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हैप्पी बर्थडे नेताजी! 77 साल के मुलायम की जिंदगी में आए ये बड़े उतार-चढ़ाव

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव मंगलवार को 77 साल के हो गए. इसी महीने उनकी पार्टी ने 25 साल पूरे किए हैं. कुछ वक्त पहले मुलायम के कुनबे में मची कलह अब शांत होती दिख रही है. सियासत की दुनिया में नेताजी के तौर पर मशहूर मुलायम ने अपने राजनीतिक करियर में तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं.

मुलायम सिंह यादव मुलायम सिंह यादव

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव मंगलवार को 77 साल के हो गए. इसी महीने उनकी पार्टी ने 25 साल पूरे किए हैं. कुछ वक्त पहले मुलायम के कुनबे में मची कलह अब शांत होती दिख रही है. सियासत की दुनिया में नेताजी के तौर पर मशहूर मुलायम ने अपने राजनीतिक करियर में तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं.

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22 नवंबर 1939 को इटावा जिले के सैफई में जन्मे मुलायम सिंह की पढ़ाई-लिखाई इटावा, फतेहाबाद और आगरा में हुई. मुलायम कुछ दिनों तक मैनपुरी के करहल स्थ‍ित जैन इंटर कॉलेज में प्राध्यापक भी रहे. पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर मुलायम सिंह की दो शादियां हुईं. पहली पत्नी मालती देवी का निधन मई 2003 में हो गया था. यूपी के मौजूदा सीएम अखि‍लेश यादव मुलायम की पहली पत्नी के बेटे हैं. मुलायम की दूसरी पत्नी हैं साधना गुप्ता. फरवरी 2007 में सुप्रीम कोर्ट में मुलायम ने साधना गुप्ता से अपने रिश्ते कबूल किए तो लोगों को नेताजी की दूसरी पत्नी के बारे में पता चला. साधना गुप्ता से मुलायम के बेटे प्रतीक यादव हैं.

टीचर से विधायक बने पहलवान मुलायम
पिता सुधर सिंह मुलायम को पहलवान बनाना चाहते थे लेकिन पहलवानी में अपने राजनीतिक गुरु नत्थूसिंह को मैनपुरी में आयोजित एक कुश्ती-प्रतियोगिता में प्रभावित करने के बाद उन्होंने नत्थूसिंह के परंपरागत विधान सभा क्षेत्र जसवंतनगर से अपना राजनीतिक सफर शुरू किया. राम मनोहर लोहिया और राज नरायण जैसे समाजवादी विचारधारा के नेताओं की छत्रछाया में राजनीति का ककहरा सीखने वाले मुलायम 28 साल की उम्र में पहली बार विधायक बने. जबकि उनके परिवार का कोई सियासी बैकग्राउंड नहीं था. ऐसे में मुलायम के सियासी सफर में 1967 का साल ऐतिहासिक रहा जब वो पहली बार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे. यह और बात है कि उस वक्त समाजवादी पार्टी का नामोनिशान तक नहीं था. मुलायम संघट सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर अपने गृह जनपद इटावा की जसवंतनगर सीट से आरपीआई के उम्मीदवार को हराकर विजयी हुए थे. मुलायम को पहली बार मंत्री बनने के लिए 1977 तक इंतजार करना पड़ा. उस वक्त कांग्रेस विरोधी लहर में उत्तर प्रदेश में भी जनता सरकार बनी थी.

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50 साल की उम्र में पहली बार बने सीएम
मुलायम सिंह यादव 1980 के आखिर में उत्तर प्रदेश में लोक दल के अध्यक्ष बने थे जो बाद में जनता दल का हिस्सा बन गया. मुलायम 1989 में पहली बार उत्तर प्रदेश के सीएम बने. नवंबर 1990 में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार गिर गई तो मुलायम सिंह चंद्रशेखर की जनता दल (समाजवादी) में शामिल हो गए. और कांग्रेस के समर्थन से सीएम की कुर्सी पर विराजमान रहे. अप्रैल 1991 में कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सिंह की सरकार गिर गई. 1991 में यूपी में मध्यावधि चुनाव हुए जिसमें मुलायम सिंह की पार्टी हार गई और बीजेपी सूबे में सत्ता में आई.

1992 में नेताजी ने बनाई अपनी पार्टी
चार अक्टूबर, 1992 को लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा की. समाजवादी पार्टी की कहानी मुलायम सिंह के सियासी सफर के साथ-साथ चलती रही. मुलायम सिंह यादव ने जब अपनी पार्टी खड़ी की तो उनके पास बड़ा जनाधार नहीं था. नवंबर 1993 में यूपी में विधानसभा के चुनाव होने थे. सपा मुखिया ने बीजेपी को दोबारा सत्ता में आने से रोकने के लिए बहुजन समाज पार्टी से गठजोड़ कर लिया. समाजवादी पार्टी का यह अपना पहला बड़ा प्रयोग था. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पैदा हुए सियासी माहौल में मुलायम का यह प्रयोग सफल भी रहा. कांग्रेस और जनता दल के समर्थन से मुलायम सिंह फिर सत्ता में आए और सीएम बने.

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जब पीएम बनते-बनते रह गए थे नेताजी
समाजवादी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के इरादे से मुलायम ने केंद्र की राजनीति का रुख किया. 1996 में मुलायम सिंह यादव 11वीं लोकसभा के लिए मैनपुरी सीट से चुने गए. उस समय केंद्र में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो उसमें मुलायम भी शामिल थे. मुलायम देश के रक्षामंत्री बने थे. हालांकि, यह सरकार बहुत लंबे समय तक चली नहीं. मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने की भी बात चली थी. प्रधानमंत्री पद की दौड़ में वे सबसे आगे खड़े थे, लेकिन लालू प्रसाद यादव और शरद यादव ने उनके इस इरादे पर पानी फेर दिया. इसके बाद चुनाव हुए तो मुलायम सिंह संभल से लोकसभा में वापस लौटे. असल में वे कन्नौज भी जीते थे, लेकिन वहां से उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव को सांसद बनाया.

2012 में बेटे को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाया
2003 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को जीत नसीब हुई. 29 अगस्त 2003 को मुलायम सिंह यादव एक बार फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. यह सरकार चार साल ही रह पाई. 2007 में विधानसभा चुनाव हुए मुलायम सिंह सत्ता से बाहर हो गए. 2009 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की हालत खराब हुई तो मुलायम सिंह ने बड़ा फैसला लिया. राज्य विधानसभा में नेता विपक्ष की कुर्सी पर छोटे भाई शिवपाल यादव को बिठा दिया और खुद दिल्ली की सियासत की कमान संभाल ली. 2012 के चुनाव से पहले नेताजी ने अपने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश सपा की कमान सौंपी. 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा के पक्ष में अप्रत्याशित नतीजे आए. नेताजी ने बेटे अखि‍लेश को सूबे के सीएम की कुर्सी सौंप दी और समाजवादी पार्टी में दूसरी पीढ़ी ने दस्तक दी.

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मुलायम सिंह यादव का परिवार देश का सबसे बड़ा सियासी परिवार है. आज की तारीख में इस परिवार के 20 सदस्य समाजवादी पार्टी का हिस्सा हैं. यह पार्टी उसी लोहियाजी के आदर्शों पर चलने का दावा करती है जो नेहरू की परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा देने की आलोचना करते थे. मुलायम सिंह की जिंदगी में कुछ ऐसे पल भी आए जिनसे वो खुद और उनका कुनबा विवादों में रहे.

रामपुर तिराहा कांड
वो 1990 के दशक के शुरुआती साल थे जब उत्तराखंड की मांग जोर पकड़ रही थी. 2 अक्टूबर 1994 को अलग उत्तराखंड की मांग को लेकर लोग दिल्ली रैली में शिरकत करने जा रहे थे. उत्तर प्रदेश में उस वक्त मुलायम सिंह यादव की सरकार थी. बताया जाता है कि सीएम मुलायम के आदेश पर इन लोगों को मुजफ्फरनगर के पास रामपुर तिराहे पर घेर लिया गया. इस दौरान पुलिस ने आंदोलनकारियों पर न सिर्फ लाठी-डंडे बरसाए बल्कि फायरिंग भी हुई. इस घटना को रामपुर तिराहा गोलीबारी कांड के नाम से जाना जाता है. इस घटना में 6 लोग मारे गए. कुछ महिलाओं के साथ छेड़खानी और दुष्कर्म के आरोप भी लगे थे. इस घटना के बाद पूरे प्रदेश में मातम और अफरातफरी का माहौल फैल गया.

इस घटना के बाद मुलायम सिंह यादव की इमेज एक 'विलेन' जैसी हो गई थी. देहरादून समेत तमाम जगहों पर मुलायम सिंह के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे थे. 22 साल बाद भी इस घटना के दोषि‍यों को सजा नहीं मिली है. कोर्ट अगर दोषि‍यों को बरी भी कर देती है तो उत्तराखंड की जनता मुलायम सिंह को शायद ही माफ करे.

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गेस्ट हाउस कांड
2 जून 1995 को लखनऊ में हुआ स्टेट गेस्ट हाउस कांड मुलायम सिंह के सियासी करियर पर सबसे बड़ा दाग है. उस वक्त बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती से साथ हुए दुर्व्यवहार की वजह से मुलायम अगले दिन ही सत्ता से बेदखल हो गए. इस घटना से समाजवादी पार्टी की साख पर भी इससे बड़ा बट्टा लगा.

दरअसल, 1993 के यूपी चुनाव में बसपा और सपा में गठबंधन हुआ था, जिसकी बाद में जीत हुई. मुलायम सिंह यूपी के सीएम बने. लेकिन, आपसी खींचतान के चलते 2 जून, 1995 को बसपा ने सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी. इससे मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई थी. नाराज सपा के कार्यकर्ताओं ने लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस पहुंच कर मायावती को घेर लिया. यहां मायावती कमरा नंबर-1 में रुकी हुईं थीं. उनके साथ बसपा के एमएलए और कार्यकर्ता भी मौजूद थे. इस दौरान सपा कार्यकर्ताओं ने उन्हें मारपीट कर बंधक बना लिया. मायावती ने अपने आप को बचाने के लिए कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया था.

करीब 9 घंटे बंधक बने रहने के बाद बीजेपी नेता लालजी टंडन ने अपने समर्थकों से साथ वहां पहुंचकर मायावती को वहां से सुरक्षित निकाला. इसी घटना के बाद से मायावती, लालजी टंडन को अपना भाई मानने लगीं.

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आय से अधिक संपत्त‍ि का मामला
मुलायम सिंह यादव और उनका परिवार पर आय से अधिक संपत्त‍ि के मामले अदालतों में चले. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया कि 1977 में जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में पहली बार मंत्री बने थे, तब से लेकर 2005 तक उनकी संपत्ति करीब 100 गुना ज्यादा बढ़ गई थी. ऐसे में इस बात की जांच होनी चाहिए कि आखिर इतनी संपत्ति उन्होंने और उनके परिवार ने कैसे अर्जित कर ली.

शुरू में इस मामले में तो मुलायम सिंह के साथ उनके बेटे अखिलेश यादव, बहू डिंपल यादव, दूसरे बेटे प्रतीक यादव भी आरोपी थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने डिंपल यादव को जांच के दायरे से ये कहते हुए बाहर कर दिया था कि वो उस समय सार्वजानिक पद पर नहीं थीं. शीर्ष अदालत ने इस मामले में सीबीआई जांच की मांग वाली याचिका भी खारिज कर दी है.

यादव परिवार में 'महाभारत'
उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले मुलायम सिंह के कुनबे में जमकर घमासान हुआ. हालांकि विरोधी पार्टियों ने इसे यादव परिवार की सोची समझी रणनीति के तहत तैयार किया गया 'ड्रामा' करार दिया है. इस कलह की सुगबुगाहट उस वक्त ही शुरू हो गई थी जब मुलायम के साथी रहे अमर सिंह की समाजवादी पार्टी में घर वापसी का अखिलेश ने विरोध किया. चाचा शिवपाल और अमर सिंह के समर्थन से बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी के समाजवादी पार्टी में हो रहे विलय का अखिलेश ने विरोध किया. लेकिन नेताजी के आगे अखिलेश की नहीं चली.

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बाद में अखिलेश यादव ने भ्रष्टाचार के आरोपी कुछ मंत्रियों को अपनी कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखा दिया. अखिलेश ने अपनी कैबिनेट में अहम मंत्रालयों का जिम्मा संभाल रहे चाचा शिवपाल यादव की भी कैबिनेट से छुट्टी कर दी. मुलायम सिंह ने बैलेंस करने की कोशि‍श में प्रदेश अध्यक्ष का पद बेटे से छीनकर भाई को सौंप दिया. हालांकि बाद में शि‍वपाल की कैबिनेट में भी वापसी हो गई और कलह का यह दौर शांत हुआ. लेकिन अखि‍लेश को प्रदेश अध्यक्ष का पद वापस नहीं मिल पाया. फिर अखिलेश ने चाचा शिवपाल समेत कुछ मंत्रियों की अपने कैबिनेट से छुट्टी कर दी. अब कलह का एक और दौर यादव परिवार में शुरू हुआ. मुलायम के चचेरे भाई और राज्यसभा सदस्य रामगोपाल यादव पार्टी से निकाल दिए गए. अखि‍लेश के कुछ और करीबियों की भी पार्टी से छुट्टी कर दी गई.

लेकिन इस बार लाख कोशि‍शों के बाद भी चाचा शिवपाल की सरकार में वापस नहीं हो सकी पर रामगोपाल पार्टी में वापस आ गए हैं. इस तरह सियासी दंगल के माहिर पहलवान मुलायम ने चुनाव से पहले कुनबे को एकजुट कर लिया है और किसी भी समारोह में पूरा यादव परिवार साथ दिखाई दे रहा है.

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