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पंकज सिंह अगर कवि न होते तो क्या होते? पत्रकार? वह तो वे थे ही. समीक्षक? इस रूप में भी उन्होंने खूब लिखा और बोला. तो क्या आंदोलनकर्ता विद्रोही? वह यह भी थे. उन्हें अपने आसपास, अपनी व्यवस्था, हर उस चीज से एक विद्रोह सा था जो यथास्थितिवादी है, रूढ़ है. वह बदलाव के हिमायती थे, और इसके लिए उन्होंने गोष्ठियों और बैठकों में अपने वाम मित्रों की बांह थाम खूब जुलूस निकाले थे, नारे लगाए थे. पर इन सबसे भी अधिक वक्त तक उन्हें अगर किसी का साथ भाता था, तो वह था कविता और रसरंजन का. इतना कि....कहना शायद बेहद निजी होगा. उनके जीवन में दो लोगों की बेहद अहम भूमिका थी. कविता की और सविता जी की. पर जब तब वह इन्हें छोड़ अपने अकेलेपन में घुस जाते और वहां उनका साथ...
आखिर वह क्यों ऐसा करते समझना बेहद मुश्किल था. ऊपर से कड़क और खुर्राट पर अंदर संवेदना से भरपूर उनका मन उनकी सजल आंखों से झांकता सा लगता. जब भी मिलते, वही एक उलाहना, तो घर नहीं आना है न? अब हमारी मुलाकातें ऐसे ही, ऐसी ही सार्वजनिक जगहों पर होंगी. ठीक है, ठीक है!...कितनी बेचैनी, कितना लगाव व कितनी बेताबी दिखती थी उनकी बातों में. बातचीत का संदर्भ वही समकालीन पत्रकारिता, साहित्य...कभी-कभार राजनीति भी...पर घर पर वह मुलाकात नहीं हुई. हमें क्या पता था कि वह इतनी जल्दी में हैं.
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पंकज सिंह कितना कुछ करना चाहते थे, इस देश के लिए, समाज के लिए, भाषा के लिए, पत्रकारिता के लिए, साहित्य के लिए और सबसे बढ़कर शूचिता के लिए....पर उन्हें इसका वक्त ज्यादा न मिला. बीमार होना, या फिर व्यग्र होना, और मना करने के बावजूद एक लत में होने की अक्खड़ता ही उन्हें असमय ले गई. 68 साल की उम्र पूरी होने के महज तीन दिनों के भीतर 26 दिसंबर, 2015 उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, पर उससे पहले वह खूब सक्रिय थे.
बिहार के मुजफ्फरपुर में उनका जन्म हुआ. तिथि और साल को लेकर भ्रम है. कहीं कुछ, कहीं कुछ. कागज पर अलग, उनकी याददाश्त में अलग और किताबों पर अलग. पूर्वी चंपारण का चैता पैतृक गांव था. बिहार से जो भी दिल्ली आता, उसमें भी मुजफ्फरपुर का, तो उनपर अपना हक जमाता. पर वह एक साथ ही गंवई भी थे, तो शहरी भी, भारतीय भी तो अंतर्राष्ट्रीय भी. स्कूली शिक्षा वहीं हुई. बिहार में ही इतिहास में बीए और एमए किया और दिल्ली आकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वियतनाम के संघर्ष पर शोध किया.
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बीबीसी लंदन में उद्घोषक व पत्रकार रहे. फ्रांस भी रहे... पर जहां भी रहे वही यायावर. पकड़ना और छोड़ना शायद उनकी नियति थी. जब देश लौटे तो कुछ से जुड़े, कुछ को पकड़ा और कुछ को छोड़ा. पर किसी भी दौर में वैचारिक प्रतिबद्धता को निजी संबंधों पर हाबी नहीं होने दिया. कविताएं और लेख उसी छटपटाहट और बौद्धिक खलबलाहट का नतीजा थे. उनके 'आहटें आसपास', 'जैसे पवन पानी' और ‘नहीं’ नामक तीन कविता-संग्रह छपे. चौथे की तैयारी चल रही थी. कविताओं के लिए शमशेर सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, नई धारा सम्मान मिला था. दिल्ली में विभिन्न कला दीर्घाओं में एक जिज्ञासु और संवेदनशील पारखी के रूप में भी लगातार उपस्थिति दर्ज कराते रहे.
साहित्य आजतक की ओर से श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी चुनी हुई 4 कविताएं:
निशानियां
पतझड़ के पत्तों से उठेगा सलेटी काला धुआं
धीमे-धीमे फिर सुलगेगी आग
दिखेंगी अंधेरे को चीरती रक्ताभ सुनहरी लपटें
दिखीं नहीं जो अरसे से, हमारे होने की निशानियां.
भविष्यफल
कोई एक अक्षर बताओ
कोई रंग
कोई दिशा
किसी एक फूल का नाम लो
कोई एक धुन याद करो
कोई चिड़िया
कोई माह- जैसे वैशाख
खाने की किसी प्रिय चीज़ का नाम लो
कोई ख़बर दोहराओ
कोई विज्ञापन
कोई हत्या- जैसे नक्सलियों की
किसी एक जेल का नाम लो
कल तुम कहां होंगे
मालूम हो जाएगा.
शर्म
डरी हुई हैं बेशुमार भली स्त्रियां
डरे हुए हैं बेशुमार बच्चे
काग़ज़ पर क़लम लेकर झुके लोगो
यह कितनी शर्म की बात है.
मध्यरात्रि
मध्यरात्रि में आवाज़ आती है
‘तुम जीवित हो?’
मध्यरात्रि में बजता है पीपल
ज़ोर-ज़ोर से घिराता-डराता हुआ
पतझड़ के करोड़ों पत्ते
मध्यरात्रि में उड़ते चले आते हैं
नींद की पारदर्शी दीवारों के आर-पार
पतझड़ के करोड़ों पत्ते घुस आते हैं नींद में
मध्यरात्रि में घूमते होंगे कितने नारायन कवि धान के खेतों में
कितने साधुजी
सिवान पर खड़ी इन्तज़ार करती हैं शीला चटर्जी मध्यरात्रि में
मध्यरात्रि में मेरी नींद ख़ून से भीगी धोती सरीखी
हो जाती है मध्यरात्रि में मैं महसूस करता हूं ढेर सारा ठंडा ख़ून
‘तुम जीवित हो?’ आती है बार-बार आवाज़
मध्यरात्रि में दरवाज़ा खटखटाया जा सकता है
बजाई जा सकती है किसी की नींद पर सांकल
मध्यरात्रि में कभी कोई माचिस पूछता आ सकता है
या आने के पहले ही मारा जा सकता है मुठभेड़ में
मेरे या तुम्हारे घर के आगे
मध्यरात्रि में कभी बेतहाशा रोना आ सकता है
अपने भले नागरिक होने की बात सोचकर..
( कविताएं कविता कोश से साभार)