
नोटबंदी के बाद पीएम नरेंद्र मोदी चुनावों की सरकारी फंडिंग पर जोर दे सकते हैं. हालांकि चुनाव आयोग और लॉ कमीशन का कहना है कि अगर राजनीति में अपराधीकरण रोकने और चंदे के मामले में पार्टियों को और ज्यादा पारदर्शी बनाए बिना सरकारी फंडिंग के सीमित नतीजे आएंगे.
चुनाव आयोग का मानना है कि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की ओर से किए जाने वाले बेहिसाब खर्चे पर रोक लगाने के लिए चुनावों के लिए पूरी तरह सरकारी खर्च करने का मकसद तबतक पूरा नहीं होगा जब तक अपराधीकरण और राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन पर रोक न लगाई जाए.
पीएम मोदी ने देशभर में राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने और चुनाव के लिए उम्मीदवारों को सरकारी खर्च मुहैया कराने के लिए मसले पर आम सहमति की अपील की है. सरकार का मानना है कि सरकारी खर्च से चुनाव कराने से ब्लैक मनी रुकेगी.
विदेशों में चुनाव प्रचार की सरकारी फंडिंग
अमेरिका:
राजनीतिक दलों के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष सरकारी फंडिंग की व्यवस्था नहीं है.
कांग्रेस के चुनाव के लिए सरकारी सब्सिडी का कोई प्रावधान नहीं है.
राष्ट्रपति चुनाव के दौरान प्राइमरी उम्मीदवारों के लिए कुछ हद तक सरकारी फंडिंग होती है. एक उम्मीदवार को 250 डॉलर तक की रकम मुहैया कराई जाती है. इस तरह इनके खर्च करने की सीमा है.
तीन अप्रैल, 2014 को राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नेशनल नोमिनेटिंग कन्वेंशंस के लिए सरकारी फंड खत्म करने का कानून बनाया.
ब्रिटेन:
हर वित्त वर्ष के दौरान राजनीतिक दलों को कुछ हद तक प्रत्यक्ष तौर पर सरकारी फंडिंग की व्यवस्था है.
कुल 20 लाख पौंड की यह रकम पॉलिसी डेवलपमेंट के नाम पर दी जाती है.
उम्मीदवारों की संख्या के आधार पर राजनीतिक दलों को अप्रत्यक्ष वित्तीय मदद दी जाती है.
इसमें चुनाव के दौरान निशुल्क ब्रॉडकास्टिंग टाइम, फ्री पोस्टेज, मीटिंग रूम और मतदाताओं को ईमेल भेजना शामिल है.
जर्मनी:
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सरकारी फंडिंग की जाती है और यह उनके पिछले प्रदर्शन के आधार पर तय होता है.
हर पार्टी को सरकारी सब्सिडी नहीं मिलती है. स्थानीय संगठनों या स्वतंत्र उम्मीदवारों को कोई सब्सिडी नहीं मिलती है.
फ्री मीडिया एक्सेस के नाम पर अप्रत्यक्ष मदद मिलती है. इसके लिए समय सीमा तय होती है और यह चुनावों में लगातार भागीदारी पर निर्भर करता है.
इटली:
यहां सरकारी सब्सिडी चुनावों के खर्च का सबसे बड़ा स्रोत है. हालांकि 1993 से इसे चुनाव प्रचार तक सीमित कर दिया गया है.
सब्सिडी की रकम चुनाव के दौरान डाले गए वोटों और उम्मीदवारों को मिले वोट के आधार पर तय होती है.
सरकारी सब्सिडी की आंशिक मंजूरी के लिए सरकार करदाताओं या पार्टी समर्थकों से अनुरोध करती है.
रेडियो और अखबारों के जरिये प्रचार में सरकारी सहायता और वोटरों तक डाक के जरिये अपनी बात पहुंचाने के लिए अप्रत्यक्ष तौर पर मदद की जाती है.
स्वीडन:
राजनीतिक दलों, उनके सचिवालय और संसद में पार्टी ग्रुप को सामान्य सब्सिडी मुहैया कराई जाती है. इसके अलावा क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर सब्सिडी भी दी जाती है.
सरकारी सब्सिडी पार्टी के सामान्य कामकाज के लिए दी जाती है और इसे किसी मकसद के लिए नहीं दिया जाता.
मीडिया के जरिये प्रचार की परोक्ष सहायता भी दी जाती है.
ऑस्ट्रेलिया:
चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों को सीधे तौर पर सरकारी फंडिंग मुहैया कराई जाती है.
इस रकम को किसी खास मकसद के लिए नहीं दिया जाता है और यह मदद पिछले चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन पर निर्भर करता है.
भारत में क्या है स्थिति
भारत में सरकारी मीडिया पर फ्री एयर टाइम के तौर पर थोड़ी सरकारी फंडिंग दी जाती है.
इसके अलावा इलेक्टोरल रोल और आइडेंटिटी स्लिप की फ्री सप्लाई की जाती है.
राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों पर टैक्स में भी छूट दी जाती है.
क्या व्यावहारिक है सरकारी फंडिंग
यहां गौर करने वाली बात है कि पूरी तरह सरकारी खर्च पर चुनाव करना मुमकिन है. इस मसले पर अब तक गठित तमाम कमेटियों ने सिफारिश की है कि भारत में राजनीतिक दलों या चुनावों की सरकारी फंडिंग व्यावहारिक नहीं है. इसके लिए अप्रत्यक्ष तरीके से सरकारी सब्सिडी का विकल्प बेहतर रहेगा.
1. देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति में चुनावों का पूरा खर्च सरकारी खजाने से उठाना मुमकिन नहीं है. पूरी फंडिंग सरकारी खजाने से होने से चुनाव प्रचार के दौरान या चुनाव के समय उम्मीदवारों के धन के वैकल्पिक स्रोत तक पहुंचने में पाबंदी लग जाएगी. अगर पूरी सरकारी फंडिंग को चुनावों में होने वाले बेहिसाब खर्चे के विकल्प के तौर पर देखा जाता है तो यह ब्लैक मनी को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं होगा.
आज जो चुनावों पर खर्च हो रहा है, उस रकम के वैकल्पिक इस्तेमाल के तौर पर गरीबी हटाने, स्वास्थ्य, शिक्षा और भोजन इत्यादि के लिए शायद ही केंद्र सरकार रकम मुहैया कराए.
2. वित्तीय बोझ, पैसे की कमी और लागू करने में दिक्कत की वजह से भारत में जर्मनी और ब्रिटेन की तरह मैचिंग ग्रांट का सिस्टम मुमकिन नहीं है. कॉरपोरेट से मिलने वाली मदद अक्सर बहुत ज्यादा होती है, इस वजह से इसका हिसाब रखना मुश्किल है. क्योंकि बड़े डोनर ब्लैक मनी देते हैं. ऐसे में पार्टियों को होने वाली कुल फंडिंग की मात्रा ही बढ़ेगी.
3. अगर चुनावों का खर्च सरकारी खजाने से होगा तो देश की जनता पर टैक्स का भार दोगुना हो जाएगा. इसके अलावा पार्टियों के पास बेहिसाब पैसा आने से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा.
4. भारत में आंशिक फंडिंग का मॉडल बेहतर साबित हो सकता है जिसमें मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को सरकारी मीडिया के जरिये प्रचार करने के लिए एकसमान वक्त मिलेगा.
5. लॉ कमीशन ने चुनाव सुधारों पर अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा है कि देश की आर्थिक स्थिति और विकास से जुड़ी समस्याओं के मद्देनजर चुनावों में पूरी तरह सरकारी फंडिंग मुमकिन नहीं है.