Advertisement

जानिए एक वेटर की ओलंपिक तक पहुंचने की कहानी

रियो ओलंपिक में पदकों की होड़ में कुछ ऐसे लोग पीछे रह गए जिनकी कहानी दूसरों के लिए प्रेरणादायक है. आज हम ऐसे ही एक स्पोर्ट्सपर्सन मनीष रावत की कहानी बता रहे हैं जो रियो ओलंपिक में रेसवॉकिंग में 13वें स्थान पर रहे.

मनीष सिंह रावत मनीष सिंह रावत

कुछ कहानियां ऐसी होतीं हैं जो दिल को छू जाती हैं. आज भले ही सभी रियो ओलंपिक में पदक जीतने वाली साक्षी मलिक और पीवी सिंधु की बात कर रहे हों लेकिन एक शख्सियत ऐसी भी है, जिसका नाम तो ज्यादा लोग नहीं जानते लेकिन जब आप उनकी कहानी सुनेंगे तो आप भी उनके मुरीद हो जाएंगे. हम बात कर रहे हैं 25 साल के रेसवॉकर मनीष सिंह रावत की.

Advertisement

मनीष बद्रीनाथ के एक होटल 'कृष्णा' में वेटर की नौकरी करते हैं. वो रोज सुबह 4 बजे उठ जाते हैं. वो अपने होटल के बाकी कर्मचारियों से करीब दो घंटे पहले उठते हैं. ऐसा नहीं है कि वो 'एम्पलॉय ऑफ द मंथ' बनना चाहते हैं और ना ही उनकी शिफ्ट बाकी लोगों से पहले शुरू होती है. दरअसल मनीष सुबह उठकर रेसवॉकिंग की प्रैक्टिस करते हैं.

प्रैक्टिस करता देख हंसते थे लोग:

बहुत से लोग यह जानते भी नहीं होंगे कि रेसवॉकिंग ओलंपिक का ही एक खेल है. इस खेल में अपने हिप को थोड़ा ट्विस्ट कर के वॉक करना होता है. मनीष के इस अभ्यास को देखकर उस धार्मिक नगरी के बहुत से लोग उनपर हंसते हैं. कई तो उनका वीडियो तक बना लेते हैं. लेकिन मनीष को इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता. उनका सपना था ओलंपिक में हीरो बनने का, मेडल जीतने का. हालांकि उनका यह सपना पूरा न हो सका. मनीष अपनी असफल पर बात करते हुए कहते हैं कि, 'अब गांव जाकर क्या मुंह दिखाऊंगा. बोला था मेडल लेकर ही आऊंगा लेकिन यह नहीं हो सका. बस 10 सेकंड सर, बस 10 सेकंड और अच्छा करता तो मेडल का चांस रहता. आपको पता है इंडिया में रेसवॉकिंग कोई नहीं देखता. यही चांस था, अब चार साल और इंतजार करना होगा.'

Advertisement

क्‍या है रेसवॉकिंग

रेसवॉकिंग के लिए गजब की निष्ठा और कर्मठता की आवश्यकता होती है. 20 किमी की रेस में किसी भी समय आपका दोनों पैर हवा में नहीं होना चाहिए, ऐसा होने पर यह रनिंग की कैटेगरी में आ जाता है और प्रतिभागी को डिसक्वालिफाई कर दिया जाता है.

देश में रेसवॉकिंग के हालात

भारत में रेसवॉकिंग के हालात कुछ ठीक नहीं हैं. यहां इस खेल को तवज्जो नहीं मिलती. हमारे देश के एजुकेशन सिस्टम में रेसवॉकिंग को ज्यादा एक्सपोजर नहीं मिला है. मनीष कहते हैं, 'मैंने सरकारी स्कूल से पढ़ाई की है. वहां एजुकेशन को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता. इसलिए हम अपना समय खेल-कूद में ही लगाते हैं. मुझे रेसवॉकिंग के बारे में क्लास 8,9 तक नहीं पता था. मैं अपने स्कूल तक 7 कि.मी चलकर पहुंचता था. वॉकिंग उत्तराखंड के कल्चर का अहम हिस्सा है. शायद इसीलिए उत्तराखंड के लोग देश के अन्य हिस्से से ज्यादा फिट होते हैं.'

महीने में 1500 रुपये में चलाना पड़ता था खर्चः

मनीष कहते हैं, 'मैं जब क्लास 10 में था तब मेरे पिता की मृत्यु हो गई थी. हमें 1500 रुपये मिलते थे और पूरा महीना हमें उसी में चलाना पड़ता था. स्कूल से ज्यादा मैंने अपना समय दूसरे कामों में लगाया. किसानी का काम किया, बर्तन भी धोए, ट्रैक्टर भी चलाया.

Advertisement

मनीष आगे कहते हैं, मैंने अपने कोच को कहा था कि मैं अब और प्रैक्टिस नहीं कर सकता. मुझे अपना घर चलाने के लिए नौकरी की जरूरत है लेकिन मेरे कोच ने कहा कि रेसवॉकिंग में तुम्हारा भविष्य है. इसलिए मैंने प्रैक्टिस करना नहीं छोड़ा.'

मनीष रियो में इस 20 किमी रेस में 13वें स्थान पर रहें. उनकी फाइनल टाइमिंग 1:21:21 रही. वो ब्रॉन्ज मेडल जीतने से सिर्फ 1 मिनट पीछे रह गई. भारत में रेसवॉकिंग की अनदेखी की जाती है. एक तरफ हमारे देश में मेडल्स का सूखा पड़ा है और दूसरी तरफ सरकार मनीष जैसे हीरोज की कोई सहायता नहीं करती.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement