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दस महीने की उम्र में दिमागी बुखार मेनेन्जाइटिस से पीड़ित होने के कारण जॉर्ज अब्राहम की ऑप्टिक नर्व और रेटिना खराब होने से वह दृष्टिबाधित हो गए. हालांकि आज उनकी जिंदगी अन्य दृष्टिबाधितों से बेहद अलग है, क्योंकि उनके माता-पिता ने उनकी दृष्टिबाधिता को उनकी तरक्की और जिंदगी को सामान्य और सफल ढंग से जीने की राह में कोई समस्या न मानकर उनकी योग्यता पर पूरा भरोसा किया.
जॉर्ज अब्राहम एक मोटिवेशनल स्पीकर, ट्रेनर और कम्युनिकेटर हैं और दृष्टिबाधितों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए समाज के नजरिए में बदलाव लाने की मुहिम में जुटे हैं.
असली समस्या नजर नहीं नजरिया है...
जॉर्ज कहते हैं, 'असली समस्या नजर में नहीं, नजरिए में है. जब भी कोई व्यक्ति किसी नेत्रहीन से मिलता है, तो उसका ध्यान उसके संपूर्ण व्यक्तित्व और योग्यताओं की जगह केवल इस कमी पर ही जाता है. यहां तक कि किसी घर में दृष्टिबाधित बच्चे के जन्म पर उसके माता-पिता भी उसके लिए संभावनाओं का आसमान तलाशने की जगह उसके भविष्य की चिंता में डूब जाते हैं.'
अच्छी शिक्षा के दम पर बनाया करियर...
जॉर्ज ने अच्छी शिक्षा हासिल करके विज्ञापन जगत में सफल करियर बनाया है. वह कहते हैं, 'दृष्टिबाधितों को समाज में अक्सर हाशिए पर रखा जाता है. उन्हें अन्य लोगों के समान शिक्षा या करियर के अवसर या समाज में बराबर स्थान नहीं दिया जाता.'
जॉर्ज आगे कहते हैं, 'पहली बार जब वे दृष्टिबाधितों के एक स्कूल गए, तो वहां का खराब बुनियादी ढांचा, निम्न स्तरीय शिक्षण सामग्री और दृष्टिबाधित बच्चों से समाज की नाउम्मीदी देखकर उन्हें गहरा धक्का लगा. उन्होंने देखा कि दृष्टिबाधित बच्चों को बेहद निकृष्ट और असहाय समझा जाता है और उन्हें यह मानने पर मजबूर किया जाता है कि वे जिंदगी में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते.'
यह सब देखकर छोड़ दी नौकरी...
जॉर्ज ने उसी क्षण प्रतिष्ठित विज्ञापन कंपनी 'ऑगिल्वी एंड मैथर' की अपनी नौकरी छोड़कर दृष्टिबाधितों की जिंदगी में रोशनी लाने के लिए लोगों के नजरिए में बदलाव लाने की मुहिम शुरू करने का फैसला किया. बचपन से ही क्रिकेट के शौकीन जॉर्ज ने दृष्टिबाधितों के लिए क्रिकेट को बढ़ावा दिया और 1990 में दिल्ली में पहली राष्ट्रीय चैम्पियनशिप आयोजित की. 1996 में उन्होंने 'वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल' की स्थापना की और 1998 में दृष्टिबाधितों के लिए विश्व कप क्रिकेट का आयोजन किया.
ब्रिटिश एयरवेज की मदद से लाए बदलाव...
साथ ही उन्होंने ब्रिटिश एयरवेज की मदद से भारत के अनेक क्षेत्रों में जाकर दृष्टिबाधित युवाओं के लिए व्यक्तित्व विकास और कॉम्युनिकेशन स्किल्स की वर्कशॉप्स आयोजित की. जॉर्ज कहते हैं, 'उन्हें इस दौरान महसूस हुआ कि नजरिए में बदलाव लाकर काफी कुछ बदला जा सकता है.' अपने लक्ष्य को ठोस रूप देने के लिए जॉर्ज ने दृष्टिबाधिता के साथ जीने के लिए किसी भी प्रकार की जानकारी हासिल करने के केंद्र के रूप में 2002 में स्कोर फाउंडेशन और प्रोजेक्ट 'आईवे' लॉन्च किया.
रेडियो और दूरदर्शन पर कार्यक्रम...
इसी दिशा में और एक कदम आगे बढ़ाते हुए 2005 में उन्होंने रेडियो कार्यक्रम 'आईवे : ये है रोशनी का कारवां' शुरू किया. ऑल इंडिया रेडियो पर देशभर में प्रसारित हुए इस कार्यक्रम में जीवन की चुनौतियों को पार कर सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंचे दृष्टिबाधितों ने अपनी सफलता की कहानियां सुनाईं.
आईवे ने आम आदमी के नजरिए में बदलाव लाने के लिए दूरदर्शन पर एक श्रंखला भी पेश की 'नजर या नजरिया', जिसका संचालन दिग्गज अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने किया था. जॉर्ज आगे कहते हैं कि यह कार्यक्रम नेत्रहीनों को नहीं, आम लोगों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था. वे इसमें ऐसे विषयों को उठाना चाहते थे, जिनके जरिए वे नेत्रहीनता के साथ संभावनाओं के आकाश को दर्शा सकें.
जॉर्ज चलाते हैं दृष्टिबाधितों के लिए हेल्पडेस्क...
आईवे का हेल्पडेस्क भी है, जहां दृष्टिबाधित और उनके परिजन फोन करके अपनी समस्याओं से जुड़े सवाल पूछ सकते हैं, मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं और अपने लिए उपलब्ध सुविधाओं और संसाधनों से जुड़ सकते हैं. जॉर्ज कहते हैं कि कई मौकों पर उन्हें अहसास हुआ कि कई बार सरकार और रेलवे, बैंक, शिक्षण संस्थान जैसे सेवा प्रदाता दृष्टिबाधितों के साथ भेदभाव करते हैं. इन मुद्दों पर बदलाव लाने और इन्हें आवाज देने के लिए एडवोकेसी कैम्पेन चलाना जरूरी है.
जॉर्ज को मिल चुके हैं कई सम्मान...
जॉर्ज को अपने कार्यों के लिए कई सम्मान और अवॉर्डस से नवाजा जा चुका है, जिनमें सरस्वती सम्मान, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस, पीपल ऑफ द ईयर 2007 शामिल है. इसके अलावा डिस्कवरी चैनल की सिरीज 'डिस्कवरी पीपल' और 'अवीवा फॉर्वर्ड थिंकर्स' में भी उन्हें फीचर किया जा चुका है. जॉर्ज ने सामान्य स्कूल, कॉलेज से शिक्षा हासिल की. उन्होंने ला मार्टिनेयर लखनऊ में स्कूली शिक्षा हासिल की, दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफंस कॉलेज से गणित में स्नातक किया और ऑपरेशन्स रिसर्च में परास्नातक किया.
जॉर्ज लिख चुके हैं किताब...
जॉर्ज समावेशी शिक्षा पर एक किताब, 'हैंडबुक ऑफ इन्क्लूसिव एजुकेशन फॉर एजुकेटर्स, एडमिनिस्टेटर्स एंड प्लानर्स' के सहलेखक भी हैं. वह खुद को इस मामले में सौभाग्यशाली मानते हैं, लेकिन उनका कहना है कि हालांकि समावेशी शिक्षा एक सशक्त कॉन्सेप्ट है, लेकिन जिस प्रकार से भारत में इसे लागू किया जाता है, वह प्रभावशाली होने के स्थान पर नकारात्मक साबित होता है.
वह कहते हैं, 'दृष्टिबाधितों से समाज की उम्मीदें बेहद कम होती हैं, लेकिन समाज और स्वयं उसके परिवार को उन्हें सहानुभूति के स्थान पर एक संभावित मानव संसाधन के रूप में देखना होगा. उनके माता-पिता ने उनसे स्कूल में बेहतर करने, घर में अपनी भूमिका निभाने, शिक्षा पूरी होने के बाद एक अच्छी नौकरी की उम्मीद की. किसी भी बच्चे के बड़े होने के दौर में ये उम्मीदें ही उसमें आत्मविश्वास भरती हैं. उम्मीद है, धीरे-धीरे ही सही, लेकिन नजर को देखने के लोगों के नजरिए में बदलाव अवश्य आएगा.'