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लखनऊ के चौधरी चरण सिंह अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की पक्की सड़क पर खड़ा आठ सीटों वाला जेट विमान हॉकर 900 एक्सपी कुछ दस्तअंदाज-सा दिख रहा है. हालांकि इसके अगले हिस्से पर कोई झंडा नहीं लगा है, कॉकपिट के ऊपर लाल बत्ती भी नहीं है, बावजूद इसके इस चढ़ी हुई दोपहर में सूरज की रोशनी में विमान का उजला रंग दमक रहा है और उसकी छोटी-छोटी खिड़कियों के कांच पर छाया कुछ इस तरह से आ-जा रही है जिसमें भीतर के आलीशान माहौल की कुछ झलक मिल रही है. विमान के भीतर देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री 42 वर्षीय अखिलेश यादव बैठे हैं. वे एक और तूफानी दौरे पर निकलने वाले हैं. इस बार वे सैफई जा रहे हैं, पिता मुलायम सिंह के गांव, जो राज्य के पहले परिवार की अनधिकारिक राजधानी बन चुका है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण शख्स होंगे, लेकिन वे कांटेदार सिंहासन पर बैठे कुछ असहज लगते हैं.
'इसे कहते हैं विकास'
विमान धरती को छोड़ता है. अखिलेश अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की चर्चा में व्यस्त हैं. उनका मानना है कि उन्हें सत्ता से हटाने के लिए मायावती और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) हाथ मिला सकती हैं. इस गहन राजनैतिक चर्चा के बीच अचानक उनकी आवाज बीच में लडख़ड़ा जाती है जब दूर किसी चीज पर उनकी निगाह पड़ती है. नीचे वे मिट्टी और पेड़ों के एक विशाल विस्तार की ओर इशारा करते हैं जिसके बीचोबीच एक लंबी सड़क लखनऊ से आगरा के बीच दोगुनी रफ्तार से बन रही है जो आगे यमुना एक्सप्रेसवे से जुड़कर दिल्ली तक जाएगी. वे कहते हैं, ''ये रहा, खुद देखिए. बिन किसी रोक के तीन सौ किलोमीटर. इसे कहते हैं विकास!"
छह बड़ी परियोजनाओं के भरोसे अखिलेश
श्विकास्य की यह पुनर्परिभाषा अतिरंजित जान पड़ सकती है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अखिलेश 2017 में अपने कार्यकाल पर जनादेश लेने से पहले विकास के सार्वभौमिक प्रतीक के तौर पर खुद का दोबारा आविष्कार करने के लिए जबरदस्त ढंग से प्रयासरत हैं. इसके लिए वे न तो वादे कर रहे हैं, न कोई प्रस्ताव दे रहे हैं और न ही कोई लक़ब गढ़ रहे हैं. उन्हें छह बड़ी परियोजनाओं पर भरोसा है जिनके दम पर उन्हें उम्मीद है कि बीएसपी, बीजेपी और कांग्रेस की लगातार आगे बढ़ती पलटनों से वे खुद को बचा ले जाएंगे. इसी के साथ उन्हें यह भी उम्मीद है कि वे उस यादव परिवार के भीतर खुद को अपने पिता की विरासत के इकलौते उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर पाएंगे, जहां कुर्सी का खेल लगातार चलता रहता है.
इसके अलावा उनकी चार परियोजनाओं में एक है चार लेन का राजमार्ग, जो 44 जिला मुख्यालयों को आपस में जोड़ेगा; दूसरी परियोजना लखनऊ मेट्रो की है जो मशहूर ई. श्रीधरन की निगरानी में निर्माणाधीन है; राजधानी लखनऊ के बाहरी इलाके चक गंजरिया में 1,500 करोड़ रु. की लागत से बन रही एक आइटी सिटी है, जिसमें शिव नाडर की एचसीएल कंपनी मुख्य भागीदार है; चौथी परियोजना लखनऊ में बन रहा एक कैंसर अस्पताल है जहां अत्याधुनिक सुविधाएं होंगी. छठवीं अहम परियोजना एक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम की है जिसे अखिलेश उसी शाम लखनऊ लौटते वक्त विमान में से उत्साह के साथ दिखाते हैं और ऐसा करते हुए उनकी आंखों में चमक लौट आती है.
यादव परिवार में सत्ता का असंतुलन
अखिलेश के लिए जरूरी है कि ये सभी परियोजनाएं और साथ ही दूसरे छिटपुट काम इस साल के अंत तक पूरे हो जाएं ताकि उत्तर प्रदेश चुनाव में उनका लाभ लिया जा सके और उन्हें यादव परिवार के दूसरे सदस्यों पर अपना वर्चस्व जताने का भी मौका मिल सके. इस परिवार में सबसे अहम उनके चाचा 61 वर्षीय शिवपाल सिंह यादव जैसे ताकतवर मंत्री हैं, जिनके मातहत कई विभाग हैं. अखिलेश के समाजवादी पार्टी (सपा) का प्रदेश अध्यक्ष होने के बावजूद शिवपाल को 2017 के प्रचार का प्रभारी बनाया गया है जिसके चलते छह सांसदों और राजनीति के विभिन्न पायदानों पर कम से कम 20 सदस्यों वाले इस परिवार में सत्ता असंतुलन पैदा हो गया है. क्या चुनाव के दौरान प्रचार प्रभारी के पास पार्टी अध्यक्ष के मुकाबले ज्यादा ताकत होती है, यह पूछे जाने पर शिवपाल मुस्कराकर कहते हैं, ''हां, होती है." कहा जा रहा है कि पार्टी आगामी चुनाव हार जाती है तो 76 साल के मुलायम सिंह यादव की विरासत बड़ी आसानी से शिवपाल के पास चली जाएगी क्योंकि पार्टी कार्यकर्ताओं पर उनकी अच्छी पकड़ है, खासकर इटावा-मैनपुरी के इलाके में, जो इस परिवार का परंपरागत गढ़ है.
सपा के मुस्लिम वोट बैंक पर मायावती की नजर
इस दौरान विपक्षी दलों को भी सत्ता की हवा लग गई है. मुजफ्फरनगर में हुए 2013 के दंगों के बाद मुस्लिम वोटों पर अखिलेश की ढीली होती पकड़ का अंदाजा मायावती को लग चुका है. लिहाजा, उन्होंने व्यापक प्रचार अभियान शुरू कर दिया है ताकि अपने लिए बनवाए गुलाबी बालूपत्थर के नगरकोटे पर वे दोबारा दावा जता सकें. दूसरी ओर बीजेपी है जिसके सिर से अब भी 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी की 80 में से 71 सीटें जीतने का नशा नहीं उतरा है. इसके अलावा मई में पहली बार असम विधानसभा चुनाव में हासिल जीत ने उसे और मजबूत किया है. इस बार पार्टी की योजना अगड़ी जातियों के वोट बैंक के पार जाने की है. उसने स्वयंभू गोरक्षक और पिछड़ी जाति के नेता केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय गृह मंत्री (उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री) राजनाथ सिंह ने पहले ही जता दिया है कि यह राज्य उनकी व्यापक योजना में कितनी अहमियत रखता है. उन्होंने वादा किया है कि यहां बहुमत हासिल करने के लिए वे कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे. बची कांग्रेस, तो वह यहां अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने को बेताब है और खुद को इकलौती पार्टी के रूप में सामने रख रही है जो बीजेपी के खिलाफ एक सेकुलर संघीय मोर्चे को एकजुट करने का दम रखती है. उसने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को काम पर लगाया है.
अखिलेश इन तमाम अंदरूनी और बाहरी चुनौतियों के बीचोबीच खड़े हैं. समाजवादी पार्टी की जिस फौज के सहारे वे मोर्चा ले रहे हैं, उस पर उनकी पकड़ कमजोर है और वह चौतरफा दुश्मनों से भी घिरी हुई है. इस चुनावी मैदान से सत्ता विरोधी धुंध लगातार उठ रही है.
दांव पर सपा का भविष्य
अगले साल के चुनाव में दांव पर न सिर्फ अखिलेश हैं, बल्कि समाजवादी पार्टी का भविष्य भी है. 1990 में मुख्यमंत्री के बतौर अपने पहले कार्यकाल में मुलायम ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को बचाकर मुसलमानों के हितैषी की छवि बनाई और मंडल आंदोलन के बाद की राजनीति में वे पिछड़े नेता के रूप में उभरे, जिसके सहारे उनका एक व्यापक जनाधार तैयार हुआ था. अब उनकी सेहत बहुत ठीक नहीं है, तो पकड़ भी ढीली हो रही है. अब यह अखिलेश के जिक्वमे रह गया है कि वे अपने परंपरागत वोट बैंक को कैसे पकड़े रखें और पार्टी के आधार को कैसे विस्तार दें. यही वजह थी कि मुलायम ने 2012 में उन्हें मुख्यमंत्री बनवाया ताकि सत्ता का हस्तांतरण सहजता से किया जा सके. मुख्यमंत्री के बतौर अखिलेश का पहला कार्यकाल हालांकि कानून-व्यवस्था से जुड़े विवादों से ही घिरा रहा है, नौकरशाहों ने उन्हें दरकिनार किया है, क्योंकि वे अब भी उनके पिता को ही असली मुखिया मानते हैं और परिवार के सदस्यों ने भी उन्हें बांधे रखा है. अखिलेश दरअसल अपने पिता की जगह लेने के लिए अब तक एक जनाधार वाले नेता के तौर पर उभर नहीं पाए हैं. इसकी आंशिक वजह यह है कि खुद मुलायम ही अपनी तरफ से नियंत्रण की लगाम ढीली नहीं कर सके हैं. इस बात का डर है कि लगातार दो दशक तक सबसे बड़ी क्षेत्रीय ताकत की भूमिका में रही सपा पांच साल सत्ता से बाहर रहने के बाद हाशिए पर न पहुंच जाए और अखिलेश का राजनैतिक भविष्य कहीं हमेशा के लिए खत्म न हो जाए.
यादव परिवार से निकलतीं हैं कई धारा
एक धारा मुलायम के बड़े भाई रतन सिंह से निकलती है जो आज उनके पोते और मैनपुरी के सांसद तेज प्रताप सिंह यादव तक आती है जो संसद में सबसे छोटे यादव सांसद हैं. दूसरी धारा मुलायम के छोटे भाई अभय राम यादव से शुरू होती है जो सैफई के एक स्वाभिमानी ग्वाला हैं. उनके बेटे धर्मेंद्र बदायूं से सांसद हैं. तीसरी धारा मुलायम के पहले चचेरे भाई राम गोपाल यादव से निकलती है जो राज्यसभा के सांसद हैं और जिन्हें परिवार में ''प्रोफेसर" के नाम से जाना जाता है, जिनके बेटे अक्षय फिरोजाबाद से सांसद हैं. इसके बाद मुलायम के सबसे छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव हैं जो उनके सबसे भरोसेमंद करीबी हैं. वे विधायक हैं और उनके बेटे आदित्य राज्य सहकारी संघ के मुखिया हैं. अखिलेश खुद मुलायम की पहली पत्नी मालती देवी के बेटे हैं और उनकी पत्नी डिंपल कन्नौज से सांसद है. इसके बाद बारी आती है प्रतीक की जो मुलायम की दूसरी पत्नी साधना सिंह के बेटे हैं जबकि उनकी महत्वाकांक्षी पत्नी अपर्णा 2017 में लखनऊ (कैंट) से विधायक प्रत्याशी हैं. इन अहम सदस्यों के बीच पहले, दूसरे और तीसरे चचेरे भाई हैं जो पार्टी की कमेटियों और अन्य इकाइयों में अलग-अलग पदों पर हैं. शिवपाल ईमानदारी से कहते हैं, ''कुछ लोग अपनी मेहनत की फसल काट रहे हैं, कुछ की किस्मत अच्छी है."
एकजुटता मुलायम के कुनबे की ताकत
नाम न छापने की शर्त पर एक अन्य रिश्तेदार कहते हैं, ''नेताजी बरगद के पेड़ की तरह हैं और हम सब उनकी छाया में फल-फूल रहे हैं." वे इतनी सराहना वाला वाक्य इसलिए कह रहे हैं क्योंकि उन्हें अंदाजा है कि यह बातचीत कहां तक जा सकती है. यादव खानदान एक साधारण वृक्ष के बजाए एक जटिल सत्ता संरचना की तरह है. ऐसा नहीं है कि सभी रिश्तेदारों-नातेदारों के बीच संबंध बहुत अच्छे हैं. वैसे खुले में कोई रंजिश तो नहीं है और किसी बाहरी हमले के खिलाफ कुनबा हमेशा एकजुट रहता है, लेकिन भीतर ही भीतर टकराहटें होती रहती हैं. परिवार में यह चर्चा भी खुले रूप में होती है कि अखिलेश ने मुख्यमंत्री का पद अपनी काबिलियत से अर्जित किया है या फिर अपने पिता के कारण वे इसका लाभ उठा रहे हैं.
परिवार में उत्तराधिकार की जंग
मसलन, सैफई में ''नेताजी", ''मंत्रीजी" (शिवपाल) और ''मुख्यमंत्रीजी" या ''भैया" के बीच का महीन फर्क इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि आप इस चमकते हुए ग्रामीण इलाके के किस हिस्से में खड़े हैं. कहने का मतलब यह नहीं है कि उत्तराधिकार की जंग खुले में चल रही है. अखिलेश कई साल तक बचपन में शिवपाल के साथ रहे थे और दोनों के बीच बाप-बेटे जैसा रिश्ता है. इसके बावजूद यह सवाल अब तक अनसुलझा है कि दोनों में से कौन मुलायम (जो अब आंशिक रूप से अवकाश की स्थिति में आ चुके हैं) की धरती के लाल वाली विरासत पर सच्चा दावा कर सकता है या फिर परिवार में कोई तीसरा है जिसका उपयुक्त वारिस के बतौर उभरना अभी बाकी है.
'मैं समाजवादी नहीं, मुलायमवादी हूं: अमर सिंह
मामले के और ज्यादा उलझने की वजह यूपी कैबिनेट में वरिष्ठ मंत्री और पार्टी का मुस्लिम चेहरा आजम खान का रसूख है क्योंकि वे खुद में ही कानून समझे जाते हैं. यही हाल सियासी चाल में माहिर अमर सिंह का है, जो 2010 में पार्टी से खदेड़े जाने से पहले तक मुलायम पर अच्छा-खासा प्रभाव रखते थे और किसी तरह दोबारा मजबूत होकर उभरे हैं. अमर सिंह पिछले नवंबर में मुलायम के जन्मदिन समारोह में सैफई में उपस्थित थे. उन्होंने 2 अप्रैल को ज़ी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा के घर पर शिवपाल के बेटे आदित्य की शादी के रिसेप्शन की मेजबानी की थी. इसके बाद 17 मई को पार्टी ने राज्यसभा में उनके नामांकन का समर्थन कर दिया. इस मौके पर उनका पहला बयान हमेशा की तरह बहुत मौजूं रहा, ''मैं समाजवादी नहीं, मुलायमवादी हूं."
अखिलेश जानते हैं कि कामयाबियां धीरे-धीरे ही हासिल होती हैं और एक कामयाबी दूसरी के लिए रास्ता बनाती है. इसी सोच के चलते बीते 18 महीनों के दौरान मुख्यमंत्री ने अपनी चाल बदली है. वे कहते हैं, ''तरक्की खुद बोलती है. उसे प्रचारित करने की जरूरत नहीं होती."
हमेशा से हालांकि ऐसा नहीं था. अखिलेश 2012 में सपा के युवा चेहरे के रूप में मायावती सरकार के खिलाफ माहौल के कंधे पर सवार होकर सत्ता में आए थे. उत्तर प्रदेश की त्रासदी यह है कि बीएसपी की कोई भी सरकार (1995 के बाद चार सरकारें) अपने भ्रष्टाचार और घोटालों के लिए जानी जाती हैं तो सपा की हर सरकार (1989 के बाद चार सरकारें) कानून-व्यवस्था से जुड़ी समस्याओं के लिए कुख्यात रही हैं. अखिलेश ने जब पहली बार कमान हाथ में ली, तो कुछ संदेह जरूर था लेकिन एक उम्मीद भी थी कि वे राजकाज का एक ताजा और तकनीक प्रवण तरीका अख्तियार करेंगे.
राज्य का सबसे युवा मुख्यमंत्री (उस वक्त 39 साल) कुछ दिन बाद ही लाचार नजर आने लगा. सत्ता में आने के हफ्ते भर बाद ही अखिलेश ने उस फैसले को पलट दिया जिसके अनुसार यूपी कांस्टेबुलरी को उसके गृह जिले या पड़ोस के जिले में तैनात नहीं किया जाना था. इसी चलन के कारण जाति आधारित पुलिसिया राज कायम हुआ था. मसलन, इटावा और मैनपुरी के आसपास यादवों का राज या मुजफ्फरनगर और मेरठ में जाटों का राज. अखिलेश ने मुख्यतः यादवों के हित में इस नीति को तिलांजलि दे दी और जल्दी ही राज्य के 800 थानों पर यादवों का राज हो गया. एक वरिष्ठ पुलिस अफसर बताते हैं, संगठित अपराधों से निपटने वाली यूपी पुलिस की दो सबसे प्रभावशाली इकाइयां विशेष कार्य बल (एसटीएफ) और आतंकवाद निरोधी दस्ता (एटीएस) नए शासन के तहत निष्क्रिय हो गईं जिसके चलते पुराने आपराधिक गिरोहों का दोबारा उभार हो गया. साल भर बीतते-बीतते कानून व्यवस्था का तेजी से पतन होने लगा.
कमान संभालने के कुछ महीनों के भीतर ही यूपी सचिवालय में यह चर्चा होने लगी कि नए मुख्यमंत्री नीतिगत चर्चाओं के दौरान खुद को समेट लेते हैं और अक्सर बैठकों में अपने स्मार्टफोन पर लगे रहते हैं. कभी सर्वशक्तिशाली रहे यूपी सचिवालय के पंचम तल पर स्थित दफ्तर में वे शायद ही कभी जाते थे और 5, कालिदास मार्ग स्थित अपने सरकारी आवास से ही काम करना पसंद करते थे. यहां वे लगातार स्थानीय टीवी चैनलों से मुलाकातें करते और अपने पिता के भेजे स्थानीय नेताओं से मिलते थे, जिनका कोई छोटा-मोटा काम करवाना होता था. शाम सात बजे के बाद उनसे मिलना बहुत मुश्किल हो जाता क्योंकि यह वक्त वे अपने परिवार और दोस्तों के संग बिताते थे. इनमें अधिकतर दोस्त स्थानीय कारोबारी थे जिन्हें सपा के अंदरूनी लोग अखिलेश की ''हाय-हलो ब्रिगेड" के नाम से पुकारते हैं और उन पर अखिलेश को जमीनी हकीकत से दूर करने का दोष मढ़ते हैं. फिर वे अक्सर विदेश यात्राओं पर रहने लगे. राजकाज का अधिकांश काम मुलायम, उनकी वफादार आइएएस अफसर अनिता सिंह (जो अब भी प्रधान सचिव के बतौर अखिलेश पर करीबी निगाह रखती हैं), शिवपाल , आजम खान और रामगोपाल निपटा रहे थे. नौकरशाहों के बीच एक लतीफा चल पड़ा था जिसका इंडिया टुडे ने 2013 में जिक्र भी किया था कि राज्य में साढ़े पांच मुख्यमंत्री हैं—अखिलेश आधा हैं.
अखिलेश हरकत में तब आए जब 2014 के आम चुनाव में परिवार के पांच सदस्यों को छोड़कर पार्टी के सारे प्रत्याशी हार गए. ऐसा लग रहा था कि उनके कार्यकाल के बचे हुए तीन वर्षों की अंतिम गिनती चालू हो गई है. प्रधानमंत्री के पद पर मोदी के शपथ लेने के बमुश्किल दो हफ्ते बाद 10 जून, 2014 को उन्होंने विधानसभा के तिलक हॉल में राज्य के सभी वरिष्ठ अफसरों को तलब किया और कहा कि उन्हें उनकी कार्रवाइयों के लिए जवाबदेह होना पड़ेगा. वे साफ बोले, ''आप नतीजे नहीं देंगे तो हटा दिया जाएगा."
विकास की चाल
कानून-व्यवस्था समेत कई मसलों पर कई बार उनके पिता और दूसरे रिश्तेदारों को समझा पाना मुश्किल होता था, इसलिए अखिलेश ने अपनी विकास परियोजनाओं पर खुद को एकाग्र करने का निर्णय लिया. काम करवाने वाले अफसर के रूप में प्रतिष्ठित आलोक रंजन ने तुरंत मुख्य सचिव का पद ग्रहण किया था. इससे उनका काम आसान हो गया. लखनऊ मेट्रो का निर्माण सपा के घोषणापत्र का हिस्सा था. यह सितंबर 2014 में शुरू हुआ. लखनऊ-आगरा एक्सप्रेसवे घोषणापत्र में शामिल नहीं था लेकिन उसकी नींव नवंबर 2014 में रखी गई.
भीतर के लोग बताते हैं कि अखिलेश की कुछ पुरानी दिक्कतें अब तक बरकरार हैं. जैसे बैठकों के दौरान फोन में गुम हो जाना, शाम को गायब हो जाना और परिवार के दबाव के आगे घुटने टेक देना (मुलायम दो बार उन्हें सार्वजनिक तौर पर डांट चुके हैं, एक बार 2014 और दूसरी बार 2015 में). सचिवालय के अफसर हालांकि यह मानते हैं कि वे बदले हैं—पहले वे किसी चीज की परवाह नहीं करते थे लेकिन आज वे काफी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन जैसे-जैसे उनकी पसंदीदा परियोजनाएं आकार लेती जा रही हैं, उनका आत्मविश्वास बढ़ता ही जा रहा है.
अखिलेश स्वीकार करते हैं, ''शायद मुझे हरकत में आने में कुछ वक्त लग गया. यह राज्य बहुत बड़ा और जटिल है. आपको काम कराने के लिए सही अफसरों को और सही तरीकों को ढूंढना होता है." सवाल यह है कि क्या अचानक आया यह बदलाव उनकी शुरुआती निष्क्रियता की भरपाई कर पाएगा या बहुत देर हो चुकी है?
अखिलेश की विकास योजना में दो चीजों पर मुख्य जोर है—परिवहन और निवेश. इसमें स्वास्थ्य सेवा और पर्यटन को भी जोड़ा गया है. राज्य में एक प्रोजेक्ट मैनेजमेंट ग्रुप मौजूदा 21 परियोजनाओं की साप्ताहिक समीक्षा करता है. इसमें कुल 20,000 करोड़ रु. का अनुदान शामिल है जिसे विभिन्न तरीकों से जुटाया गया है.
लखनऊ-आगरा एक्सप्रेसवे परियोजना पूरी तरह राज्य सरकार की है जिसकी लागत 8,775 करोड़ रु. है और लंबाई 326 किलोमीटर है. निजी-सरकारी सहभागिता की कोशिशें की गई हैं लेकिन अंत में सरकार ने यह सड़क सरकारी कोष से बनवाने का फैसला किया, जिसमें सड़क के खुल जाने के बाद टोल के माध्यम से निर्माण और रखरखाव का एक हिस्सा निकाल लेने की गुंजाइश भी रखी गई है.
अखिलेश विमान में ही पूछते हैं, ''आप देख रहे हैं कि हम लोग सड़क के किनारे-किनारे उड़ रहे हैं? कहीं ऐसा होता है क्या?" वे कहते हैं, ''हमने राजमार्ग को बिल्कुल सीधा बनाया है. यह दो बिंदुओं के बीच सबसे छोटी दूरी है." सरकार ने इस परियोजना के लिए बिना कोई असंतोष पैदा किए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहित कर ली. इसके लिए किसानों को सर्किल दर के चार गुना तक भुगतान किया गया. अखिलेश ने आश्वस्त किया कि कम से कम मंजूरियों की जरूरत पड़े. इसके लिए परियोजना को उन पर्यावरणीय क्षेत्रों से दूर रखा गया जिनके लिए केंद्रीय मंजूरी की दरकार होती है. इटावा के पास मूल योजना के करीब शेरों का अभयारण्य पड़ रहा था. मंजूरी से बचने के लिए अखिलेश बताते हैं कि सड़क को दस किलोमीटर दूर कर दिया गया क्योंकि ''वह मंजूरी नहीं मिलती."
एक अन्य अहम परियोजना लखनऊ मेट्रो पर भी काम जारी है. पहला चरण 2,000 करोड़ रु. की लागत का है जो इस दिसंबर में पूरा हो जाएगा. कानपुर, मेरठ, इलाहाबाद और प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में भी मेट्रो नेटवर्क की योजना बनाई जा रही है.
मायावती का सांकेतिक जिक्र करते हुए वे कहते हैं, ''चीजें अब पूरी रफ्तार से चल रही हैं. लोग देख रहे हैं कि चीजें बदल रही हैं. हम लोग अपनी प्रतिमाएं नहीं बनवा रहे हैं और ऐसे पार्क नहीं बनवा रहे जिन पर ताला लगा रहता है. हम सभी का जीवन बेहतर बना रहे हैं."
इन परियोजनाओं का असर भी हो रहा है. सरकारी आंकड़े के मुताबिक, राज्य की जीडीपी वृद्धि दर (बाजार मूल्य पर) 2014-15 में बढ़कर 6.2 फीसदी हो गई है जो 2013-14 में 4.9 फीसदी थी. विदेशी निवेश भी बढ़ रहा है, लेकिन 66 फीसदी खेती वाला यह राज्य अब भी शिक्षा, आवास और ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवा के मामले में पिछड़ा हुआ है. मसलन, शिशु मृत्यु दर 2013 के आंकड़े के मुताबिक, प्रति 1,000 प्रसव पर 50 थी जबकि राष्ट्रीय औसत 40 का है.
दोबारा ब्रान्ड की एक कवायद भी चल रही है जिसमें अखिलेश को दृष्टिसंपन्न युवा मुख्यमंत्री के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. प्रिंट, रेडियो और टीवी के विज्ञापनों में तमाम परियोजनाओं की बात हो रही है और खासकर यह कि अखिलेश पूरा करने में लगे हुए हैं. यूपी सरकार के किसी भी आला अधिकारी से फोन पर बात करिए, तो आपको ''युवा सोच, युवा जोश" वाली कॉलर टोन सुनाई देगी, जो दरअसल अखिलेश की युवा ऊर्जा का जयगान है.
उत्तर प्रदेश की जंग
लेकिन अभी यह तय होना है कि अगले वसंत में उत्तर प्रदेश को जीतने के लिए यह काम काफी है या नहीं, और अखिलेश यादव की सरकार पहले 30 महीनों में की गई गलतियों से पीछा छुड़ा पाएगी या नहीं. खासकर उन गलतियों से, जिनकी वजह से मुसलमानों के छिटकने की धारणा बनी और कानून-व्यवस्था की हालत बिगड़ी.
विपक्ष ने तीन आधारों पर अखिलेश को निशाना बनाने का फैसला किया है. एक तो उनकी शुरुआती छवि में घपला था. दूसरे, वे घमंडी और बेतकल्लुफ नेता हैं जिन्हें अपने चारों तरफ मौजूद चुनौतियों की कोई परवाह नहीं है. तीसरे, वे अपनी पारिवारिक मजबूरियों में इस कदर फंसे हुए हैं कि अपने दम पर कुछ नहीं कर सकते. 14 अप्रैल को दलित महापुरुष बी.आर. आंबेडकर की जन्मशती के जलसों में 60 वर्षीया मायावती गरजीं, ''उस आदमी से लोगों की भलाई की भला क्या उम्मीद कर सकते हैं जो सैफई में मेलों पर मोटी रकम फूंक रहा है, विदेशों की यात्राएं कर रहा है और अफसरों के साथ मैच खेलने में मसरूफ है. अफसर मैच में आपको जिता सकते हैं, चुनाव में नहीं." मायावती उस दोस्ताना मैच का जिक्र कर रही थीं जो हाल ही में सीएम इलेवन और आइएएस इलेवन के बीच हुआ था. जवाब में अखिलेश ''बुआ" कहकर मायावती का जिक्र करते हैं और उन्हें तीखे मुकाबले की चुनौती देते हैं. वे बार-बार जोर देकर कहते हैं कि वे बीजेपी से हाथ मिला सकती हैं. इसके पीछे उनका इरादा मुस्लिम मतदाताओं को आगाह करना होता है. इसी तरह पूर्व सपा नेता राज बब्बर, जो अब कांग्रेस में हैं और जिन्होंने 2009 में कन्नौज के लोकसभा उपचुनाव में डिंपल को हराया था, अखिलेश के कामकाज को ''10 में से जीरो" नंबर देते हैं. वे आरोप लगाते हैं कि ''चार साल तक तो सोते रहे और अब भारी परियोजनाओं को साल भर में पूरा करने की तेजी दिखा रहे हैं." मुख्यमंत्री इन आरोपों को हाथ के इशारे से परे कर देते हैं.
यूपी के चुनावी गणित को समझना आसान नहीं
उत्तर प्रदेश का चुनावी गणित हमेशा बहुत उलझा हुआ रहा है. 2012 में जब सपा ने 403 में से 224 सीटें जीतकर सत्ता में धमाकेदार वापसी की थी, तब वोटों में उसकी हिस्सेदारी 29 फीसदी थी, जबकि उस वक्त सत्ता में होते हुए मायावती ने 26 फीसदी वोट हासिल किए थे. बीजेपी महज 15 फीसदी और कांग्रेस 12 फीसदी वोट हासिल कर सकी थीं. मगर 2014 में नाटकीय तब्दीली आई जब राज्य में मोदी लहर ने बीजेपी की झोली में 43 फीसदी वोट डाल दिए और गद्दीनशीन सपा 22 फीसदी वोटों पर सिमट गई. तकरीबन 20 फीसदी लोकप्रिय वोट हासिल करने वाली बीएसपी अपना खाता तक नहीं खोल सकी. इस बार तीखा चौतरफा मुकाबला होने की संभावना जताई जा रही है, जिसमें कांग्रेस से किसी चमत्कार की सबसे कम उम्मीद है.
दलित और ओबीसी वोटों का गणित
सूबे के 20 फीसदी दलित वोट पारंपरिक तौर पर मायावती की झोली में जाते रहे हैं. 50 फीसदी ओबीसी वोटों में से एक हिस्सा मुलायम सिंह के साथ रहता है, जबकि बाकी बीएसपी और बीजेपी के बीच झूलते रहते हैं. 2014 में हिंदुओं के गोलबंद होने की वजह से इन वोटों का बड़ा हिस्सा बीजेपी के खाते में गया था. हालांकि वोटों की इस किस्म की नाटकीय गोलबंदी शायद दोबारा मुमकिन न हो, मगर बीजेपी मौर्य को पार्टी के नए चेहरे के तौर पर पेश करने से फायदा मिलने की उम्मीद कर रही है. असली लड़ाई 19 फीसदी मुस्लिम वोटों की है, जो या तो मुलायम और कांग्रेस के बीच पसोपेश में रह सकते हैं, या एकमुश्त मायावती के पाले में जा सकते हैं. 2007 में बीजेपी के खतरे का मुकाबले करने के लिए वे थोक में मायावती के साथ चले गए थे. मुस्लिम और ओबीसी वोटों का साथ आना, या मुस्लिम और दलित वोटों का गोलबंद होना आम तौर पर सपा या बीएसपी को सत्ता में लाने के लिए काफी है. बीजेपी मुस्लिम वोटों के मुकाबले के लिए ओबीसी और ऊंची जातियों को गोलबंद करने की कोशिश कर रही है. बीजेपी यूपी को फतह करने और राज्य में फिर से अपनी हुकूमत का दावा करने के लिए लव जिहाद, गोहत्या, घर वापसी और राम मंदिर जैसे मुद्दे उठाकर ध्रुवीकरण करने की कोशिश करेगी.
सपा को मुस्लिम वोट छिटकने का खतरा
हालांकि अखिलेश को सबसे बड़ी चुनौती चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती से ही मिलने की संभावना है, जिनकी मुलायम के साथ अदावत जितनी सियासी है, उतनी ही निजी भी है. मुस्लिम वोटों के सपा से छिटकने का खतरा बना हुआ है, तो इसकी कई वजहें हैं. इनमें मुजफ्फरनगर के दंगों को रोकने में सरकार की नाकामी, बिहार में बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन से मुलायम का बाहर आना और 1990 में अयोध्या में ढांचा गिराने को बेताब कारसेवकों पर गोली चलाने पर पछतावा महसूस करने वाला उनका बयान भी है, जिन्हें लेकर मुसलमानों में गुस्सा है.
मुलायम पर नहीं टिका है 2017 का चुनाव
कुछ साल पहले तक यह बात अजीब लग सकती थी, मगर 2017 का उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव न तो मुलायम पर टिका है और न ही विपक्ष पर. इसके बजाए वह इस सवाल पर टिका है कि अखिलेश अपनी नई छवि लोगों के गले उतारने और विकास के अपने कामों का श्रेय लेने में कामयाब हो पाते हैं या नहीं. इस रणनीति में 2007 के गुजरात विधानसभा के चुनावों की गूंज—या नकल—सुनाई देती है, जब मोदी को विकास की मूरत बनाकर पेश किया गया था.
लखनऊ हवाई अड्डे पर उतरते ही, कालिदास मार्ग पर अपनी अगली बैठक का रुख करते समय अखिलेश की घेराबंदी की एक झलक मिलती है. वे यहां से एक फरलांग दूरी पर विक्रमादित्य मार्ग पर एक विशाल बंगले में मुलायम, साधना, प्रतीक और अपर्णा के साथ रहते हैं. यहां से दो मकान छोड़कर आजम खान का घर है, तीन मकान छोड़कर समाजवादी पार्टी का दफ्तर है, और सड़क पार करके थोड़ा सामने शिवपाल का निजी घर है. किसी को भी लगेगा कि अखिलेश अपने कुनबे को जीत लेते हैं तो इसका उनके सूबे को जीतने पर सीधा असर पड़ेगा. मगर यहां, इस खदबदाते सियासी कड़ाहे में, इसका उलटा मतलब भी हो सकता है.
तेज चाल से अपने दक्रतर में दाखिल होने से ठीक पहले अखिलेश एक आखिरी बात कहने के लिए पलटते हैं. वे कहते हैं, ''मेरे दिमाग में तो बस अगले कुछ महीनों का... काम खत्म करने का ख्याल है." फिर कुछ ठहरकर बात पूरी करते हैं, ''2017 अपना ख्याल खुद रख लेगा."