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पढ़ें: पाकिस्तान में आतंकियों के निशाने पर क्यों हैं सूफी धर्मस्थल?

पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना ने एक सेक्युलर पाकिस्तान का सपना देखा था. लेकिन अस्सी के दशक तक आते-आते पाकिस्तान की राह दूसरी ओर मुड़ चुकी थी.

पाकिस्तान में अस्तित्व की लड़ाई लड़ता सूफीवाद पाकिस्तान में अस्तित्व की लड़ाई लड़ता सूफीवाद
सबा नाज़
  • नई दिल्ली,
  • 17 फरवरी 2017,
  • अपडेटेड 9:05 AM IST

ऐसा माना जाता है कि भारतीय उप-महाद्वीप में इस्लाम उतना तलवार के जोर पर नहीं फैला, जितना सूफी-संतों की इबादत से. अजमेर से लेकर अटक तक आज भी सूफी परंपरा दुनिया के इस हिस्से में मजहब की हदों को तोड़ती है. फिर भी पिछले एक दशक में पाकिस्तान में सूफी धर्मस्थलों पर करीब 3 दर्जन हमलों में सैकड़ों लोग जान गंवा चुके हैं. भारत में भले ही सूफियों की मजारों पर हर मजहब के लोग दिल का सुकून हासिल करते हों लेकिन आज पाकिस्तान में ये संप्रदाय अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है तो इसकी ठोस वजहें हैं.

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जेहाद को समर्थन
पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना ने एक सेक्युलर पाकिस्तान का सपना देखा था. लेकिन अस्सी के दशक तक आते-आते पाकिस्तान की राह दूसरी ओर मुड़ चुकी थी. अस्सी के दशक की शुरुआत में अमेरिका ने अफगानिस्तान में सोवियत सेना को मात देने के लिए अफगानिस्तान में जेहाद का प्रोजेक्ट शुरू किया तो उस वक्त के पाकिस्तानी तानाशाह जिया उल हक खुशी-खुशी 'अंकल सैम' के साथ जा मिले. नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान में जेहाद की सोच ने जड़ें गहरी जमा लीं. आज पाकिस्तान में लश्कर-ए-झांगवी, जैश-ए-मोहम्मद, सिपह-ए-सहाबा जैसे कई संगठन फल-फूल रहे हैं, जो सूफी ही नहीं बल्कि इस्लाम के दूसरे अल्पसंख्यकों जैसे शिया और अहमदिया के वजूद के भी खिलाफ हैं.

सियासत और दहशत का मेल
कहा जाता है पाकिस्तान को अल्लाह के बाद अमेरिका और आर्मी ही चलाते हैं. यहां की सेना की दहशगर्द तंजीमों के साथ खास दोस्ती रही है. ताकतवर सेना से कुर्सी बचाए रखने के लिए पाकिस्तानी सियासतदान भी चरमपंथी संगठनों को ना सिर्फ बर्दाश्त करते हैं बल्कि उन्हें शह भी देते हैं. ऐसे ही तबकों को खुश करने के लिए सियासी पार्टियों ने अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव वाले ऐसे कई कानून बनाए जिनके लिए प्रगतिशील दुनिया में शायद ही कहीं जगह हो. यही वजह है कि आज कट्टर सुन्नी आतंकी संगठनों को रोकने का तरीका पाकिस्तानी नहीं सोच पा रहे हैं.

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खाड़ी देशों से लिंक
खराब अर्थव्यवस्था के चलते बड़ी तादाद में मिडल क्लास पाकिस्तानी खाड़ी देशों का रुख करते हैं. अस्सी के दशक से शुरू हुआ ये चलन आज इस मुकाम पर है कि खाड़ी देशों के कामगारों से होने वाली कमाई पाकिस्तान के कुल जीडीपी का अहम हिस्सा है. लेकिन इनमें से कई कामगार जब लौटते हैं तो खाड़ी देशों में प्रचलित कट्टर वहाबी इस्लाम का असर भी साथ लाते हैं. आज आलम ये है कि अरब देशों में कई आतंकी वारदातों में पाकिस्तानी पकड़े गए हैं.

पहचान का संकट
पाकिस्तान की नींव मजहब की बुनियाद पर रखी गई थी. साल 1971 में दोफाड़ होने के बाद इस पहचान का आधार छिन गया. इसकी प्रतिक्रिया में पाकिस्तान ने भारतीय जड़ों को भूलकर खुद को अरब संस्कृति में रंगने की कोशिश की. नतीजतन सूफी जैसी खालिस देसी प्रथाओं के लिए जगह सिमटती गई. पाकिस्तान में स्कूली शिक्षा भी कुछ ऐसी है जो कट्टरवाद को बढ़ावा देती है. लिहाजा पाकिस्तानी आबादी का एक बड़ा हिस्सा कट्टर सुन्नी नेताओं का पुरजोर समर्थन करता है.


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