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एमसीडी के उपचुनाव के ठीक एक दिन बाद केजरीवाल ने अपना पूर्ण राज्य का मुद्दा फिर से छेड़ दिया. बिल लाए तो विवाद होना तय है. संभवत मुख्यमंत्री को पता है कि इस बिल का क्या भविष्य होने वाला है, लिहाजा जब प्रेस कॉन्फ्रेस की शुरुआत हुई तो बिल से ज्यादा इतिहास की चर्चा हुई, बीजेपी-कांग्रेस को याद दिलाने की कोशिश हुई तो संघर्ष इन दोनों पार्टियों ने काफी किया, अब सिर्फ उनके संघर्ष को आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है. पिछले साल एक जनमत संग्रह कराने की सुगबुगाहट उठी थी. लेकिन इस बार 30 जून तक लोगों से दो वेबसाइट (www.fullstatehood.delhi.gov.in), (www.fullstatehood.delhi@gmail.com) पर अपनी राय देने को कहा गया है. यह भी कहा गया कि सरकार इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री से लेकर सोनिया और राहुल गांधी से मुलाकात करेगी और जरूरत पड़े तो विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया जा सकता है.
दिल्ली पर कब्जे को लेकर बयानबाजी चरम पर
सवाल यह है कि बिल में दरअसल है क्या और अगर है तो नया क्या है? पिछले डेढ़ साल से विभिन्न मुद्दों पर कभी एलजी, कभी दिल्ली पुलिस, कभी एमसीडी तो कभी केंद्र सरकार से उलझने की कहानी तो सबने देखी-सुनी, राजनीतिक बयानबाजी-तकरार को लोगों ने जाना, जो नहीं देखा या सुना, वह दर्द बड़ा है. आम आदमी पार्टी ने 2014 के चुनावों के दौरान जो वायदे किए, उनमें बिजली-पानी का मुद्दा तो शामिल था ही, साथ ही दिल्ली के मेकओवर को लेकर कई बातें कहीं गई थीं. 500 नए स्कूल, 20 नए कॉलेज, 10 हजार बस, महिला सुरक्षा के लिए कड़े उपाय से लेकर सिविक सुविधाओं पर काफी बातें कही गई थीं, पर संकट जमीन का है, जो डीडीए के पास है, संकट पुलिस से है, जो गृह मंत्रालय के अंडर है और रहा सवाल एमसीडी का, उस पर कब्जे की एक कोशिश शीला सरकार ने भी की थी, तब भी सफलता नहीं मिली थी और बात एमसीडी के तीन भाग में बंटवारे पर आकर टिक गई थी. सैलरी को लेकर एमसीडी से पिछले एक साल में जो दो बड़े टकराव के बाद दिल्ली की क्या स्थिति हुई, इसे सबने देखा और भुगता.
अगर सरकार के इस बिल के प्रावधानों पर जाएं तो केजरीवाल सरकार का मानना है कि लुटियन दिल्ली यानी नई दिल्ली नगरपालिका परिषद और दिल्ली कैंट के अलावा बाकी दिल्ली पर दिल्ली सरकार का अधिकार होना चाहिए. चूंकि लुटियन जोन में एंबेसी, पार्लियामेंट, सांसदों के निवास, राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री निवास और वीआईपी क्वार्टर हैं और दिल्ली कैंट में बड़ा आर्मी एरिया है, लिहाजा केजरीवाल का मानना है कि वहां सुरक्षा और प्रशासनिक व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्र अपने पास रख सकती है. इसके अलावा बाकी दिल्ली यानि पुलिस, जमीन और प्रशासन पर अधिकार या दखल दिल्ली सरकार का ही रहे.
क्या है ड्राफ्ट बिल में
+ प्रस्तावित बिल में दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन एक्ट 1957 में बदलाव की बात कही गई है.
+ सेक्शन 2 के क्लॉज (10) के तहत दिल्ली का मतलब पूरी दिल्ली , नई दिल्ली और दिल्ली कैंटोमेंट को रखा गया है.
+ 'राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली' की जगह 'दिल्ली राज्य' का नाम दिया गया है.
+ सरकार का मतलब दिल्ली सरकार होगा.
+ दिल्ली डेवलपमेंट एक्ट 1957 में भी संशोधन का प्रस्ताव किया गया है.
+ इसके अलावा दिल्ली पुलिस एक्ट 1978 में संशोधन का प्रस्ताव है.
+ सबसे दिल्ली महत्वपूर्ण संशोधन 'एडमिनिस्ट्रैटर यानी लेफ्टिनेंट गर्वनर' के संदर्भ में है, जिनके नाम में संशोधन कर उसे सिर्फ 'राज्यपाल' रखा गया है.
+ इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत मंत्रिमंडल की सलाह और सहयोग के तहत काम करेंगे.
+ अब तक जो 239 (a) के तहत प्रशासनिक अधिकार दिल्ली के एलजी को हासिल है, उसमें कटौती किए जाने का प्रस्ताव है.
+ प्रस्ताव में दिल्ली राज्य के लिए अलग प्रशासनिक कैडर बनाने की बात कही गई है.
+ हाई कोर्ट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी का नाम बदलकर हाई कोर्ट ऑफ दिल्ली रखने का प्रस्ताव भी शामिल है.
आखिर क्यों चाहिए डीडीए, पुलिस और एमसीडी
केजरीवाल सरकार को अपने कई प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए जमीन चाहिए. लेकिन जमीन डीडीए के पास है और डीडीए से जमीन लेने के लिए उसे पैसा देना पड़ता है. केजरीवाल कई बार इस दर्द का बयां कर चुके हैं कि कैसे एक बस डिपो के लिए जमीन हासिल करने के लिए डीडीए दिल्ली सरकार से करोड़ो रुपये मांगती है. एमसीडी से भी जब सैलरी और पैसे को लेकर टकराव हुआ और एमसीडी ने जब भी चौथे वित्त आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग की, सरकार ने डीडीए की मांग की. हालांकि सच यह भी है डीडीए के पास काफी जमीन नहीं बची है. कमोवेश यही स्थिति दिल्ली पुलिस को लेकर भी है. निर्भया कांड के बाद शीला दीक्षित से इस्तीफा मांगने और उनकी बेचारगी पर सवाल खड़ा करने वाले केजरीवाल पिछले डेढ़ साल में महिला सुरक्षा को लेकर कुछ खास नहीं कर पाए.
केजरीवाल पर वादाखिलाफी का आरोप
केजरीवाल में महिला सुरक्षा के लिए एप की बात की थी, 15 लाख सीसीटीवी लगने थे, महिला कमांडो विंग बनाया जाना था, बसों में सुरक्षा के लिए मार्शल लगाए जाने थे, पर कुछ खास नहीं हुआ और विपक्ष लगातार सवाल खड़े कर रहा है. दिल्ली सरकार ने मीनाक्षी हत्याकांड को लेकर जो बवाल तो खड़ा किया लेकिन खुद सवालों में घिर गए कि आखिर शीला टाइप बेचारगी जताने का क्या मतबल. चूंकि एमसीजी के जिम्मे बुनियादी सिविक कार्य के अलावा शिक्षा और सेनिटेशन का काम है और वहां फंड का रोना लगा रहता है, लिहाजा सरकार में आने के बाद से केजरीवाल तीनों नगर निगमों को अपने अंडर चाहते हैं. कूड़ा आंदोलन के दौरान सरकार ने तीनों नगर निगमों के फंड के ऑडिट की बात की थी, पर कुछ खास नहीं हुआ. अब सरकार का मानना है कि केवल केंद्र सरकार और डिप्लोमेट की मौजूदगी की वजह से बाकी दो करोड़ लोगों के विकास और सुरक्षा का दांव पर नहीं लगाया जा सकता.
बीजेपी-कांग्रेस ने खड़े किए सवाल
जिस प्रेस कॉन्फ्रेस में केजरीवाल बीजेपी और कांग्रेस के पूर्व प्रयासों की चर्चा कर रहे थे, वक्त नहीं बीता कि इन दलों ने केजरीवाल की नीयत पर सवाल खड़ा करना शुरू कर दिया. सबसे पहले बीजेपी से साफ किया की पार्टी अपने पूर्ण राज्य की मांग पर अपना रूख 2014 में साफ कर दिया है और अब पार्टी पूर्ण राज्य के पक्ष में नहीं है. पार्टी का तर्क यह है कि ब्यूरोक्रेसी और दिल्ली पुलिस को लेकर जिस तरह से केजरीवाल और उनके नेता अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं और जिस तरीके से अधिकारियों को हैंडल करना चाहते हैं, उसे देखते हुए केजरीवाल के प्रशासनिक क्षमता पर सवाल खड़े हो रहे हैं. ऐसे में पूर्ण अधिकार केजरीवाल सरकार को देने का कोई मतलब नहीं है.
बीजेपी का तर्क
पार्टी अध्यक्ष सतीश उपाध्याय का तर्क है कि क्या केजरीवाल सरकार पुलिस में बंटवारे की बात कर रहे हैं, एक नई दिल्ली के लिए जो केंद्र को रिपोर्ट करे और दूसरी बाकी दिल्ली के लिए, जो केजरीवाल को रिपोर्ट करे. साथ ही, नई दिल्ली और दिल्ली कैंट से चुने गए विधायकों का क्या होगा, वो अपनी मुसीबत किससे कहेंगे और शिकायत बनी रहेगी. उदाहरण के तौर पर केजरीवाल खुद नई दिल्ली से विधायक हैं, और वहां पुलिस केंद्र को रिपोर्ट करें, यह मुख्यमंत्री का स्वीकार होगा. क्या इस उपाय से टकराव घटेगा या उलझने बढ़ेंगी. वहीं पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का मानना है कि एससीडी के उपचुनाव के बाद इस तरह का प्रस्ताव लाने से शक पैदा होता है. लोगों को लग रहा है कि काम दिल्ली में कुछ हुआ नहीं है और लोग कांग्रेस और केजरीवाल सरकार में तुलना कर रहे और परिणाम उसी दिशा में है. जो विभाग या मामले केजरीवाल सरकार के अंदर आते हैं, उसी दायरे में भी पहले भी बहुत कुछ किया गया, अब भी किया जा सकता है, पर काम की बजाय बाकी सब कुछ हो रहा है.
अब आगे क्या?
सरकार लोगों से राय के बाद विधानसभा में पूर्ण राज्य की मांग को लेकर प्रस्ताव पास कर सकती है और इसे केंद्र के पास भेजेगी, ताकि संविधान संशोधन के जरिए इसे लागू कराया जा सके. लेकिन हकीकत में ऐसा संभव है या नहीं. दरअसल, 1993 में सबसे पहले बीजेपी सरकार ने पूर्ण राज्य का प्रस्ताव दिल्ली विधानसभा में पारित किया था, तब मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना थे. 11 सितंबर, 2002 में शीला दीक्षित शासनकाल में एक बार फिर सर्वसम्मति से पूर्ण राज्य का प्रस्ताव पारित हुआ, तब केंद्र में भी एनडीए सरकार थी. तब केंद्र में लालकृष्ण आडवाणी ने राज्यसभा में संशोधन बिल पेश किया, जिसे पार्लियामेंट कमेटी के पास भेजा गया, पर आगे कुछ बात नहीं बनी.
कांग्रेस ने भी पूर्ण राज्य की मांग उठाई थी
26 नवंबर, 2010 को एक बार फिर दिल्ली विधानसभा ने पूर्ण राज्य का दर्जा का प्रस्ताव पारित किया, जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी. लिहाजा प्रस्ताव पारित हो और उसे लागू करा दिया जाए, ये मौजूदा व्यवस्था में संभव नहीं है, यह तय है. इसी दिल्ली सरकार ने लोकपाल बिल पेश किया, पारित किया, केंद्र को भेजा, अब उस बिल का क्या हुआ, इसकी सुध लेने को दिल्ली सरकार भी तैयार नहीं है. पिछले छह महीने से लगभग एक दर्जन बिल ऐसे है जिस दिल्ली विधानसभा ने पास तो किया, पर अब तक मामले लटके हुए हैं. यहां तक कि विधायकों की सैलरी का बिल भी केंद्र के पास लंबित है.