Advertisement

मिशन 2019, बिना गठबंधन मुमकिन नहीं

उत्तर प्रदेश के उपचुनाव नतीजों ने विपक्षी दलों को उम्मीद के ऐसे धरातल पर ला दिया है जहां से 2019 का लक्ष्य हासिल करने के लिए उन्हें गठबंधन करना ही होगा

मनीष अग्निनत्री मनीष अग्निनत्री
आशीष मिश्र/संध्या द्विवेदी
  • लखनऊ,
  • 30 मार्च 2018,
  • अपडेटेड 3:22 PM IST

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग और बैनर हमेशा से सूबे के राजनैतिक माहौल का मुजाहिरा करते रहे हैं पर इस बार नजारा कुछ अलग है. विक्रमादित्य मार्ग पर समाजवादी पार्टी (सपा) दफ्तर की ओर बढ़ने पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के होर्डिंग नदारद हैं.

इनकी जगह लाल-हरे रंग वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती के साथ अखिलेश यादव की तस्वीर वाले होर्डिंग ने ले ली है. इस सड़क का माहौल साफ बता रहा है कि राजनैतिक रूप से दो ध्रुव रहीं पार्टियों सपा और बसपा में दूरियां घटी हैं. 14 मार्च को जैसे ही गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव के नतीजे आए, कई बातें स्पष्ट हो गईं.

Advertisement

पहला, कई आघातों के बावजूद चुनाव में अपना कोर वोट किसी दूसरी पार्टी की तरफ ट्रांसफर करने की बसपा की क्षमता बरकरार है.

दूसरा, सपा और बसपा गठजोड़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विजय रथ को उसी प्रकार चुनौती दे सकता है, जिस प्रकार 25 वर्ष पहले इसी गठबंधन ने राम लहर को थाम लिया था.

लोकसभा उपचुनाव में सपा उम्मीदवार को समर्थन देकर पहल मायावती ने की तो 14 मार्च को गोरखपुर और फूलपुर में जीत के बाद फौरन लखनऊ के मॉल एवेन्यू स्थित बसपा अध्यक्ष के घर पर आभार जताकर अखिलेश ने भविष्य के गठबंधन की नींव रख दी.

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बनने वाले किसी भी भाजपा विरोधी गठबंधन की जरूरत 2014 के आम चुनाव के आंकड़ों से स्पष्ट हो जाती है.

उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर भाजपा गठबंधन ने अभूतपूर्व रूप से 73 सीटें जीतकर बिखरे विपक्ष को जमींदोज कर दिया था.

Advertisement

अगर पिछले लोकसभा चुनाव में ही सपा-बसपा एक होकर लड़तीं तो इनकी झोली में आधी से अधिक लोकसभा सीटें आतीं.

अगर इस गठबंधन में कांग्रेस और अन्य छोटे दल भी शामिल होते तो दो-तिहाई से अधिक सीटों पर परचम लहराता.

(देखें ग्राफिक्स) पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव हारने के बाद सपा और बसपा हर हाल में लोकसभा चुनाव में पलटवार करने को बेताब हैं.

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉ. अजित कुमार कहते हैं, "दलित, ओबीसी और मुस्लिम गठजोड़ पर बनने वाले सपा-बसपा गठबंधन के पास यूपी की हर लोकसभा सीट पर कम से कम 30 प्रतिशत आधार वोट मौजूद रहेगा. ये पार्टियां 2014 के आम चुनाव के बराबर ही वोट पाने में कामयाब हो गईं तो भाजपा को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.''

पिछले वर्ष 27 अगस्त को पटना में राष्ट्रीय जनता दल की रैली से तीन दिन पहले बसपा सुप्रीमो मायावती ने इसमें शामिल होने को लेकर चल रही संभावनाओं को सिरे से नकार दिया था. वे मीडिया के सामने आई और बोलीं, "बसपा की चिंता यह है कि सेकुलर पार्टियों के बीच टिकटों के बंटवारे को लेकर घमासान और पीठ में छुरा भोंकने के अनुभवों के आधार पर जनता में इस प्रकार के गठजोड़ के प्रति अविश्वास न पैदा हो. आखिर इसका लाभ भाजपा को न मिल जाए.

Advertisement

किसी गठबंधन का बनना-बिगडऩा पूरी तरह से सीटों के बंटवारे पर निर्भर करता है.'' यही वजह रही कि फूलपुर और गोरखपुर संसदीय उपचुनाव में सपा प्रत्याशी को बसपा का समर्थन देने के बाद उठे गठबंधन के सवाल को मायावती ने नकारा. उन्होंने कहा, "यह गठबंधन नहीं हैं बल्कि भाजपा को हराने वाले मजबूत प्रत्याशी को बसपा का समर्थन है.'' लोकसभा उपचुनाव में जीत के बाद सपा के कुछ बड़े नेता बसपा के साथ संभावित गठजोड़ को लेकर खासी मशक्कत कर रहे हैं.

वे सीटों की साझेदारी का फॉर्मूला निकालने की कोशिश में हैं जो गठबंधन के सभी सदस्यों को तार्किक रूप से स्वीकार्य हो. सपा के एक वरिष्ठ नेता और विधान परिषद सदस्य बताते हैं, "सीटों के बंटवारे का सबसे तार्किक तरीका यह है कि गठबंधन का दल उन सीटों पर चुनाव लड़े जिन्हें पिछले लोकसभा चुनाव में उसने जीता था और जिन पर वह दल दूसरे नंबर पर रहा था.''

पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा ने भले ही एक भी सीट न जीती हो लेकिन कुल 34 सीटों पर यह पार्टी दूसरे नंबर पर थी. इसी प्रकार 5 सीटें जीतने वाली सपा 31 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी. वहीं कांग्रेस ने भले ही दो सीटें जीती हों लेकिन 6 सीटों पर यह पार्टी दूसरे नंबर पर थी.

Advertisement

राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) और आम आदमी पार्टी (आप) भी एक-एक सीट पर दूसरे नंबर पर थी. अगर इसी फॉर्मूले पर आम राय बनी तो सपा 36 और बसपा 34 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. गठबंधन का हिस्सा बनने पर कांग्रेस को 8 और रालोद को 2 लोकसभा सीटों पर मौका मिल सकता है.

छोटे दलों पर निगाह

भाजपा सरकार में श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के भतीजे और प्रतापगढ़ जिला पंचायत के पूर्व अध्यक्ष प्रमोद कुमार मौर्य समेत कई नेता सपा में शामिल हो चुके हैं. अखिलेश के साथ खड़े होकर प्रमोद कुमार मौर्य ने कहा, "स्वामी प्रसाद मौर्य हमारे नेता हैं. भाजपा ने उन्हें किनारे कर दिया है.

यह हमारी मौर्य बिरादरी कतई सहन नहीं करेगी.'' इसके बाद स्वामी प्रसाद मौर्य के दामाद कैंसर सर्जन डॉ. नवल किशोर ने लाल टोपी पहनकर सपा मुख्यालय में अखिलेश यादव को लोकसभा उपचुनाव की बधाई दी. जाहिर है कि अखिलेश यादव गैर-यादव पिछड़ी जातियों को इकट्ठा करने का ताना-बाना बुन रहे हैं. उपचुनाव नतीजों ने रालोद सरीखे दलों में भी आस जगा दी है.

रालोद अध्यक्ष अजित सिंह ने भाजपा विरोधी किसी भी गठबंधन में शामिल होने की घोषणा कर दी. भाजपा सांसद हुकुम सिंह के निधन से खाली हुई कैराना संसदीय सीट और भाजपा विधायक लोकेंद्र प्रताप सिंह के निधन से रिक्त हुई बिजनौर जिले की नूरपुर विधानसभा सीट पर उपचुनाव होने पर सपा कैराना सीट पर रालोद उम्मीदवार का समर्थन कर सकती है.

Advertisement

ध्रुवीकरण रोकने की चुनौती

सपा, बसपा और अन्य पार्टियों के एक साथ आने पर मुस्लिम मतों के विरोध में ध्रुवीकरण का भी अंदेशा बना है. पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा ने 19 और सपा ने 14 मुसलमान उम्मीदवार उतारे थे.

भाजपा ने बड़ी चतुराई से मुस्लिम मतों के विरोध में गैर-जाटव दलितों और गैर-यादव पिछड़ों के एक बड़े तबके में ध्रुवीकरण कराने में सफलता हासिल की थी.

राजनैतिक विश्लेषक 2019 के लोकसभा चुनाव में मुसलमान उम्मीदवारों की होड़ होने की संभावना से इनकार करते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. जसीम मोहम्मद बताते हैं, "सपा और बसपा के अलग चुनाव लड़ने से दोनों पार्टियों में मुस्लिम उम्मीदवार देने की होड़ रहती थी.

साथ आने से यह होड़ खत्म होगी. सपा-बसपा और दूसरे दलों के संभावित गठबंधन से हिंदू उम्मीदवारों को भी मुसलमानों का एकतरफा वोट मिलेगा.

इससे गठबंधन पर भी ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार उतारने का दबाव नहीं होगा.'' अखिलेश भले ही बसपा को साथ लेने पर बेहद उत्साहित हैं लेकिन अभी आगे का रास्ता कठिन है. सिंचाई विभाग में कार्यरत एक दलित अधिकारी राम सहाय बताते हैं, "सपा सरकार प्रमोशन में आरक्षण की विरोधी थी. इनके कार्यकाल में 18,000 से ज्यादा अधिकारी पदोन्नत किए गए. प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर सपा के रुख पर ही गठबंधन का भविष्य निर्भर करेगा.''

Advertisement

शायद यूपी का राजनीतिक इतिहास 25 वर्ष बाद दोहराया जाए. 1993 में राम लहर पर सवार भाजपा को रोकने के लिए बसपा संस्थापक कांशीराम और सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव साथ आए थे. तब एक नारा उछला था— "मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.'' 25 वर्ष बाद अखिलेश और मायावती मोदी लहर को थामने को एक हुए हैं. इस बार का नारा है— "बहनजी और अखिलेश जुड़े, मोदी-योगी के होश उड़े.''

***

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement