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साथियों के छिटकने से बेपरवाह एनडीए, मिशन 2019 में मुश्किल न हो जाए

एनडीए सहयोगियों के छिटकने को लेकर भाजपा बेपरवाह है. पार्टी मोदी की छवि के सहारे ही चलना चाहती है. 2019 में भाजपा बनाम अन्य की नीति पार्टी के मुफीद है

चंद्रदीप कुमार चंद्रदीप कुमार
सुजीत ठाकुर/संध्या द्विवेदी/मंजीत ठाकुर
  • नई दिल्ली,
  • 30 मार्च 2018,
  • अपडेटेड 3:24 PM IST

मार्च की 7 तारीख को तेलुगुदेशम पार्टी (टीडीपी) ने एनडीए से अलग राह पर चलने का फैसला ले लिया और तय हो गया कि अगले दिन टीडीपी कोटे के दोनों मंत्री केंद्र सरकार से इस्तीफा देंगे. उसके कुछ समय बाद ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को यह भरोसा दिलाया था कि भाजपा 2019 अपने दम पर जीतने का माद्दा रखती है.

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उसके बाद भाजपा की तरफ से न तो नायडु को मनाने की कोशिश हुई, न ही उनसे कोई संपर्क साधा गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी की तरफ से सहयोगियों को संकेत दे दिया गया है कि सहयोग और समर्थन पाने और बनाए रखने के लिए भाजपा कोई पहल नहीं करेगी. इस पहल के लिए सहयोगी दलों को खुद फैसला लेना होगा.

भाजपा महासचिव अरुण सिंह ने इंडिया टुडे से कहा, "मोदीजी के नेतृत्व में भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिला था फिर भी हमने अपने सहयोगियों को मंत्रिमंडल में स्थान दिया. 2019 में भाजपा को पिछले चुनाव से भी बड़ी सफलता मिलेगी.

ऐसे में हमारे साथ जो सहयोगी हैं, उनके लिए भी यह सफलता होगी. लेने और देने के फॉर्मूले पर कांग्रेस अपना गठबंधन बनाती है, भाजपा नहीं.'' तो भाजपा 2019 बिना सहयोगियों के लड़ेगी?

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इसका उत्तर देते हुए भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय कहते हैं, "पिछले चुनाव में जद (यू) ने हमारा साथ छोड़ दिया था. हमने जद (यू) के बिना लड़ने का फैसला लिया. हम लड़े और जीते. बाद में जद (यू) के रूप में हमारा पुराना सहयोगी वापस हमारे साथ आया.''

टीडीपी के एनडीए छोड़ने और अन्य सहयोगी दलों के रुख में आए बदलाव से बने हालात में भाजपा कमोबेश उसी रणनीति पर मंथन कर रही है जिसके तहत नीतीश के अलग होने के बाद भाजपा चली थी.

इसी रणनीति को अपनाते हुए पार्टी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना की परवाह किए बिना चुनाव में उतरी और जीत हासिल की. भाजपा के एक नेता का कहना है कि सहयोगियों के साथ छोडऩे से कोई बड़ा अंतर पडऩे वाला नहीं है.

ऐसे में सहयोगियों का साथ छोडऩे को लेकर भाजपा खुद को बेपरवाह दिखाए, यह एक सोची-समझी रणनीति है. इसलिए भाजपा, एलजेपी, शिवसेना, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की तरफ से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मिल रही धमकी की परवाह नहीं कर रही.

सूत्रों का कहना है कि पार्टी यह फैसला कर चुकी है कि गठबंधन बढ़ाने या बनाए रखने के लिए झुकने से बेहतर विकल्प है, अपने दम पर लड़ा जाए. अगर 2019 आते-आते भाजपा बनाम अन्य की स्थिति बनती है तो भाजपा इसे अपने लिए मुफीद मानती है.

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हालांकि भाजपा के इस रुख को सहयोगी दल घातक बता रहे हैं. टीडीपी नेता थोटा नरसिंहन का कहना है कि घटक दल किसी भी गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण होते हैं. जिन इलाकों में भाजपा की मौजूदगी नाम मात्र की है, वहां सहयोगियों के वोट पार्टी को मिलते हैं. जैसे आंध्र प्रदेश, बिहार या तमिलनाडु. पिछले चुनाव में भाजपा ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन दलों से भी गठजोड़ किया जो कोई भी सीट जीतने की स्थिति में नहीं थे.

अभी भी एनडीए में दो दर्जन ऐसे दल हैं जिनके पास अपनी कोई सीट नहीं है. एलजेपी के एक नेता का मानना है कि  बिहार में जद (यू) और भाजपा मजबूत हैं. लेकिन वे यह भी कहते हैं कि अगर इन दोनों के सामने बाकी दल एक हो जाएं तो भाजपा के लिए मुश्किल हो जाएगी.

फिलहाल बदले सियासी समीकरण के बीच भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि के सहारे ही आगे चल पड़ी, है. भले कोई गठबंधन छोड़कर चला जाए. सहयोगियों को ही आक्रामक रुख दिखाने के लिए भाजपा ने टीडीपी की तरफ से आए अविश्वास प्रस्ताव के बाद लोकसभा में गृह मंत्री राजनाथ सिंह की तरफ से बयान दिलवाया कि सरकार अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तैयार है.

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टीडीपी से पहले वाइएसआर कांग्रेस ने भी अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था लेकिन सरकार ने अपना रुख तब जाहिर किया जब टीडीपी ने भी अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस लोकसभा सचिवालय को दिया.

भाजपा फिलहाल अपनी पूरी ताकत इस बात पर लगा रही है कि जिन राज्यों में सहयोगी साथ हैं, वहां भी पार्टी को मजबूत किया जाए. टीडीपी के छिटकते ही भाजपा ने अपने कद्दावर महासचिव राम माधव को आंध्र प्रदेश में सक्रिय कर दिया है.

उन्हें उस ब्लू प्रिंट पर काम करने को कहा गया है जिसके जरिए पिछड़े वर्ग में भाजपा की पैठ को बढ़ाया गया. सूत्रों का कहना है कि इसी फॉर्मूले के तहत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश का प्रभारी रहते हुए पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों में भाजपा की पैठ बनाई थी.

बिहार से भाजपा के दोनों पुराने सहयोगी राम विलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा तो तब से असहज हैं जब से नीतीश कुमार भाजपा के पाले में आ गए हैं. सूत्रों का कहना है कि इन दोनों नेताओं को संदेश दे दिया गया है कि सीटों के बंटवारे को लेकर भी भाजपा किसी तरह का दबाव लेने को तैयार नहीं है.

यह जरूरी नहीं है कि पिछले चुनाव में इन दलों को जितनी सीटें दी गईं उतनी ही इस बार भी मिलें. महाराष्ट्र में चूंकि शिवसेना पहले ही यह प्रस्ताव पारित कर चुकी है कि 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी, इसलिए वहां सीट बंटवारा चर्चा का विषय नहीं है. भाजपा नेताओं का कहना है कि अगर शिवसेना साथ लडऩा चाहेगी तो स्वागत है लेकिन सीटों को लेकर भाजपा किसी तरह की मांग नहीं मानेगी.

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अहम बात यह है कि सहयोगियों से बेपरवाह भाजपा अपने पुराने साथियों को भी तवज्जो देने को तैयार नहीं है. पंजाब में अकाली दल पर भाजपा की तरफ से लगातार यह दबाव बनाया जा रहा है कि 2019 में भाजपा को सात सीट दी जाएं.

अभी तक भाजपा यहां 3 और अकाली 10 सीटों पर चुनाव लड़ते आए हैं. इसी दबाव को बढ़ाने के लिए भाजपा पंजाब में अकेले कांग्रेस सरकार के खिलाफ पोल-खोल अभियान चला रही है. अकाली दल इसी तरह का अलग कार्यक्रम चला रहा है. एनडीए का हिस्सा होते हुए भी दोनों एक साथ नहीं हैं.

भाजपा महासचिव विजयवर्गीय कहते हैं, "भाजपा का प्रभाव देश भर में है. जहां हमारा प्रभाव कम है, वहां हम खुद को मजबूत कर रहे हैं. कुछ साल पहले तक बिहार में या महाराष्ट्र में हम जूनियर पार्टनर हुआ करते थे लेकिन मोदीजी के नेतृत्व में भाजपा इन राज्यों में सबसे बड़ी पार्टी है. इस व्यावहारिक गणित को समझना किसी भी राजनीतिक दल के लिए जरूरी है. सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी भाजपा इस गणित को समझती है.''

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