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कैसे पैदा होते हैं जुड़वा बच्चे? गर्भ में मेल-फीमेल बनने का पूरा विज्ञान भी समझें

aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 17 जुलाई 2021,
  • अपडेटेड 10:19 AM IST
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कुछ महिलाएं डिलीवरी के दौरान एक साथ दो या तीन बच्चों को जन्म देती हैं. मेडिकल साइंस के मुताबिक, एक स्पर्म से केवल एक ही बच्चा पैदा होता है तो फिर जुड़वा बच्चों के पीछे क्या लॉजिक है. क्या जुड़वा बच्चों के पीछे दो स्पर्म होते हैं. जी नहीं...दरअसल पहले स्पर्म के अंदर जाते ही अंडा खुद को सील कर लेता है और उसके बाद वहां कोई दूसरा स्पर्म दाखिल नहीं हो सकता, तो फिर जुड़वा बच्चे कैसे पैदा होते हैं?

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कैसे पैदा होते हैं जुड़वा बच्चे- जुड़वा बच्चे दो तरह के होते हैं आइडेंटिकल और नॉन-आइडेंटिकल. मेडिकल भाषा में इन्हें मोनोजाइगोटिक और डायजाइगोटिक कहा जाता है. आमतौर पर महिला के शरीर में एक अंडा होता है जो एक स्पर्म से मिलकर एक भ्रूण (एम्ब्रियो) बनाता है. लेकिन कई बार इस फर्टिलाइजेशन में एक नहीं बल्कि दो बच्चे तैयार हो जाते हैं.

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चूंकि ये फर्टिलाइजेशन एक ही अंडे से तैयार हुआ था इसलिए इनका प्लेसेंटा भी एक ही होता है. इस अवस्था में या तो दो लड़के पैदा होते हैं या फिर दो लड़कियां. ये दिखने में अमूमन एक जैसे होते हैं और इनका डीएनए भी एक दूसरे से काफी मेल खाता है. हालांकि इनके फिंगर प्रिंट्स अलग-अलग होते हैं. इस तरह के बच्चों को मोनोजाइगोटिक ट्विन्स कहा जाता है.

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लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि औरत के शरीर में एक बार में ही दो अंडे बन जाएं जिन्हें फर्टिलाइज करने के लिए दो स्पर्म की जरूरत पड़ती है. इसमें दो अलग-अलग भ्रूण तैयार होते हैं. इस कंडीशन में पैदा होने वाले बच्चों में अपनी-अपनी प्लेसेंटा होती है. इसमें एक लड़का और एक लड़की भी हो सकती है. कुल मिलाकर ये दो भाई-बहन हैं जिनका जन्म एक साथ हुआ है. इन्हें डायजाइगोटिक कहते हैं.

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आंकड़ों की मानें तो हर 40 में से एक डिलीवरी में जुड़वा बच्चे पैदा होते हैं. इसमें एक-तिहाई मोनोजाइगोटिक और दो-तिहाई डाइजायगोटिक बच्चे होते हैं. स्टडीज बताती हैं कि पिछले दो दशकों में जुड़वा बच्चों का पैदा होना काफी आम हो गया है. क्या इसके पीछे की वजह जानते हैं आप?

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क्यों बढ़ रहे जुड़वा- एक्सपर्ट के मुताबिक, पहले की तुलना में अब औरतें देर से मां बन रही हैं. 30 साल की उम्र के बाद ऐसा ज्यादा देखने को मिलता है. दूसरी वजह है आईवीएफ यानी आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन जैसी तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल. इनमें भी एक से ज्यादा बच्चे पैदा होने की संभावना बनी रहती है.

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एक दौर ऐसा था जब जुड़वा बच्चों का पैदा होना लोगों को जादू-टोना लगता था. नाजी जर्मनी में तो इन पर खूब रिसर्च भी हुआ करते थे. लेकिन आज जुड़वा बच्चों के पैदा होने के पीछे के विज्ञान को दुनिया समझ चुकी है. हालांकि एक को थप्पड़ लगे और दर्द दूसरे को हो, ऐसा सिर्फ फिल्मों में ही होता है. असल जिंदगी में इसके साक्ष्य मौजूद नहीं हैं.

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दो महीने पहले मोरक्को में भी एक महिला ने एकसाथ 9 बच्चों को जन्म दिया था. इसे भी हम ऐसे ही समझ सकते हैं. एक अंडा बहुत सारे भ्रूण में बंटा होगा. तीन भ्रूण तक ऐसा संभव है, लेकिन इससे ज्यादा में अक्सर ऐसा नहीं होता है. या फिर महिला के शरीर में एक बार में कई सारे अंडे बन जाएं. वैज्ञानिक कहते हैं कि 35 साल की उम्र के बाद ऐसा मुमकिन है. इस उम्र में शरीर मेनोपॉज की तरफ बढ़ रहा होता है. इस बीच शायद किसी महीने एक भी अंडा न बने और दूसरे ही महीने शायद दो या तीन अंडे बन जाएं.

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इसकी संभावना तब और भी ज्याद बढ़ जाती है जब कोई महिला अपना फर्टिलिटी ट्रीटमेंट करवाती है. ऐसे में या तो दवा देकर उनके शरीर में अंडे बनवाए जाते हैं या फिर आईवीएफ तकनीक के जरिए बहुत सारे अंडों को फर्टिलाइज करके शरीर के अंदर डाला जाता है.

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अब सवाल उठता है कि जब फर्टिलाइजेशन का तरीका वही है तो ये कैसे तय होता है कि भ्रूण लड़के में तब्दील होगा या लड़की में? आमतौर पर किसी महिला को एक महीने बाद प्रेग्नेंसी का अहसास होता है. तब तक शरीर में भ्रूण बन चुका होता है जिसका आकार 6 मिलीमीटर यानी मटर के दाने से भी आधा होता है. इस वक्त तक भ्रूण की गर्दन और हाथ-पैर बनना शुरू हो जाते हैं.

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हालांकि इस वक्त तक भ्रूण का लिंग निर्धारित नहीं होता है. ऐसा 7वें से 12वें सप्ताह के बीच होता है. इस दौरान अगर भ्रूण के X-X क्रोमोजोम्स डेवलप करते हैं तो लड़की पैदा होती है. वहीं अगर ये X-Y बनते हैं तो लड़का पैदा होता है. हालांकि ये इतना भी आसान नहीं है. इसमें जीन्स और हार्मोन्स की भी बड़ी भूमिका होती है. खासतौर से टेस्टोस्टेरॉन और एस्ट्राडियॉल नाम के हार्मोन की इसमें बड़ी भूमिका होती है.

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छठे से सातवें हफ्ते के बीच भ्रूण करीब एक सेंटीमीटर जितना बड़ा हो चुका होता है. यानी बिल्कुल मटर के दाने के बराबर. इस दौरान सेक्स ग्लैंड्स या रीप्रोडक्टिव ग्लैंड्स का विकास हो चुका होता है. लड़का या लड़की दोनों में ये ग्लैंड शुरुआत में बिल्कुल एक जैसे ही होते हैं. इन ग्लैंड से टेस्टीज़ बन सकती हैं जो कि टेस्टोस्टेरॉन नाम का हार्मोन रिलीज करती है. लड़कों के लिंग का विकास इसी वजह से संभव हो पाता है.

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9वें हफ्ते के आस-पास लिंग बनना शुरू हो जाता है. इस वक्त तक इसे अल्ट्रासाउंड के जरिए नहीं देखा जा सकता है. ऐसा भी हो सकता है कि रीप्रोडक्टिव ग्लैंड्स ओवेरीज़ में तब्दील होने लगे. ऐसे में एस्ट्राडियॉल नाम का हार्मोन रिलीज होने लगता है. जिन देशों में भ्रूण के लिंग जांचने की इजाजत है, वहां डॉक्टर 12वें से 14वें हफ्ते के बीच इस बारे में कुछ बता पाते हैं.

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इससे पहले भ्रूण में लगातार ऐसे बदलाव हो रहे होते हैं जिससे वो लड़का भी बन सकता है या फिर लड़की भी. ये सब पूरी तरह से हार्मोन और जीन्स के खेल पर निर्भर करता है कि आखिरकार बेटा होगा या बेटी. अगर ये प्रोसेस ठीक से न हो तो ये मुमकिन है कि X-X क्रोमोजोम्स होने के बावजूद भ्रूण में लड़का और लड़की दोनों के गुण शामिल हो जाएं. इन्हें इंटरसेक्स कहा जाता है.

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