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चित्रा मुद्गल, जिनकी लेखकीय संवेदना में झलका किन्नरों का दर्द

चित्रा मुद्गल फिलहाल वर्धा में हैं, और उनके जिम्मे महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का एक बड़ा काम है. बधाइयों की इस भीड़ में 'साहित्य आजतक' ने उनसे लंबी बात की, पर भावनाओं का यह ज्वार औपचारिक नहीं हो सका.

चित्रा मुद्गल चित्रा मुद्गल
जय प्रकाश पाण्डेय
  • ,
  • 13 दिसंबर 2018,
  • अपडेटेड 11:58 AM IST

हिंदी की सर्वाधिक चर्चित लेखिकाओं में शुमार चित्रा मुद्गल का पिछले 10 दिसंबर को जन्मदिन था. अभी कुछ दिन पहले ही उन्हें उनके उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई है. जाहिर है उत्साह दोगुना है. उनके प्रशंसक, प्रकाशक, परिवार, मित्र और साहित्य-प्रेमियों के साथ भी उन्हें भी कम खुशी नहीं. फोन की घंटी है कि पुरस्कार मिलने के दिन से आज तक बंद नहीं हुई है. फिर आज तो भोर से ही यह क्रम जारी है. वह लोगों के इसी प्यार को अपना सबसे बड़ा प्राप्य और पुरस्कार मानती हैं.

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दिल्ली छोड़ अभी वह वर्धा में हैं, और उनके जिम्मे महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का एक बड़ा काम है. बधाइयों की इस भीड़ में 'साहित्य आजतक' ने उनसे लंबी बात की, पर भावनाओं का यह ज्वार औपचारिक नहीं हो सका. वह आज 75 साल की हो गई हैं. पर इस उम्र में भी उनका सोचना, अपने को लेकर नहीं, बल्कि अपनों को लेकर है, समाज को लेकर है, उस तबके को लेकर है, जिनके लिए उन्होंने लिखा, जिनसे वह जुड़ी रहीं. सांसारिक तौर पर, सामाजिक तौर पर, पारिवारिक तौर पर. इस फेहरिश्त में साहित्य के बड़े-बड़े धुरंधरों से लेकर आम कार्यकर्ता, किसान, मजदूर, सहयोगी लेखक, वरिष्ठ कनिष्ठ, पति अवधनारायण मुद्गल, बच्चों, बेटा-बहू से लेकर आंदोलन के दौर की साथी मेधा पाटकर तक सबको उन्होंने आज गर्मजोशी और शिद्दत से याद किया.

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पर सामाजिक और शब्दों की दुनिया की इस अनूठी हस्ती चित्रा मुद्गल को उनके लेखन की चर्चा के बिना बधाई कैसी. सो एक बार फिर हम उनके उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा' की चर्चा के बहाने ही फिर से बधाई दे रहे, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा' का कथानक किन्नरों की अद्भुत संघर्षगाथा को समेटे हुए है. यह उपन्यास स्कूली शिक्षा के दौरान ही किन्नरों की मंडली को सौंप दिए गए विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली द्वारा अपनी मां को लिखे गए क्रमवार पत्रों के रूप में है, जिसमें उसने अपनी जीवन स्थितियों और घर की स्मृतियों का वर्णन किया है. हालांकि उसकी मां भी अपने किन्नर पुत्र जवाबी पत्र लिखती है, पर ये पत्र पृष्ठभूमि में रहते हैं. बेटे द्वारा लिखे गए पत्रों से ही मालूम होता है कि मां ने अपने पत्र में क्या लिखा था!

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मुंबई की लाइफ लाइन समझे जानी वाली लोकल ट्रेन के वेस्टर्न रूट पर नालासोपारा लगभग आख़िरी स्टेशन है. यहां अधिकतर रिहाइश उनकी है, जो मुंबई के दूसरे मशहूर उपनगरों में घर नहीं ले पाते. विनोद इसी उपनगर में रहनेवाली अपनी मां को पोस्ट बॉक्स नं. 203 के पते पर चिट्ठियां लिखता है. एक ही शहर में रहकर विनोद उर्फ़ बिन्नी को अपनी प्राणों से प्रिय मां के बीच संवाद के लिए चिट्ठियां क्यों लिखनी पड़ रही हैं? उनके बीच ये दूरियां समाज ने बनाई हैं, जिसे ना चाहते हुए भी उसकी मां, जिन्हें वह बा कहता है, और बिन्नी मानने को मजबूर हैं.

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लिंग दोषी के रूप में पैदा हुए अपने मंझले बेटे विनोद से बहुत लगाव होते हुए भी सामाजिक दबाव, घर के भीतर बड़े बेटे-बहू की मानसिक परेशानी और सबसे बढ़ कर किन्नरों की मंडली के आतंक के डर से मां चौदह वर्ष की अवस्था में विनोद को किन्नरों को सौंपने को मजबूर होती है. विनोद हर दृष्टि से स्कूल में पढ़ रहे अपने अन्य सहपाठियों जैसा ही है. अंतर सिर्फ इतना है कि वह स्कूल की चारदीवारी से सट कर पैंट के बटन खोल कर निवृत्त नहीं हो सकता.

जहां तक पढ़ाई-लिखाई का सवाल है, वह अपनी कक्षा में सदा फर्स्ट आता था. बावजूद इसके विनोद को ऐसे नरक में धकेल दिया गया, जहां उसकी पहचान तक ही दावं पर नहीं है, बल्कि वजूद ही हलक में आ जात है. विनोद में कोई स्त्रैण प्रवृत्ति नहीं है, इसलिए वह किन्नरों के गुट की लाख जबरदस्ती और प्रताड़ना के बावजूद उनके अनुकूल नहीं हो पाता और श्रम करके जीना चाहता है.

उपन्यास में नायक एक जगह अपनी मां को लिखता है, 'सबने मुझसे मुंह मोड़ लिया. पर सपनों ने मुझसे मुंह नहीं फेरा. आज भी वे मेरे पास बेरोक-टोक चले आते हैं.' उसका सपना है, सामान्य मनुष्य की भांति गरिमापूर्ण जीवन. वह बार-बार प्रश्न उठाता है कि जननांग विकलांगता को इतना बड़ा दोष क्यों मान लिया गया है? सिर्फ इसी कारण उसे घर-परिवार, रिश्ते-नाते सबसे कट कर नरक की जिंदगी क्यों भोगनी पड़ रही है?

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उपन्यास एक बड़ा प्रश्न उठाता है कि लिंग-पूजक समाज लिंगविहीनों को कैसे बर्दाश्त करेगा? उपन्यास इस प्रश्न पर गंभीरता से सोचने को विवश करता है कि आखिर एक मनुष्य को सिर्फ इसलिए समाज बहिष्कृत क्यों होना पड़े कि वह लिंग दोषी है? सिर्फ इसी कारण उसकी उम्मीदों, सपनों, आकांक्षाओं, भावनाओं का गला क्यों घोंट दिया जाता है? उपन्यास इस बात को प्रबलता से रेखांकित करता है कि हमारा समाज जब तक यौन केंद्रित बना रहेगा, तब तक यह समस्या बनी रहेगी. यौन केंद्रित समाज से मुक्ति ही इस उपन्यास का स्वप्न है और इसका केंद्रीय कथ्य भी.

उपन्यास में नायक कहता है, 'जननांग विकलांगता बहुत बड़ा दोष है, लेकिन इतना बड़ा भी नहीं कि तुम मान लो कि तुम धड़ का मात्र वही निचला हिस्सा हो. मस्तिष्क नहीं हो, दिल नहीं हो, धड़कन नहीं हो, आंख नहीं हो. तुम्हारे हाथ-पैर नहीं हैं. हैं, हैं, हैं, सब वैसे ही हैं, जैसे औरों के हैं. यौन-सुख लेने-देने से वंचित हो तुम, वात्सल्य सुख से नहीं. बच्चे तुम पैदा नहीं कर सकते, मगर पिता नहीं बन सकते, यह किसने नहीं समझने दिया तुम्हें?'

विनोद उर्फ बिन्नी यह भी सवाल उठाता है कि लिंग की दृष्टि से किन्नरों का वर्गीकरण क्यों? उन्हें अपना लिंग चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, न कि अन्य में डाल दिया जाए। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग, विकलांग आदि सभी समाज के वंचित वर्ग हैं, पर वे बकायदा स्त्री-पुरुष भी हैं. ठीक इसी तरह लिंगदोषियों को वर्गीकरण में इन्हीं वंचितों के साथ रखा जाए. पत्र-शैली चिंतन-प्रवाह या विचार-प्रवाह को अभिव्यक्त करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है, पर लेखिका ने इसके माध्यम से कथा-प्रवाह को अभिव्यक्त करके एक अनूठा प्रयोग किया है और इसमें वे पूरी तरह सफल भी हुई हैं.

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उपन्यास इस तथ्य को भी सामने लाता है कि देश के मुख्यधारा की राजनीति की दिलचस्पी किस तरह से असल समस्या से अलग है. सियासतबाजों का लक्ष्य किन्नरों को मानवीय गरिमा दिलाने में नहीं, बल्कि आरक्षण का लालच देकर उन्हें वोट बैंक के रूप में सिर्फ उपयोग करने की है. पहले तो विनोद में संभावना देख कर सत्ताधारी पार्टी उसे प्रश्रय देती है, पर जैसे ही वह आरक्षण की भीख मांगने की जगह किन्नरों में स्वाभिमान जगाने लगता है, उसकी हत्या कर दी जाती है. उपन्यास का अंत मां द्वारा अपनी मृत्यु से ठीक पहले अपने किन्नर बेटे को सार्वजानिक रूप से स्वीकार कर अपनी संपत्ति को तीनों बेटों में बराबर-बराबर बांटने की घोषणा संबंधी विज्ञापन से होती है.

जाहिर है यह उपन्यास काफी शोध और संवेदना की मांग करता है. यह उपन्यास उन्होंने क्यों लिखा के सवाल पर चित्रा मुद्गल ने एक बार कहा था, 'पहले मैं भी किन्नर को सामान्य नजरिए से ही देखती थी. मसलन, अन्य लोगों की तरह जब ये ट्रेन, बस में पैसे मांगने आते तो मना कर देती थी. उनके प्रति किसी तरह की संवेदनशीलता नहीं थी. पर सन 1979 में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में एक किन्नर मिला था. बातचीत में उसने जब अपनी कहानी बताई तो आंखें नम हो गईं और मेरा नजरिया भी बदल गया. उसकी कहानी दिमाग में कौंध रही थी. उसने बताया था कि आठवीं पास करने के बाद ही उसे चंपाबाई एवं फिर तुलसीबाई के हाथ सौंप दिया गया, जो उसे साड़ी पहनने के लिए विवश करती थीं. इसे लिखने की पहले तो हिम्मत नहीं जुटा पाई, लेकिन सन 2011 की जनगणना में जब जीरो अदर्स कॉलम में इन्हें रखा गया तो मैं स्तब्ध रह गई. आरक्षण सहित अन्य मुद्दे सामने आने पर उपन्यास लिखने का निर्णय लिया.'

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अब जब चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास न केवल बेहद चर्चित हुआ, वरन उसे पुरस्कार भी मिल चुका है, तब वह इस समाज के लिए और भी चाहती हैं. उपन्यास के पुरस्कृत होने के तुरंत बाद दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, 'मैं चाहती हूं कि इस उपन्यास को पाठयक्रम में शामिल किया जाए, ताकि नई पीढ़ी को किन्नरों को सम्मान देने की प्रेरणा मिले.' उनके खुद के शब्दों में, 'आप इतिहास देखिए सबल हमेशा निर्बलों पर जुल्म करता रहा है. इस जुल्म का शिकार महिला और दलित दों हुए, पर भेदभाव के चलते महिलाओं, दलितों को कभी घर से नहीं निकाला गया, जबकि किन्नरों के मां-बाप ही उन्हें घर से निकला देते हैं. समाज ने इनको इस दशा में क्यों रखा, ये भी एक सवाल है. मेरी कोशिश उसी सवाल को उठाने की थी.'

चित्रा मुद्गल अपने जीवन और लेखन से समाज और उससे जुड़े मसलों को उठाने में हमेशा सफल रही हैं. वह दीर्घायु और स्वस्थ्य हों, ताकि उनकी सक्रियता से यह समाज बेहतर बने और हिंदी साहित्य गुंजायमान होता रहे.

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