
अदालती कार्यवाही की पृष्ठभूमि के जरिये महिला आजादी की बात करती फिल्म 'पिंक' पर कुछ कहने से पहले कुछ जमीनी आंकड़े देख लें. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में देश की अदालतों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 12,27,187 केस ट्रायल के लिए आए. इनमें से महज 1,28,240 (करीब 10 फीसदी) मामलों का ही ट्रायल पूरा हो सका.
इससे भी बुरी बात कि इनमें सिर्फ 27,844 मामलों में ही अपराध साबित हो सका और 1,00,396 (यानी करीब 78 फीसदी) मामले खारिज हो गए और आरोपी छूट गए. यानी अपराध सिद्ध होने का दर महज 22 फीसदी. जाहिर है, देश की अधिकतर महिलाओं को न तो पिंक की तरह एक 'महानायक' वकील नसीब हो पाता है और न ही एक दृश्य में 'फलक' की बातें सुन तकरीबन रो पड़े 'न्यायाधीश'.
हां, पिंक अच्छी फिल्म है या कम-से-कम बॉलीवुड में बनने वाली अधिकतर फिल्मों की परिपाटी में तो अच्छी है ही. यह 'नो' के जिस मैसेज पर जोर देती है वह बेहद महत्वपूर्ण है. लेकिन इसकी कार्यवाही में कहीं-कहीं नाटकीयता है. फिल्म के 'महानायक' वकील को ध्यान से देखिए जरा. वह तीनों युवतियों को किस तरह घूरता है? इसका संदेश क्या है? 'सुरक्षा' ही न! मतलब युवतियां अपनी सुरक्षा के लिए कुछ 'कायदों' या एक 'घेरे' को तोड़ रही हैं.
अब मीनल के पिता को देखिए जरा. वह अपनी बेटी के साथ डटकर खड़ा रहने की बजाए एक वक्त 'शर्म के मारे' अदालत से बाहर निकल जाता है और उसकी सहेलियों से कहता है कि मीनल को अब घरे भेज देना. जाहिरातौर पर पिंक महिलाओं की आजादी की सबसे अहम और शुरुआती कड़ी 'परिवार' पर बात नहीं करती.
एनसीआरबी के मुताबिक, 2015 में महिलाओं के खिलाफ कुल 3,27,394 अपराध दर्ज हुए. इनमें सबसे ज्यादा मामले यानी करीब 38 फीसदी ( कुल 1,23,403) मामले पति या परिजनों की ओर से किए गए अत्याचार के मामले थे. यही नहीं रेप के कुल 34,651 मामले दर्ज हुए, जिनमें 33,098 (95.5 फीसदी) में आरोपी परिचित थे. जाहिर है, महिलाओं की आजादी को लेकर या उनके खिलाफ अपराध के मामले में परिवार और सगे-संबंधी और पास-पड़ोस सबसे अहम कड़ी है. इस लिहाज से 'पार्च्ड' बेहद अहम फिल्म है, जो पारिवारिक ढांचे पर भी बात करती है. 'पार्च्ड' सिर्फ महिलाओं के शोषण के जड़ पर वार करती है, 'पिंक' की तरह केवल सतह पर या बाहर सिमटी नहीं रहती है.
मुझे लगता है कि महिला आजादी का मसला बुनियादी तौर पर सामाजिक स्वीकार्यता से जुड़ा है, यह महज अदालत मसला भर नहीं है. अगर 'पिंक' ने अदालती फैसला लड़कियों के खिलाफ जाता तो? (जाहिर तौर पर देश के जमीनी आंकड़े तो ऐसा ही कहते हैं) 'पिंक' में जो बातें सिर्फ बयानों (नारे सरीखे) में सामने आते हैं, वह 'पार्च्ड' में तीनों नायिकाओं (एक विधवा, एक कथित बांझ, एक कथित वेश्या) की जिंदगी में इम्प्लीमेंट हो रहे होते हैं.
'पार्च्ड' भारतीय संस्कृति के 'महान' परिवारिक ढांचे के रेशों को उधेड़ कर रख देती है. 'पिंक' के मुकाबले 'पार्च्ड' की खासियत है कि इसमें नायिकाएं (शुरुआत में शोषण का शिकार होने के बावजूद) आखिरकार अपने फैसले खुद लेती हैं, अपनी नियति खुद तय करती हैं. वह किसी महानायक या मददगार या किसी अदालत के फैसले की बाट जोहने को मजबूर नहीं रहतीं.