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उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के हाथों करारी शिकस्त का सामना करने वाली भारतीय जनता पार्टी अब इसका जवाब राज्यसभा चुनाव के जरिए देने की फिराक में है, हालांकि इसकी तैयारी उपचुनाव के परिणाम से पहले ही कर ली गई थी, लेकिन हार के बाद अब यह बीजेपी के लिए प्रतिष्ठा की बात हो गई है.
केंद्र और राज्य में सत्तारुढ़ बीजेपी राज्यसभा चुनाव में हर हाल में उत्तर प्रदेश में अपने उम्मीदवार को जीत दिलाकर भविष्य में सपा-बसपा गठबंधन को और मजबूत होने से रोकने की कोशिश में जुट गई है.
नौंवें उम्मीदवार पर खेला दांव
बीजेपी पहले ही राज्यसभा में नौंवें उम्मीदवार के तौर पर अनिल अग्रवाल को मैदान में उतार चुकी है. पार्टी का मानना है कि पैसे से मजबूत इस उम्मीदवार को अगर बीजेपी के अतिरिक्त वोट मिल गए तो बाकी काम उम्मीदवार का पैसा, नए नवेले आए नरेश अग्रवाल गुट, राजा भैया और नाराज चाचा, शिवपाल यादव कर सकते हैं.
एक उम्मीदवार को जीतने के लिए उत्तर प्रदेश में 37 विधायकों की जरूरत होती है, ऐसे में बीजेपी के आठ उम्मीदवार का जीतना तय है, जबकि समाजवादी पार्टी की जया बच्चन भी आसानी से जीत जाएंगी. लेकिन इस गठबंधन ने बीएसपी के पुराने कार्यकर्ता भीमराव अंबेडकर को अपना उम्मीदवार बनाया है जिनके पास 34 वोट हैं, उन्हें 3 अतिरिक्त वोट की जरूरत है जबकि बीजेपी को 9 वोट चाहिए ऐसे में नौवें सीट के लिए रस्साकशी तय है.
गठबंधन पर संकट कायम
राज्य में 2 सीटों पर हुए उपचुनाव में जिस तरीके से मायावती ने समाजवादी पार्टी को अपना समर्थन दिया, वह वैसा ही समर्थन अखिलेश यादव से राज्यसभा में चाहती हैं. राज्यसभा चुनाव में अगर कोई भी चूक अखिलेश यादव से हुई तो इसका खामियाजा गठबंधन को उठाना पड़ सकता है और यह बात अखिलेश पूरी तरह समझ रहे हैं. यही वजह है कि अब तक चाचा से नाराज चल रहे अखिलेश ने शिवपाल यादव से भी खुले तौर पर समर्थन की अपील कर डाली है.
माना जा रहा है कि अगर नरेश अग्रवाल, राजा भैया और शिवपाल यादव ने अपने समर्थकों के साथ खेल कर दिया तो बीएसपी के उम्मीदवार का जीत पाना मुश्किल होगा, लेकिन जीत के बाद इस गठबंधन के हौसले बुलंद हैं और लगता है कि उनके विधायक पार्टी से बगावत का रास्ता शायद ही चुने और बीजेपी को यही बात सबसे ज्यादा खटक रही है.
दलित के खिलाफ वैश्य
राज्य में सत्तारुढ़ बीजेपी की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उसने दलित कैंडिडेट और वह भी भीमराव अंबेडकर के नाम के कैंडिडेट के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारा है और वह भी वैश्य जाति का.
ऐसे में दलितों के बीच पैठ बनाने की कोशिशों में जुटी बीजेपी को इस बात का जवाब भी देना पड़ सकता है कि उसने भीमराव अंबेडकर के नाम को हराने की कोशिश क्यों की.
बता दें कि उपचुनाव के नतीजों के पहले बीजेपी ने समाजवादी पार्टी को भी हराने का मन बनाया था. यही वजह है कि उसने 2 कैंडिडेट और उतारे थे लेकिन राज्यसभा की हार के साथ ही उन दोनों उम्मीदवरों ने अपने पर्चे वापस ले लिए.
एक तरफ गठबंधन जीत-हार के भंवर में फंसा है तो बीजेपी दलित के खिलाफ वैश्य उम्मीदवार उतारने के कशमकश में फंसी है अब देखना यह होगा कि राज्यसभा का यह चुनाव किस पर कितना भारी पड़ता है.