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क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि गरीबी के चलते आपको पढ़ाई छोड़ देनी पड़े. आप सालों तक दर-बदर भटकते रहें. आपके पास पैर में पहनने को चप्पल न हो और न ही किसी गद्य या पद्य को लिखने के लिए कॉपी-कलम और एक दिन आपको भारत के राष्ट्रपति पद्म श्री से सम्मानित कर रहे हों.
यकीन नहीं होता न? लेकिन आज जो भी इस शख्स के बारे में जानता है, वह उनको झुक कर सलाम करता है. हलधर नाग नामक यह 66 वर्षीय शख्स पूरी दुनिया के सामने एक नजीर हैं. प्राथमिक स्कूली शिक्षा से भी वंचित इस शख्स की रचनाओं पर 5 डॉक्टरेट हो चुकी हैं. ओडिशा प्रांत में रहने वाले यह शख्स कोसली भाषा का जनकवि हैं. इस शख्स को अपनी लिखी गई सारी कविताएं और 20 काव्य कंठस्थ हैं. ओडिशा की संबलपुर यूनिवर्सिटी अब इनकी कृतियों को अपने सिलेबस में शामिल करने की ओर अग्रसर है.
बचपन में उठा पिता का साया
नाग कहते हैं कि वे उन दिनों कक्षा तीन में पढ़ा करते थे जब उनके पिताजी गुजर गए. उनकी पढ़ाई छूट गई. विधवा मां के भार को कम करने के लिए उन्होंने एक मिठाई की दुकान पर बर्तन मांजना शुरू किया. वहां से दो साल के बाद एक ग्राम प्रधान उन्हें एक स्कूल में ले आए जहां वे 16 वर्षों तक बतौर खानसामा काम करते रहे.
इलाके में स्कूलों का प्रभाव बढ़ने लगा और एक दिन एक बैंकर से 1000 रुपये का लोन लेकर उन्होंने स्टेशनरी की एक छोटी दुकान खोलने का निर्णय लिया.
1990 में लिखी पहली कविता
नाग की पैदाइश सन् 1950 की है और उन्होंने अपनी पहली कविता 'धोडो बरगाछ' बरगद का पेड़ सन् 1990 में लिखी, और उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. ओडिशा में उन्हें 'लोक कवि रत्न' के नाम से पुकारा जाता है. वे अपने आस-पास के माहौल, प्रकृति, मिथक और धर्म से प्रेरणा लेते हैं, और उनकी कृतियों में सारे रंग परिलक्षित भी होते हैं. वे कहते हैं कि जो कविता वास्तविकता का आभास न कराए, वो भी कोई कविता होती है भला...