
वजीर-ए-आजम इमरान खान. जिन पर पाकिस्तान , हिंदुस्तान और सच पूछें तो दुनिया की भी नजरें जमी होंगी. पाकिस्तान के करिश्माई क्रिकेट कप्तान के रूप में उनके दौर से मैं उन्हें देख रहा हूं और कम से कम मुझे तो इस बात का अंदाजा नहीं था कि ग्लैमर बॉय इमरान खान अपने मुल्क के वजीर-ए-आजम बन जाएंगे.
हालांकि मैंने उन्हें हमेशा एक ऐसे शख्स के तौर पर पाया है जो अगर कोई काम ठान लेते हैं तो फिर उसके प्रति पूरी ईमानदारी रखते हुए शिद्दत और जोश से भरे रहते हैं.
चाहे वह 1992 में क्रिकेट विश्व कप की फतह रही हो, या फिर अपनी मां के नाम पर कैंसर अस्पतालों की एक शृंखला स्थापित करना या फिर 1996 में राजनीति की तरफ रुख करना हो.
1997 में अपने पहले चुनावों में उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी. इस बात के लिए उन्हें दाद दी जानी चाहिए.
अपनी धुन के पक्के होने की उनकी खूबी की तारीफ की जानी चाहिए.
अपनी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ लॉन्च करने के सात साल बाद 2003 में, नई दिल्ली में आयोजित इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में उन्होंने कहा था कि अपनी जेबें भरने के लिए "छोटा-सा बेईमान आभिजात्य वर्ग सारे संसाधनों को लूटता रहता है.
इससे अमीर, और अमीर बनते जा रहे हैं, ग़रीब और ग़रीब होता जा रहा है". आम चुनावों में उनकी पार्टी देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है. 25 जुलाई को दिए अपने विजय भाषण में भी खान का वही पुराना अंदाज, वही तेवर दिखा.
खान के इरादे नेक हैं, उन्हें अपने मुल्क की परवाह है और वे सियासत में बदलाव के मकसद से आए हैं. अब बातें उनके रास्ते की मुश्किलों की करें.
वे सांप्रदायिक संघर्ष से जूझते, एटमी हथियारों से लैस एक ऐसे मुल्क की ड्राइविंग सीट पर बैठ रहे हैं जिसकी माली हालत खस्ता है और दिवालिएपन के कगार पर खड़ा है, जिसके पास निर्यात के नाम पर बस वे जिहादी ही हैं जिन्हें वह अपनी आतंकी फैक्ट्रियों में तैयार करके भारत और अफगानिस्तान में भेज देता है.
पाकिस्तानी रुपए में लगातार गिरावट का दौर जारी है और विदेशी मुद्रा भंडार तो चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है. खान को सबसे पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) से 12 अरब डॉलर तक के कर्ज की गुहार लगानी होगी.
आइएमएफ से पैसा कड़ी शर्तों के साथ आएगा, जो उन्हें अपने 'नया पाकिस्तान' के वादे को पूरा करने के लिए जरूरी सार्वजनिक क्षेत्रों पर खर्च से रोकेंगी. साथ ही आइएमएफ के सबसे बड़े संरक्षक अमेरिका के साथ पाकिस्तान के रिश्ते गर्त में चले गए हैं;
खान तो वैसे भी अपने पूरे सियासी सफर में शुरू से ही अमेरिका की मुख़ालफत करते आए हैं. इसके अलावा उनके पास सरकार चलाने का कोई पुराना तजुर्बा भी नहीं है क्योंकि वे इससे पहले निर्वाचित होकर किसी ओहदे पर नहीं रहे.
बहुत कुछ ऐसा ही लगता है मानो किसी नए-नवेले बल्लेबाज को बिना हिफाजत के किसी इंतजाम के वेस्ट इंडीज के '70 के दशक के खतरनाक तूफानी गेंदबाजों का सामना करने भेज दिया गया हो.
खान के सामने पाकिस्तानी फौज की भी चुनौती होगी जिसकी सत्ता में बहुत ज्यादा दखलअंदाजी रहती है और जिसने पाकिस्तान के 71 साल के इतिहास में से 33 साल तक खुद ही कमान अपने हाथों में रखी है.
उन पर फौज का मोहरा होने के इल्जाम लगते रहे हैं और उन्हें इससे भी खुद को पाक-साफ करना होगा. मुझे लगता है कि ऐसे इल्जामों की वजह से बेबाक, साहसी और मजबूत इरादों वाले इस करिश्माई नेता के दमखम को कमतर आंका गया है.
इसी वजह से मुझे लगता है कि वे देर-सबेर फौज के लिए मुसीबत बन जाएंगे. एक धारणा यह भी है कि जब तक फौज अपनी विदेश नीति में बदलाव नहीं करती, तब तक पाकिस्तान में कुछ भी नहीं बदलेगा.
फौज, भारत के साथ दुश्मनी बरकरार रखना चाहती है और अफगानिस्तान में प्रभावी ताकत बनना चाहती है.
इस हफ्ते हमारी आवरण कथा में पाकिस्तान से हमारे सहयोगी कलमकार वजाहत एस. खान ने इमरान खान को पेश आने वाले मुश्किलात का जायज़ा लिया है.
हिंदुस्तान खान से क्या उम्मीदें रख सकता है, इस मुद्दे पर हमारे ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर (प्रकाशन) राज चेंगप्पा ने भारत के नजरिए से बात रखी है.
भारत और पाकिस्तान के बीच ताल्लुकात कब कैसे रहेंगे, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. गले-मिलते दिखते दोनों देशों के बीच कब जंग छिड़ जाए या फिर जंग जैसे हालात पैदा हो जाएं, कहा नहीं जा सकता.
2013 के चुनावों में बड़ी कामयाबी के साथ वजीर-ए-आजम की कुर्सी संभालने से ऐन पहले मैं नवाज शरीफ से मिला था. उन्होंने अमन का वादा किया था.
लाहौर में नाश्ते पर हुई मुलाकात में उन्होंने मुझे बताया था कि पाकिस्तान जल्द ही भारत से बिजली खरीदेगा. हम सबने देखा कि एक ओर बिजली खरीदने की बात हो रही थी और दूसरी ओर पठानकोट और उड़ी में हुए आतंकी हमलों के बाद भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान के कब्जे वाले इलाके में जाकर की गई कार्रवाई से दोनों मुल्कों के बीच कितनी कड़वाहट घुल गई.
भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में उम्मीद और नाउम्मीदी, दोनों का चोली-दामन जैसा साथ रहता है.
उन्होंने अपने विजय भाषण में कहा कि हिंदुस्तान अगर दोस्ती का एक कदम बढ़ाएगा तो वे बदले में 'दो कदम' बढ़ाएंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी कामयाबी पर मुबारकबाद भेजा और उम्मीद जताई कि इससे पाकिस्तान में लोकतंत्र मजबूत होगा.
लेकिन दोनों के बीच अमन की बातचीत की जो थोड़ी सी गुंजाइश है वह भी जल्द ही तब मिट जाएगी जब प्रधानमंत्री मोदी चुनावी तेवर में आ जाएंगे और खान की गलतियों को नजरअंदाज करने का दौर खत्म हो चुका होगा.
दोनों नेताओं को तेजी से कदम बढ़ने की जरूरत है. मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि भारत और पाकिस्तान, दोनों के सामने अमन ही एकमात्र जरिया है जो उन्हें तरक्की की उनकी मंजिल तक पहुंचा सकता और अपने अवाम को गरीबी से निजात दिलाने में सबसे बड़ा मददगार साबित हो सकता है.
हमें अमन को एक मौका जरूर देना होगा. एक बार फिर से.
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