कुछ हिन्दी फिल्मों के डायलॉग्स ऐसे हैं, जिनसे भारत में रहने वाला कोई भी शख्स अछूता नहीं रह सका, फिर चाहे वो किसी भी भाषा का बोलने वाला हो. दक्षिण के कई एक्टर-एक्ट्रेस और आम लोगों ने इन डायलॉग्स को समझकर हिन्दी सीखी है. विदेशियों को भारत में हिन्दी सिखाने वाले के लिए इन डायलॉग्स का सहारा लिया है. जानते हैं ऐसे ही यादगार डायलॉग्स.
मुगले-आजम (1960)
निर्देशक : के आसिफ
पृथ्वीराज कपूर : अनारकली, सलीम की मोहब्बत तुम्हें मरने नहीं देगी और हम तुम्हें जीने नहीं देंगे.
वक्त (1965)
निर्देशक : यश चोपड़ा
राजकुमार : चिनॉय सेठ, ये बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं है, हाथ कट जाए तो खून निकल आता है.
आनंद (1970)
निर्देशक : ऋषिकेश मुखर्जी
राजेश खन्ना : हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों से बंधी हुई हैं. कब कौन उठेगा कोई नहीं बता सकता.
शोले (1975)
निर्देशक : रमेश सिप्पी
अमजद ख़ान : जो डर गया समझो मर गया.
दीवार (1975)
निर्देशक : यश चोपड़ा
शशि कपूर : मेरे पास... मेरे पास... मां है.
विश्वनाथ (1978)
निर्देशक : सुभाष घई
शत्रुघ्न सिन्हा : जली को आग कहते हैं, बुझी को राख कहते हैं और जिस राख में बारूद बने उसे विश्वनाथ कहते हैं.
डॉन (1978)
निर्देशक : चंद्र बरोट
अमिताभ बच्चन : डॉन का इंतजार तो 11 मुल्कों की पुलिस कर रही है, लेकिन डॉन को पकड़ना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है.
कालिया (1981)
निर्देशक : टीनू आनंद
अमिताभ बच्चन : हम जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है.
शराबी (1984)
निर्देशक : प्रकाश मेहरा
अमिताभ बच्चन : भई, मूंछे हों तो नत्थूलाल जी जैसी हों, वर्ना ना हों.
दामिनी (1993)
निर्देशक : राजकुमार संतोषी
सनी देओल : तारीख पे तारीख मिलती रही है, लेकिन इंसाफ नहीं मिलता. मिलती है तो सिर्फ तारीख.