी युद्ध छेड़ रखा है. इसके जरिए ईरान मध्य पूर्व में खासकर इजरायल में हलचल करता रहता है. हालांकि, ईरान इस प्रॉक्सी वॉर में खुद के शामिल होने की बात से इनकार करता रहा है.
गाजा पट्टी में हमास, लेबनान में हिजबुल्लाह, यमन में हूती विद्रोही, इराक और सीरिया में इस्लामिक रेजिस्टेंस जैसे चरमपंथी संगठनों को हमास का समर्थन हासिल है. हालांकि, ईरान इन सबसे इनकार करता है.
ईरान का क्या है रोल?
- हमासः फिलिस्तीन का इस्लामिक चरमपंथी संगठन है. 1987 में बना था. इस्माइल हानियेह इसका मुखिया है. इजरायल के अलावा अमेरिका समेत कई देशों ने हमास को आतंकी संगठन घोषित करके रखा है. 2007 से हमास का गाजा पट्टी पर दबदबा है. अरसे से हमास इजरायल पर हमले करते रहा है. हमास का सबसे ज्यादा समर्थन ईरान करता है. ईरान से ही हमास को सबसे ज्यादा फंडिंग होती है.
- हिजबुल्लाहः 1982 में ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स ने इस आतंकी संगठन को बनाया था. इसका मकसद ईरान में हुई इस्लामी क्रांति को दूसरे देश में फैलाना और लेबनान में इजरायली सेना के खिलाफ मोर्चा खड़ा करना था. इजरायल के खिलाफ इस जंग में हिजबुल्लाह, हमास का साथ दे रहा है. साल 2006 में भी हिजबुल्लाह ने इजरायल के साथ 35 दिन तक जंग लड़ी थी. इसमें 158 इजरायली नागरिकों की मौत हो गई थी.
- हूतीः 1980 के दशक में हूती विद्रोहियों का उदय हुआ था. हूती विद्रोही यमन में सुन्नी इस्लाम की सलाफी विचारधारा के विस्तार का विरोध करता है. 2000 के दशक में हूती विद्रोहियों ने अपनी सेना बना ली थी. ईरान को हूती विद्रोहियों का समर्थक माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि हूतियों को ईरान सीधे तौर पर समर्थन करता है. हूती विद्रोही इजरायल, अमेरिका और सऊदी अरब को अपना दुश्मन मानते हैं.
- इस्लामिक रेजिस्टेंसः इराक और सीरिया में एक्टिव है. 2003 में इराक पर जब अमेरिका ने हमला किया तो उसके खिलाफ इस्लामिक रेजिस्टेंस ने लड़ाई लड़ी. बाद में आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के खिलाफ भी इस संगठन ने लड़ाई लड़ी. चूंकि, इस्लामिक रेजिस्टेंट अमेरिका का कट्टर विरोधी है, इसलिए ईरान इसका समर्थन करता है.
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इनका समर्थन क्यों करता है ईरान?
ईरान खुलकर इजरायल का विरोध करता है. वो इजरायल को स्वतंत्र राष्ट्र भी नहीं मानता है. दरअसल, ईरान, इजरायल को अमेरिका की 'कठपुतली' मानता है. ईरान का मानना है कि अमेरिका उसके खिलाफ इजरायल का इस्तेमाल करता है.
वैसे तो फिलिस्तीन की ज्यादातर आबादी सुन्नी है, लेकिन उसके बावजूद ईरान इसका समर्थन करता है. इसके पीछे ईरान के अपने हित हैं. दरअसल, इजरायल का मुकाबला करने के लिए उसे फिलिस्तीन की जरूरत है. इसके अलावा अमेरिका और इजरायल के खिलाफ कथित प्रॉक्सी वॉर के लिए भी उसे फिलिस्तीन की जमीन की जरूरत है.
जानकारों का मानना है कि अगर ईरान खुलकर फिलिस्तीन का समर्थन करता है तो इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं है, क्योंकि मध्य पूर्व में प्रॉक्सी वॉर लड़ने के लिए उसे उसकी जरूरत है.
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ईरान कैसे बढ़ा रहा शिया-सुन्नी लड़ाई
इजरायल पर ईरानी हमले के बाद मध्य पूर्व में शिया और सुन्नी के बीच संघर्ष का खतरा भी बढ़ता जा रहा है.
इसे ऐसे समझिए कि शिया बहुल ईरान के हमले का सुन्नी बहुल सऊदी अरब, जॉर्डन और संयुक्त अरब अमीरात ने भी जवाब दिया. इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि 'अलायंस' ने एक युद्ध को टाल दिया.
इसके बाद माना जा रहा है कि मध्य पूर्व में अमेरिका की अगुवाई में एक नया अलायंस तैयार हो रहा है. वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के मुताबिक, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने अमेरिका के साथ न सिर्फ अपने हवाई क्षेत्र से जुड़ी जानकारी साझा की, बल्कि ईरानी की योजनाओं के बारे में भी बताया.
जानकार मानते हैं कि कई दशकों से मध्य पूर्व में सुन्नी बहुल देशों और ईरान के बीच तनाव रहा है. मध्य पूर्व में ईरान अपना दबदबा कायम करने की कोशिश में जुटा है, जिसे सुन्नी बहुल देश रोकना चाहते हैं. ईरान के जवाबी हमले को रोकने के पीछ मध्य पूर्व के इन तीनों की एक मंशा ये भी हो सकती है.
इतना ही नहीं, ईरान को छोड़ दिया जाए तो मध्य पूर्व के कई देशों का रवैया भी ईरान और अमेरिका के प्रति नरम रहा है. संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल के बीच चार साल पहले राजनयिक संबंध सामान्य हो गए थे. जबकि, सऊदी अरब और इजरायल के बीच संबंधों को सामान्य करने के लिए बातचीत चल ही रही थी कि हमास ने 7 अक्टूबर को हमला कर दिया.
जॉर्डन और इजरायल के बीच 1994 से संबंध सामान्य है. जॉर्डन दूसरा अरब मुल्क है, जिसने इजरायल को मान्यता दी है. इजरायल को मान्यता देने वाला पहला मुल्क मिस्र है. अब तक इजरायल को मध्य पूर्व के जितने देशों ने मान्यता दी है या संबंध सामान्य करने की कोशिश कर रहे हैं, वो सभी सुन्नी बहुल हैं.
बहरहाल, ईरान और इजरायल के बीच अभी तनाव कम होता नजर नहीं आ रहा है. इजरायल जवाबी हमला करने की बात कह चुका है. वहीं, ईरान का भी कहना है कि अगर इजरायल ने जवाबी हमला किया तो अंजाम बुरा होगा.